Tuesday, December 3, 2013

नेपाल में कट्टरपंथ की पराजय

नेपाल की संविधान सभा की 601 सीटों के लिए हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को साफ बहुमत न मिल पाने के कारण संशय के बादल अब भी कायम हैं, पर इस बार सन 2008 के मुकाबले कुछ बदली हुई परिस्थितियाँ भी हैं। माओवादियों के दोनों धड़े किसी न किसी रूप में पराजित हुए हैं। पुष्प दहल कमल यानी प्रचंड की एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) तीसरे नम्बर पर रही है। वहीं उनके प्रतिस्पर्धी मोहन वैद्य किरण की भारत-विरोधी नेकपा-माओवादी और 33 अन्य दलों की चुनाव बहिष्कार घोषणा भी बेअसर रही। इसका मतलब है कि नेपाली जनमत शांतिपूर्ण तरीके से अपने लोकतंत्र को परिभाषित होते हुए देखना चाहता है। हालांकि नेपाल कांग्रेस और एमाले चाहें तो मिलकर सरकार बना सकते हैं। और अपनी मर्जी का संविधान भी तैयार कर सकते हैं। पर कोशिश होनी चाहिए कि बहु दलीय राष्ट्रीय सरकार बनाई जाए, क्योंकि देश को इस समय आम सहमति की ज़रूरत है। व्यवहारिक अर्थ में यह संसद भी है, पर वास्तव में यह संविधान सभा है। अभी इस मंच पर मतभेदों को राजनीतिक शक्ल नहीं देनी चाहिए। कोशिश होनी चाहिए कि फैसले आम राय से हों। इस बार पार्टियों ने विश्वास दिलाया है कि वे एक साल के भीतर देश को संविधान दे देंगी। यह तभी संभव है, जब वे अतिवादी रुख अख्तियार न करें।


नवंबर 2012 में होने वाले चुनाव टलते-टलते एक साल बाद शांति से हो गए, यह संतोष का विषय है। दूसरे इसमें सबसे आगे की दो पार्टियाँ अपेक्षाकृत मध्यमार्गी हैं। चाहे कट्टरपंथी माओवादी हों या राजशाही समर्थक कट्टरपंथी सबकी इस चुनाव में हार हुई है। देश के अंतरिम संविधान के अनुसार चुनाव आयोग द्वारा परिणामों की घोषणा के बाद 21 दिन के भीतर संविधान सभा की पहली बैठक होगी। आनुपातिक आधार पर कौन से सदस्य इस सभा में प्रवेश लेंगे यह काम अभी एक हफ्ते से ज्यादा समय लेगा। माओवादी अपनी सूची देने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि पहले चुनाव की धांधलियों की जांच के लिए समिति बने। यह खिसियानी बिल्ली जैसा बर्ताव है। बहरहाल दिसंबर के तीसरे सप्ताह से पहले यह बैठक नहीं होगी। चूंकि यह सभा ही अंतरिम संसद का काम करेगी, इसलिए सरकार इन्हीं सदस्यों से बनेगी।

सरकार बनाने के अलावा इसका असली काम संविधान तैयार करने का होगा। पर राष्ट्रपति पद को लेकर पार्टियों में मतभेद है। नेपाल कांग्रेस चाहती है कि राम बरन यादव राष्ट्रपति पद पर बने रहें, जबकि माओवादी पार्टी चाहती है कि नए राष्ट्रपति का चुनाव हो। अंतरिम संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को तब तक पद पर रहना है जब तक नया संविधान लागू नहीं हो जाता। एमाले ने हालांकि इस विषय पर कुछ कहा नहीं है, पर उसके कुछ नेता माओवादियों से सहमत लगते हैं। इस मामले में विवाद न भी हो, पर संघीय संरचना पर विवाद होगा।

पिछली संविधान सभा ने जिन  प्रश्नों पर सहमति बना ली थी, उनपर ज्यादा बहस की संभावना अब नहीं है, पर संघीय स्वरूप कैसा होगा और क्या जातीय पहचान महत्वपूर्ण होगी, यह सवाल इस संविधान सभा का पीछा भी नहीं छोड़ेगा। अभी प्रधानमंत्री के पद पर कौन बैठेगा और संविधान सभा का अध्यक्ष कौन होगा, यह तय होना है। माओवादी नेता प्रचंड आसानी से अपनी हार मानने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि चुनाव में धांधली हुई है। वे संविधान सभा का बहिष्कार करने की धमकी भी दे रहे हैं। अब देखना यह है कि भविष्य में उनका रुख कैसा रहेगा।  

