पाँच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणाम आने के पहले राहुल
गांधी के चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी बढ़ी होती थी। पिछली 22 दिसंबर को फिक्की की सभा
में राहुल गांधी का या दूसरे शब्दों में कांग्रेस नया चेहरा सामने आया। इस सभा में
राहुल चमकदार क्लीनशेव चेहरे में थे। उद्योग और व्यवसाय के प्रति वे ज्यादा
संवेदनशील नज़र आए। संयोग से उसी दिन पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस्तीफा
दिया था। उस इस्तीफे को लोकसभा चुनाव के पहले की संगठनात्मक कवायद माना गया था।
अंदरखाने की खबरें हैं कि देश के कॉरपोरेट सेक्टर को सरकार से शिकायतें हैं। विधानसभा
चुनाव के पहले तक राहुल गांधी का ध्यान गाँव और गरीब थे। अब शहर, मध्य वर्ग और
कॉरपोरेट सेक्टर भी उनकी सूची में है।
सितंबर के पहले हफ्ते में जब संसद के मॉनसून सत्र का समापन
होने वाला था, सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून पास कराया था। साल के शुरू में यूपीए
ने अपना कंडीशनल कैश ट्रांसफर कार्यक्रम शुरू किया था। पर यूपीए का यह ‘गेम चेंजर’ उत्तर भारत के चार राज्यों
में फेल हो गया। तमाम कार्यक्रमों के पायलट प्रोजेक्ट राजस्थान में चलाए गए थे। वहाँ
सूपड़ा साफ हो गया। संकेत साफ हैं। कांग्रेस को अपना चेहरा बदलना होगा। पर चेहरा
बदलने का मतलब राहुल गांधी के बजाय किसी और को मसलन प्रियंका को आगे लाने की योजना
नहीं है। 17 जनवरी को कांग्रेस महासमिति की बैठक में शायद इस बात की औपचारिक घोषणा
हो जाए कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं।
कांग्रेस के सामने इस वक्त तीन चुनौतियाँ हैं। कार्यकर्ता
के मनोबल को टूटने से बचाना। उन नीतिगत प्रश्नों को सामने लाना जिनके आधार पर पार्टी
चुनाव में उतरेगी। और तीसरे राष्ट्रीय और प्रादेशिक गठबंधन। पार्टी ने गठबंधनों के
बारे में सोचना शुरू किया है। एके एंटनी की अध्यक्षता में बनी पार्टी की
चुनाव-पूर्व गठबंधन उप समिति सक्रिय हुई है। डीएमके ने सबसे पहले घोषणा की कि वह
कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेगी, पर उसने कांग्रेस के साथ संपर्क तोड़ा भी नहीं
है। कांग्रेस की गठबंधन उप समिति के सदस्य मुकुल वासनिक और डीएमके के नेता टीआर
बालू के बीच कई बार बातचीत हो चुकी है। पिछले दिनों राज्यसभा के चुनाव में
करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को सदस्यता दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका
अदा की थी। फिर भी डीएमके संभावित ‘तीसरे
मोर्चे’ और भाजपा के साथ गठबंधन की संभावना को भी तोलेगी।
उत्तर प्रदेश(80) के बाद सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्यों
में महाराष्ट्र (48), आंध्र (42), बंगाल (42), बिहार (40), तमिलनाडु (39), मप्र
(29), कर्नाटक (28), गुजरात (26), राजस्थान (25), उड़ीसा (21), केरल (20), असम
(14), झारखंड (14), पंजाब (13), छत्तीसगढ़ (11), हरियाणा (10) हैं। इनमें से
कर्नाटक और आंशिक रूप से छत्तीसगढ़ के अलावा किसी जगह कांग्रेस की स्थिति में
सुधार की उम्मीद नहीं है। कर्नाटक में येदियुरप्पा भाजपा में वापस आ रहे हैं। इससे
कांग्रेस के सामने चुनौती बढ़ेगी। पार्टी को बिहार में कुछ संभावनाएं दिखाई पड़
रहीं हैं, जहाँ लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ उसका गठबंधन हो जाएगा। कांग्रेस
बिहार के इस गठबंधन में राकांपा को भी शामिल रखना चाहती है। राकांपा के तारिक अनवर
कटिहार से चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस अकेले उतरी थी। उसे 40 में से दो पर जीत हासिल हुई, जबकि सन 2004 में कांग्रेस, राजद और
लोजपा के गठबंधन को 29 सीटें मिली थीं। यह गठजोड़ झारखंड में भी चलेगा। 2004 में
झारखंड में इस गठबंधन को 14 में से आठ सीटें मिलीं थीं। वहाँ पिछले चुनाव में भाजपा को
14 में से 9 सीटें मिलीं और अकेले लड़ी कांग्रेस एक सीट पर रह गई। राहुल गांधी अभी
