Wednesday, December 4, 2013

बस्तर से दिल्ली तक का संदेश

पाँच राज्यों के विधान सभा चुनाव का दौर तकरीबन पूरा हो गया है. अब सिर्फ दिल्ली का चुनाव बचा है. चुनाव अगर खेल का मैदान हो तो इसे फाइनल और सेमी फाइनल की शब्दावली में बाँधने की कोशिश भी होती है. इस बार के चुनाव को इस रूपक से भी जोड़ा गया है. हरेक चुनाव कुछ न कुछ नया देकर जाता है. मिजोरम हो या राजस्थान चुनाव प्रक्रिया हमारे समाज पर गहरा असर छोड़कर जाती है. चुनाव अब हमारी संस्कृति का हिस्सा है. इस बार छत्तीसगढ़ में भारी मतदान ने साबित किया कि मुख्य धारा की राजनीति यदि नागरिकों के सबसे नीचे के तबकों से खुद को जोड़ेगी तो बदले में उसे जबरदस्त समर्थन मिलेगा. इन नागरिकों को कुछ बंदूकधारियों ने अपनी धारणाओं से प्रभावित किया था. यह प्रभाव अनायास नहीं था. उसके कारण भी थे. चुनाव के कारण यह बात भी सामने आई कि किस तरह हमारी विकास-नीति ने जनजातियों की अनदेखी की है. एक गलतफहमी यह है कि चुनाव पाँच साल बाद लगने वाला मेला है. वस्तुतः यह हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया है. इसलिए चुनाव हो जाने के बाद भी नागरिक या उसके प्रतिनिधियों का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए. यह रिश्ता किस तरह बना रहेगा, इसपर विचार-मनन चल ही रहा है. इस चुनाव में नोटा बटन की शुरुआत हुई है. यह शुरुआत मात्र है. इसका व्यवहारिक मतलब अभी कुछ नहीं है, पर कुछ साल बाद यह बटन किसी और बटन का मार्ग-दर्शक बनेगा.

कल दिल्ली में मतदान है. दिल्ली और छत्तीसगढ़ के नागरिकों में बुनियादी अंतर है. पुराने यूनानी नगर राज्यों की तुलना में दिल्ली कई गुना बड़ा शहर है. पर यह शहर नगर लोकतंत्र की शक्ल भी दे रहा है. पिछले साल दिसंबर में हुए गैंगरेप के बाद जिस तरीके से शहर के नौजवानों ने इंडिया गेट पर डेरा डाला था वह ऐतिहासिक घटना थी. देश की हर तरह की संस्था ने उस शिद्दत को फौरन महसूस किया था. पिछले एक दशक से दिल्ली में भागीदारी नाम से कार्यक्रम चल रहा है. इसमें नागरिकों की भूमिका ज्यादा बड़ी है. दिल्ली में रेज़ीडेंट वैलफेयर एसोसिएशनों के मार्फत लोकतंत्र तनिक और करीब आया है. संभव है कल हमने आस-पास की सफाई, रोशनी, सड़कों की मरम्मत और पर्यावरण संरक्षण के काम खुद देखें. जनता को धीरे-धीरे काम अपने हाथ में लेने होंगे. दिल्ली विधानसभा कुल जमा 70 विधायकों का सदन है. दिल्ली पूर्ण राज्य भी नहीं है. इस लिहाज से इसका राजनीतिक महत्व कुछ भी नहीं है. फिर भी दिल्ली से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों संसदीय सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते थे. इनमें कपिल सिब्बल, अजय माकन, कृष्णा तीरथ और संदीप दीक्षित की राष्ट्रीय पहचान है. यहाँ होने वाली राजनीतिक हार या जीत के व्यावहारिक रूप से कोई माने नहीं हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है.

