लोकपाल विधेयक पास होने
के बाद अब अनेक सवाल उठेंगे। क्या अब देश से भ्रष्टाचार का सफाया हो जाएगा? क्या हमें इतना ही चाहिए था? सवाल यह भी है
कि यह काम दो साल पहले क्यों नहीं पाया था? जो राजनीतिक दल
कल तक इस कानून का मज़ाक उड़ा रहे थे वे इसे पास करने में एकजुट कैसे हो गए? और अरविंद केजरीवाल और उनके साथी जो कल तक अन्ना हजारे के
ध्वज वाहक थे आज इसे जोकपाल कानून क्यों कह रहे हैं? राहुल गांधी ने
इस कानून को लेकर पहले गहरी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे अब इसे अपना कानून क्यों बता
रहे हैं? इसे पास कराने में भारतीय जनता पार्टी और
कांग्रेस के बीच इतनी जबरदस्त सहमति कैसे बन गई?
दो साल पहले केजरीवाल
कहते थे कि हम चुनाव लड़ने नहीं आए हैं। उन्होंने चुनाव लड़ा। ऐसी तमाम
अंतर्विरोधी बातों से ही एक लोकतांत्रिक व्यवस्था विकसित होती है। इन दिनों अचानक एक
नए किस्म की राजनीति ने जन्म लिया है। यह शुभ लक्षण है। जरूरी नहीं कि यह उत्साह
बना रहे। संभव है कि निराशा का कोई और कारण हमारे भीतर पैदा हो। फिलहाल हमें धैर्य
और समझदारी का परिचय देना चाहिए।
बड़े भ्रष्टाचार से
निपटने के लिए लोकपाल केवल कारगर होगा उसे पूरी तरह मिटाएगा नहीं। दिसंबर 2011 में
लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी
का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था। उनका आशय था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं विकसित
होती हैं। हम इस विधेयक को पास हो जाने दें और भविष्य में उसकी भूमिका को सार्थक
बनाएं। लोकपाल कानून का पास होना भी इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। विधेयक के
असर के बारे में बाद में पता चलेगा। हो सकता है कि इसमें कुछ सुधार करना पड़े।
लोकपाल कानून को पास
कराने का श्रेय अरविंद केजरीवाल की टीम को भी मिलना चाहिए। आम आदमी पार्टी की जीत
ने भी दबाव बनाया। सरकार ने यह कानून अन्ना के आंदोलन से डर कर पास किया, अपनी
जिम्मेदारी समझ कर या फिर आम आदमी पार्टी के सामने अपना सूपड़ा साफ होने के कारण
अपनाया? सारी बातें आंशिक रूप से सही हैं। कानून सड़क
पर नहीं संसद में बनते हैं। हाँ सड़क की बात संसद को सुननी होती है। संवैधानिक
शक्तियों को भी काम करने का मौका मिलना चाहिए। साथ ही ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का
गठन होना चाहिए जो कारगर हों और देश की जनता की भावनाओं के अनुरूप हों।
अन्ना आंदोलन सन 2011 की 30 जनवरी की एक रैली के साथ शुरू हुआ था। रामलीला मैदान से शुरू हुई उस रैली में
अन्ना हजारे थे भी नहीं। अन्ना हजारे को इस आंदोलन में कोई लाया। इस आंदोलन ने
धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई। अप्रैल 2011 में जब दिसंबर इंडिया अगेंस्ट करप्शन की
टोली प्रधानमंत्री से मिलने गई तो उन्होंने जन लोकपाल के बाबत कोई आश्वासन देने से
इनकार कर दिया। उसके बाद जंतर-मंतर पर हुए अनशन और उसकी मीडिया कवरेज ने सरकार के
हाथों के तोते उड़ा दिए। वह ‘अरब स्प्रिंग’ का समय था जब मिस्र में जनता सड़कों पर निकल आई थी। कहाँ
सरकार कुछ सुन नहीं रही थी और कहाँ लोकपाल कानून बनाने के लिए एक संयुक्त समिति
बनाने को राज़ी हो गई। सरकारी बर्ताव में भी अंतर्विरोध थे। उसने पहले तो 15 अगस्त
को अन्ना को गिरफ्तार किया और फिर 30 अगस्त को संसद का विशेष अधिवेशन बुलाकर ‘राष्ट्रीय
मंतव्य’(सेंस ऑफ नेशन) पास कर दिया।
लोकपाल कानून का केवल एक पार्टी ने खुलकर विरोध
किया है। दिसंबर 2011 में विरोध करने वालों की संख्या ज्यादा थी। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह और आरजेडी के
लालू प्रसाद यादव ने तब लोकसभा में कहा था कि यह कानून दरोगाओं को ताकत देगा। हालांकि
इस बार लालू यादव लोकसभा में नहीं थे, पर समाजवादी पार्टी का रुख वही रहा। जाँच का
सिद्धांत है कि जो भी जाँच करे वही महत्वपूर्ण है। वह दरोगा हो या डीआईजी उसे पूरी
ताकत मिलनी चाहिए। दरोगा शब्द को कलंकित किसने किया? राजनेताओं को अपने
गिरेबान में भी झाँकना चाहिए। उन्हें सामंती तरीके से सोचना बंद करना चाहिए। यह
कानून आज से तीस-चालीस साल पहले बन गया होता तो अन्ना आंदोलन की ज़रूरत क्या थी?