तक इस गठबंधन को लेकर उत्साहित नहीं थे। सितंबर के अंतिम सप्ताह में जब उन्होंने
दागी जन प्रतिनिधियों वाले अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने की बात कही थी, तब उसके
पहले शिकार लालू यादव ही हुए थे। बहरहाल कांग्रेस बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड में अपनी
स्थिति सुधारने की कोशिश करेगी।
पिछले एक-डेढ़ साल में यूपीए के दो महत्वपूर्ण घटकों,
तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ने उसका साथ छोड़ा है। पार्टी के पास एनसीपी और नेशनल
कांफ्रेस दो सहयोगी बचे हैं। महाराष्ट्र में महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष और बहुजन
विकास अघाड़ी नाम के दो छोटे सहयोगी और हैं जिनके पास एक-एक सीट है। सबसे खराब
हालत आंध्र प्रदेश में है। आंध्र से कांग्रेस ने पिछली बार 33 सीटें जीतीं थीं। पर
तेलंगाना बनाने के फेर में पार्टी अपनी गर्दन फँसा चुकी है। जगनमोहन रेड्डी से दुश्मनी
मोल लेकर भी उसने अपना काफी नुकसान कर लिया है। फिर भी उसके पास गठबंधन के लिए या
तो जगनमोहन रेड्डी हैं या तेलंगाना राष्ट्र समिति। क्या उनसे गठबंधन संभव है? राजनीति में कुछ भी संभव है।
सबसे महत्वपूर्ण हैं उत्तर प्रदेश की 80 सीटें। यूपीए-2 को सपा
और बसपा दोनों ने बाहरी समर्थन दिया है। क्या अब कांग्रेस इनकी शरण में जाएगी? पार्टी कह रही है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं
करेगी, क्योंकि,
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के बाद सपा की छवि खराब हुई
है। पार्टी का एक धड़ा बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का हिमायत कर रहा है। बेनी
प्रसाद वर्मा भी इनमें शामिल हैं। पार्टी के कई नेताओं की दलील है कि कांग्रेस और
बसपा मिलकर चुनाव लड़ेंगे तो चमत्कारिक परिणाम आएंगे। पर क्या बसपा उसके साथ गठबंधन
को तैयार हो जाएगी? कांग्रेस का अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय
लोक दल के साथ गठबंधन है, पर मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से इस इलाके के जाट भाजपा के
साथ खड़े नजर आ रहे हैं।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता के बाद राहुल ने कहा, मुझे लगता है कि आम आदमी पार्टी ने बहुत से लोगों को अपने
साथ जोड़ा,
जिन्हें परंपरागत राजनीतिक दल नहीं जोड़ते हैं। हम इससे सबक
लेंगे और देश में किसी से भी अच्छा काम करके दिखाएंगे। कांग्रेस ने अब भ्रष्टाचार
और महंगाई को अपना मुद्दा बनाने का फैसला किया है। इसकी पहली झलक लोकपाल कानून के
रूप में दिखाई पड़ी है। फिक्की की सभा के अलावा राहुल गांधी के दो संवाददाता
सम्मेलन हो चुके हैं। अप्रैल में सीआईआई की सभा में वे अनिच्छुक नेता के रूप में
खड़े थे। कह रहे थे कि मैं महत्वपूर्ण नहीं। संगठन महत्वपूर्ण है। मैं लम्बे
रास्ते से आऊँगा। यह लम्बा रास्ता इन विधानसभा चुनावों में फुस्स हो गया। अब राहुल
कह रहे हैं, जमाखोरी और मुनाफाखोरी को समाप्त करना होगा। खेत से लेकर थाली तक के
आपूर्ति ढांचे को तेजी से आधुनिक बनाना होगा। भ्रष्टाचार हमारी जनता का खून चूस
रहा है।
भ्रष्टाचार कांग्रेस के साथ रूढ़ हो गया है। इस दाग को छुटा
पाना राहुल के लिए मुश्किल काम है। शुक्रवार को दिल्ली में कांग्रेस शासित राज्यों
के मुख्यमंत्रियों से मुलाकात के बाद राहुल ने महाराष्ट्र के आदर्श सोसायटी मामले को
लेकर कहा कि जाँच रपट पर फिर विचार होना चाहिए। क्या यह आसान होगा? गुजरात के फोन टैपिंग कांड की जाँच कराने के केंद्रीय फैसले
के फौरन बाद स्वाभाविक सवाल था कि आदर्श मामले की जाँच रपट को महाराष्ट्र सरकार ने
ठंडे बस्ते में क्यों डाल दिया? इन बातों के जवाब देना आसान
नहीं है। जब तक जवाब सोचे जाएंगे, चुनाव सिर पर होंगे। अब बहुत कुछ बदलने का समय
नहीं है।
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