इस अर्थ में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए दिल्ली विधानसभा का चुनाव ओपीनियन पोल का काम करेगा. कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए. दिल्ली एक बेहतरीन बैरोमीटर के रूप में उभर रहा है. पिछले कुछ साल में देश के शहरी नौजवानों के आंदोलनों को सबसे अच्छा हवा-पानी दिल्ली में ही मिला. देश का सबसे बड़ा शहर होने के नाते दिल्ली इस आयु और मध्य आय वर्ग का बेहतरीन नमूना है. खास बात यह है कि दिल्ली की इस युवा आबादी में मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ से लेकर कन्याकुमारी और कश्मीर तक से आए लोग हैं. दिल्ली का चुनाव अब केवल स्थानीय समस्याओं तक केंद्रित नहीं रहता. पिछले दिनों हुए दिल्ली के पालिका चुनावों से भी यह बात जाहिर हुई. माना जा रहा है कि 2014 के चुनाव में भारत के शहरी युवाओं की भावनाओं का पता लगेगा कि वे किस प्रकार की राजनीति चाहते हैं. साथ ही सोशल मीडिया की भूमिका भी ज़ाहिर होगी. दिल्ली के इस चुनाव में उसकी झलक नज़र आ रही है. दिल्ली शहर की सामाजिक संरचना में पिछले दो दशक में काफी बदलाव हुआ है. यहाँ काफी बड़ी आबादी बिहार, उत्तर प्रदेश और दक्षिण के राज्यों से आई है. शीला दीक्षित के टिके रहने का बड़ा कारण दिल्ली की बदलती डेमोग्राफिक संरचना भी है. इस बात का पता इस तथ्य से भी लगता है कि तमिलनाडु की डीएमडीके ने भी इस बार के चुनाव में अपनी एक प्रत्याशी को उतारा है. यहाँ इतने नए लोग आते हैं कि उन्हें एंटी इनकम्बैंसी का बोध नहीं होता. पुरानी दिल्ली का व्यापारी समुदाय अब उतना प्रभावशाली नहीं रहा, जितना दो दशक पहले था.

दिल्ली में इस बार एक और परीक्षण चल रहा है. यह है आम आदमी पार्टी. सन 2010 का अन्ना आंदोलन दिल्ली के इर्द-गिर्द ही सीमित था. इस आंदोलन ने दिल्ली ही नहीं दुनिया भर के भारतीय नौजवानों के दिलो-दिमाग को मथ डाला था. एक साल से भी कम समय में एक पार्टी बनकर खड़ी हो गई. खड़ी ही नहीं हो गई इस समय कांग्रेस और भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी है. यह चुनाव ‘आप’ जैसी राजनीति के लिए कसौटी का काम करेगा. कोई नहीं जानता था कि राजनीति में ऐसे लोग आएंगे, जिनके इसमें आने की उम्मीद नहीं की जाती थी. एक ज़माने में माना जाता था कि हमारा मध्य वर्ग राजनीति के प्रति उदासीन है. पर आज ऐसी बात नहीं लगता. भारतीय लोकतंत्र ने बस्तर के जंगलों से लेकर ईस्ट ऑफ कैलाश तक सिर्फ एक संदेश दिया है कि बदलना है तो चुनाव के मार्फत बदलो. पिछले चार साल से हम घोटालों और भ्रष्टाचार के एक के बाद एक सामने आते मामलों को देख रहे हैं तो उनके पीछे इनका पर्दाफाश करने वाली कामनाएं भी हैं. इन कामनाओं को जनता का समर्थन भी प्राप्त है. किसी न किसी वजह से दिल्ली हमारे राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र बन गया है. बेशक यह विमर्श अधूरा है, पर वह शुरू हो चुका है. सोशल मीडिया उसका मुख्य उपकरण है. इसका संदेश है कि जो कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाओ.

हाल में प्रकाश भानु मेहता ने लालू यादव के दो दशक पहले के एक टीवी इंटरव्यू का हवाला दिया है. लालू से पूछा गया, अच्छे लोग राजनीति में क्यों नहीं आते? लालू ने कहा, कौन कहता है कि अच्छे लोग नहीं आते? हम लोग जेपी आंदोलन से आए अच्छे लोग नहीं थे? क्या जॉर्ज फर्नांडिस जब राजनीति में शामिल हुए तब वे अच्छे आदमी नहीं थे? क्या राजीव गांधी अपने साथ अच्छे लोगों को नहीं लाए? सवाल है कि राजनीति में आने के बाद अच्छे लोगों को क्या हो जाता है? नब्बे के दशक में अरुण शौरी अच्छे लोगों को राजनीति में लाने का आह्वान कर रहे थे. जब वे खुद राजनीति में आए तो उनपर भी कीचड़ पड़ा. ‘आप’ की राजनीति अभी शुरू हो रही है. पहला सवाल है कि क्या जनता उन्हें स्वीकार करेगी? और स्वीकार किया भी तो क्या वे इस राजनीति में टिक पाएंगे? उन्हें अपने पहले स्टिंग ऑपरेशन से पता तो लगा ही होगा कि यह डगर बहुत कठिन है. बहरहाल इस बार के परिणाम आने दीजिए. उसके बाद ही यह बात आगे बढ़ेगी.

प्रभात खबर में प्रकाशित

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