सिर्फ कानूनों से सामाजिक
बदलाव नहीं होता। हमारे पास दुनिया के सबसे ज्यादा कानून हैं। पर दुनिया की
सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था होने का हम दावा नहीं कर सकते। हम निकृष्टतम नहीं हैं, पर गर्व करने
लायक भी हमारे पास कुछ नहीं है। सांस्कृतिक और सामाजिक बदलावों के लिए सामाजिक
आंदोलनों की जरूरत है। जिसके लिए शिक्षा और पीछे रह गए नागरिकों की भागीदारी की
दरकार है। बात-बात पर सार्वजनिक सम्पत्ति को जलाने वाली जनता को समझदार कैसे कहा
जा सकता है? वही जनता अपने अधिकार ले
पाती है जो अपने कर्तव्य पूरे करती हो।
अन्ना आंदोलन में सिटिजंस
चार्टर एक महत्वपूर्ण माँग है। संयोग से यह अवधारणा उसी साल तैयार हुई जिस साल
हमने आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत की। ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर ने पद सम्हालने
के एक साल के भीतर ही इस कानून को पेश करके पीपुल्स फर्स्ट की इस अवधारणा को जन्म
दिया था। इसके बाद बेल्जियम, मलेशिया, जमैका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और स्पेन वगैरह
में ऐसे कानून बने। यह एक अवधारणा है जिसे लगातार मजबूत करने की ज़रूरत है।
केंद्र और
राज्य : केंद्र के स्तर पर लोकपाल और राज्यों के स्तर पर
लोकायुक्त होगा, जो लोक सेवकों (पब्लिक सर्वेंट) के खिलाफ भ्रष्टाचार और दुराचरण
की शिकायतों सुन सकेगा। कानून लागू होने के 365 दिन में
राज्यों की विधानसभाओं को लोकायुक्त के गठन के लिए विधेयक पारित करना होगा।
लोकसभा से पहले पास किए गए विधेयक में व्यवस्था थी कि यह कानून राज्यों पर तभी
लागू होगा जब वे अपनी सहमति देंगे। केंद्र सरकार के पास लोकायुक्त की नियुक्ति की
अधिकार था। संसद से पास कानून में यह अधिकार राज्यों के पास है। नागरिक इनसे अपनी
शिकायतें सीधे कर सकेंगे। लोकपाल जिन मामलों की जाँच करेगा उसके लिए उसे कहीं से
पूर्व अनुमति नहीं लेनी होगी।
संरचना : लोकपाल में एक अध्यक्ष होगा और अधिकतम आठ सदस्य होंगे। इनमें से 50
फीसदी सदस्य न्यायिक क्षेत्र से होंगे। आधे सदस्य अनुसूचित जातियों,
जनजातियों, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होंगे। लोकपाल के किसी
सदस्य की सुप्रीम कोर्ट से जाँच कराने के बाद राष्ट्रपति निलंबित कर सकेगा।
गठन : अध्यक्ष
और सदस्यों का चयन एक चयन समिति करेगी, जिसमें प्रधानमंत्री,
लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा
में नेता प्रतिपक्ष, भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे।
पाँचवाँ सदस्य एक प्रसिद्ध न्यायविद होगा, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति चयन समिति के
पहले चार सदस्यों की सिफारिश के आधार पर करेंगे।
धार्मिक
संस्थाएं और ट्रस्ट : नए विधेयक में ऐसी
संस्थाएं और ट्रस्ट शामिल हैं, जो विदेशी संस्थाओं से धन प्राप्त करते हैं और
जिनकी एक निर्धारित सीमा से ज्यादा आय है। विदेशी योगदान नियमन कानून (एफसीआरए) के
परिप्रेक्ष्य में विदेशी स्रोत से 10 लाख रुपए सालाना से अधिक दान प्राप्त कर रही सभी इकाइयां लोकपाल के दायरे में
होंगी। एनजीओ लोकपाल के दायरे से बाहर होंगे।
अभियोजन : आरोप पत्र दाखिल करने के पहले लोकपाल अपनी अभियोजन
शाखा या जाँच करने वाली एजेंसी को विशेष अदालतों में मुकदमा चलाने को अधिकृत कर