नेपाल ने राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र का वरण तो कर लिया, पर उसकी गाड़ी को पटरी पर लाने का काम अधूरा है। राजतंत्र के खात्मे के बाद नई व्यवस्था तैयार करने के लिए बनी संविधान सभा बार-बार  समय बढ़ाने के बावजूद किसी एक प्रकार की व्यवस्था पर सहमत नहीं हो पाई और अंततः पिछले साल मई में वह संविधान सभा खत्म हो गई। 2008 में संविधान सभा दो वर्षों के लिए चुनी गई थी, पर वह 2012 तक काम करती रही और नतीजा शून्य रहा। चार साल में पांच प्रधानमंत्री आए। अंत में प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी को कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया गया और न्यायपालिका की पहल पर संविधान सभा के चुनाव हुए हैं। राजशाही के खिलाफ आंदोलन में आगे रहने वाली एकीकृत नेकपा माओवादी से टूटकर ‘नेकपा-माओवादी’ नाम से एक और पार्टी बन गई। यह पार्टी जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करती है, उसमें दूसरे दलों का अस्तित्व होता ही नहीं। तराई में ‘एक मधेश-एक प्रदेश’ का नारा बचा है, पर वहाँ पार्टियों की संख्या बढ़ती जा रही है। नेपाली कांग्रेस के भीतर भी धड़ेबाज़ी है।

पिछले साल देश के पाँचवें गणतंत्र दिवस यानी 27 मई को समारोहों की झड़ी लगने के बजाय, असमंजस और अनिश्चय के बादल छाए रहे। उम्मीद थी कि उस रोज नया संविधान लागू हो जाएगा और एक नई अंतरिम सरकार चुनाव की घोषणा करेगी। ऐसा नहीं हुआ, बल्कि संविधान सभा का कार्यकाल खत्म हो गया। और एक अंतरिम प्रधानमंत्री ने नई संविधान सभा के लिए चुनाव की घोषणा कर दी। चार साल की जद्दोजहद और तकरीबन नौ अरब रुपए के खर्च के बाद नतीजा सिफर रहा। विडंबना यह है कि मसला बेहद मामूली जगह पर जाकर अटका। मसला यह है कि कितने प्रदेश हों और उनके नाम क्या हों वगैरह।
इसके पहले माओवादी लड़ाकों को सेना में शामिल करने का सवाल था। उसका निपटारा हो गया। सवाल यह है कि सेना के पुनर्गठन और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनाने में कामयाब होने वाली संविधान सभा राज्यों के सवाल पर सहमति क्यों नहीं बना सकी? प्रदेशों को जातीय आधार पर तय करने की सबसे बड़ी समर्थक पार्टी माओवादी है। वह चाहती है कि राज्यों के नाम और भौगोलिक सीमाएं उनकी बहुसंख्यक जातियों के नाम के आधार पर तय किए जाएं। नेपाली कांग्रेस और एमाले का कहना है कि इससे सांप्रदायिकता और अलगाववाद के बीज पड़ेंगे। पिछले साल 27 मई की आधी रात तक इस बात की कोशिश हो रही थी कि जितने पर भी सहमति है उतने संविधान को स्वीकार करके अनसुलझे मामलों को नई संसद से पास करा लिया जाए। यों भी प्रदेशों का पुनर्गठन संविधान का कोर मसला नहीं था। भारत में संविधान लागू होने के एक दशक बाद राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस काम को पूरा किया। और आज भी नए राज्य बन रहे हैं। ऐसा नेपाल में भी हो सकता था।

अब चुनाव परिणामों के अनुसार नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। फर्स्ट पास्ट द पोस्ट के आधार पर 240 सीटों में से नेपाली कांग्रेस ने 105 और नेकपा-एमाले ने 91 सीटों पर जीत हासिल की है। पुष्प दहल कमल यानी प्रचंड की एनेकपा (माओवादी) 26 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही। सन 2008 में प्रचंड की पार्टी को 120 सीटें मिलीं थीं। इस बार शेष 18 सीटें मधेसी और अन्य पार्टियों को प्राप्त हुई हैं। आनुपातिक प्रतिनिधित्व श्रेणी के तहत 335 सीटों के लिए हुई मतगणना में नेकां को 20.42 लाख वोट मिले हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-एकीकृत मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी 20.24 लाख वोट हासिल कर दूसरे स्थान पर रही। माओवादी पार्टी को 10।43 लाख मत मिले हैं। इसी श्रेणी में राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी-नेपाल को मात्र 50 लाख मत मिले और मधेशी जनाधिकार फोरम-लोकतांत्रिक को 2,66,276 मत मिले हैं। अब निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को बुलाकर उनसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व श्रेणी की सीटों के लिए तय उनके उम्मीदवारों के नाम मांगेगा। आयोग मतों के अनुपात के मुताबिक राजनीतिक दलों के बीच सीटों का बंटवारा करेगा। आयोग ने 20,000 से 25,000 मतों को एक सीट के बराबर मानने का निर्णय लिया।

भारत के लिए नेपाल बेहद महत्वपूर्ण देश है। नेपाली नागरिक बड़ी संख्या में भारत में नौकरी करते हैं। नेपाल में बिकने वाला काफी माल भारत में बना होता है। बावजूद इसके वहाँ भारत विरोधी भावनाएं भड़कती रहती हैं। इस बार के परिणाम भारत के लिहाज से चिंताजनक नहीं। भारत की सारी चिंताएं तब दूर हो जाएंगी जब नेपाल व्यवस्थित तरीके से लोकतंत्र की राह पर चल निकलेगा।
  
नेशनल दुनिया में प्रकाशित

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