सकता है। इसके पहले यह अधिकार केवल लोकपाल की अभियोजन शाखा के पास था।
सीबीआई : लोकपाल
का कार्याधिकार सीबीआई सहित सभी जाँच एजेंसियों के ऊपर होगा। नए विधेयक में सीबीआई
में एक अभियोजन निदेशालय बनाने की व्यवस्था की गई है। इसके निदेशक की नियुक्ति
केंद्रीय सतर्कता आयोग की संस्तुति पर होगी। लोकपाल के मामलों की जाँच से जुड़े
अधिकारियों का तबादला लोकपाल की अनुमति के बाद ही हो सकेगा। इन मामलों में सीबीआई उसके
अधीन काम करेगी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति सीबीआई
निदेशक के चयन में सिफारिश करेगी।
प्रधानमंत्री : प्रधानमंत्री
को लोकपाल के दायरे में लाया गया है। प्रधानमंत्री के विरुद्ध जाँच बंद कमरे
में होगी और इस जाँच के लिए लोकपाल के
पूर्ण पीठ के दो तिहाई सदस्यों की स्वीकृति की आवश्यकता होगी।
सज़ाएं : झूठी शिकायतों पर एक साल तक की सज़ा और एक लाख रुपए
तक का ज़ुर्माना किया जा सकेगा। भ्रष्टाचार की न्यूनतम सज़ा दो साल की होगी। सरकारी
कर्मचारियों को सात साल तक की कैद। आपराधिक दुराचरण और जानबूझकर अपराध में
संलिप्तता पर 10 साल तक की कैद। भ्रष्ट तरीकों से हासिल संपत्ति को सील करने का
अधिकार लोकपाल के पास होगा, भले ही मुकदमा लंबित हो।
जाँच :
प्राथमिक छानबीन (इनक्वायरी) 60 दिन के भीतर और जाँच (इनवेस्टिगेशन) छह महीने के
भीतर पूरी होगी। सरकारी कर्मचारियों के बारे में जाँच कराने के पहले उन्हें लोकपाल
के सामने सुनवाई का अधिकार होगा। लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में हर श्रेणी के लोक
सेवक आएंगे। ईमानदार लोक सेवकों को पर्याप्त संरक्षण दिया जाएगा।
जन लोकपाल से कितना फर्क
लोकपाल विधेयक पास होने
के बाद अरविंद केजरीवाल तथा उनके साथियों ने इसे जोकपाल कहना शुरू कर दिया।
वस्तुतः यह विधेयक 27 दिसंबर 2011 को लोकसभा से पास विधेयक के मुकाबले बदला हुआ
है। इसमें जन लोकपाल के अनेक तत्वों को भी शामिल किया गया है। मसलन यह कहा गया कि लोकसभा
से पास कानून में लोकपाल का अधिकार क्षेत्र सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री तक सीमित रहेगा, जबकि जन लोकपाल के दायरे
में प्रधानमंत्री समेत नेता, अधिकारी, न्यायाधीश सभी थे। वास्तव
में लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में सभी हैं और उसके पास आम लोगों की शिकायत पर सीधे
कार्रवाई शुरू करने का अधिकार है।
लोकपाल के दायरे में न
सीबीआई और न पुलिस। जन लोकपाल में सीबीआई को लोकपाल के अंतर्गत लाए जाने की मांग
थी। उसे पुलिस फोर्स देने की माँग भी थी। पुलिस न होने से क्या लोकपाल कमज़ोर होगा? सीबीआई भी व्यवहारिक रूप में उसके अधीन है।
जन लोकपाल बिल में एक ही
विधान के तहत लोकायुक्तों की स्थापना की मांग थी। देश की संघीय व्यवस्था में यह
करना संभव नहीं है।
'ओम्बुड्समैन' स्वीडिश, डेनिश और
नॉर्वेजियन भाषाओं का शब्द है, जिसका मतलब है 'विधायिका द्वारा नियुक्त ऐसा अधिकारी जो प्रशासकीय और
न्यायिक प्रक्रियाओं से संबंधित शिकायतों का निपटारा करे। सैकड़ों-हजारों साल से दुनिया भर में राज-दरबार सरकारी काम-काज में
भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कदम उठाते रहे हैं। स्वीडन के संविधान में सन 1809 में ओम्बुड्समैन की व्यवस्था हुई जो अदालतों और लोक सेवकों
द्वारा कानूनों तथा विनियमों के उल्लंघन के प्रकरण की जांच करता था। फिनलैंड में 1919 इसकी नियुक्ति हुई। ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन और कनाडा समेत अनेक देशों में इस तरह की शिकायतें
सुनने और उनपर कार्रवाई करने की व्यवस्था है।
भारत में 5 जनवरी 1966 को मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में पहले
प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया। इसने अन्य बातों के अलावा यह सलाह दी कि
देश में दो स्तर पर इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए। केन्द्र में लोकपाल और
राज्यों में लोकायुक्त। देश के 18 राज्यों ने अपने
यहाँ लोकायुक्त तैनात किए हैं। केन्द्र में लोकपाल की नियुक्ति के लिए 1968 में पहली बार यह बिल लोकसभा में पेश किया गया।
1969 में बिल पास भी हो गया
और राज्यसभा में बिल था कि लोकसभा भंग हो गई। इसके बाद 1971, 77, 85, 87,
96, 98, 2001, 2005 और 2008 में इसे जीवित करने के प्रयास हुए और सफलता
नहीं मिली। सितम्बर 2004 में
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हमारी सरकार लोकपाल विधेयक को पास करने में
तनिक देरी नहीं लगाएगी। पर ऐसा नहीं हो पाया। यह बिल कभी इस कमेटी में पड़ा रहता
है और कभी उस में और लोकसभा भंग हो जाती।
आधुनिक लोकतंत्र और
पूँजीवाद दोनों के विकास पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि एक ओर व्यवस्था पर कब्जा
करने की कुछ ताकतवर लोगों की कोशिशें हैं तो दूसरी ओर इन कोशिशों से लड़ने वाली
ताकतें एकताबद्ध होती हैं। कम्पनियों में शेयर होल्डरों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है।
अभी तक कोई एक या दो सेठों के परिवार हावी रहते थे। अब आम जनता की हिस्सेदारी बढ़
रही है। छोटे इनवेस्टरों की तादाद बढ़ रही है। कॉरपोरेट गवर्नेंस और सिविल गवर्नेंस दोनों
में पारदर्शिता पर जोर है। और यह वैश्विक प्रवृत्ति है, केवल भारत की ही नहीं। भारत में पुराने ज़माने से
भ्रष्टाचार चला आ रहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में चालीस किस्म के आर्थिक
घोटालों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि यह सम्भव नहीं कि सरकारी कर्मचारी
ज़ुबान पर रखी शहद की बूँद का स्वाद नहीं लेगा। यह नज़र रखना मुश्किल है कि मछली
कितना पानी पीती है। कौटिल्य ने भ्रष्ट आचरण के खिलाफ बेहद कड़े कानूनों की
व्यवस्था की थी। मुगल शासन में सरकारी घोड़ों की खरीद से लेकर राजस्व वसूली तक
भ्रष्टाचार था। बख्शीश शब्द मुगल दरबारों से ही आया है। अंग्रेज कम्पनी सरकार ने
आधुनिक भ्रष्टाचार की नींव डाली। गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के खिलाफ इसी किस्म
के आरोपों को लेकर महाभियोग चला था। इसी तरह पॉल बेनफील्ड नाम के इंजीनियर की
कहानी है, जिसे कई बार नौकरी से
हटाया गया। वह जब वापस गया तो लाखों की कमाई करके ले गया।
सन 2011 के दिसम्बर में
जब लोकपाल विधेयक पेश किया जा रहा था, दो और कानूनों की चर्चा थी। एक था ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण कानून और दूसरा सिटिज़न
चार्टर। यानी सरकारी सेवाओं की समयबद्ध गारंटी। इन कानूनों को पास होना चाहिए। ये
पास क्यों नहीं हो पाते हैं? क्या इसके लिए
सिर्फ सरकार ज़िम्मेदार है? यह कमी समाज में भी है, जो
अपनी बात कहने की ताकत नहीं रखता।
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