भारत सरकार और पंजाब सरकार ने खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ हालांकि कार्रवाई शुरू की है, पर लगता है कि इसमें कुछ देर की गई है। दो-तीन साल से जिस बात की सुगबुगाहट थी, वह खुलकर सामने आ रहा है। दिल्ली की सीमा पर एक साल तक चले किसान-आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया पर खालिस्तान समर्थक सक्रिय हुए थे। 26 जनवरी, 2021 को लालकिले के द्वार तोड़कर जब भीड़ ने अपना झंडा फहराया था, तब मसले की गंभीरता की आशंका व्यक्त की गई थी। उन्हीं दिनों टूलकिट-प्रकरण उछला, जिसे सबसे पहले स्वीडिश जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने सोशल मीडिया पर शेयर किया था। किसान आंदोलन शुरू होने के पहले ही पंजाब में पाकिस्तान से भेजे गए ड्रोनों की मदद से हथियार गिराने की घटनाएं हुई थीं। कनाडा स्थित कुछ समूहों ने सन 2018 से ‘रेफरेंडम-2020’ नाम से एक अभियान शुरू किया था, जिसके लक्ष्य बहुत खतरनाक हैं। हालांकि यह रेफरेंडम सफल नहीं हुआ, पर इससे साबित हुआ कि दुनिया में भारत-विरोधी गतिविधियाँ चल रही हैं। उन्हें जब भारत के भीतर समर्थन नहीं मिला, तो बाहर से अपने आदमी को प्लांट किया। इन बातों का सकारात्मक पक्ष यह है कि सिख समुदाय ने इन प्रवृत्तियों का विरोध किया है।
अमृतपाल की भरती
इन बातों का संदर्भ अमृतपाल सिंह के नेतृत्व
में हुई घटनाएं और फिर उसकी गिरफ्तारी की कोशिशों से जुड़ा है। पंजाब के पूर्व
सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 1 सितंबर 2022 को एक सभा के दौरान अमृतपाल सिंह पर
सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा कि अमृतपाल दुबई से आया है और उसका पूरा परिवार दुबई
में है। ऐसे में उसे भारत किसने भेजा? इसका पता लगाना
पंजाब की ‘आप’ सरकार की जिम्मेदारी है। अमृतपाल की
अगुआई में उसके हजारों समर्थकों ने गत 23 फरवरी को
अमृतसर के अजनाला थाने पर जिस तरह से हमला किया था, उसके बाद उनके इरादों को लेकर
कोई संशय नहीं रह गया था। अमृतपाल दुबई में ट्रक ड्राइवर था। उसे पाकिस्तानी
आईएसआई ने भारत में गड़बड़ी फैलाने के लिए तैयार किया। वे चाहते हैं कि पंजाब की
नई पीढ़ी के मन में उन्माद भरा जाए, ताकि एकबार फिर से देश में अराजकता की लहर
फैले जैसी अस्सी के दशक में पंजाब में चले खालिस्तानी आंदोलन के दौरान फैली थी।
उसकी परिणति 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार और इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में देखने
को मिली थी। उन परिघटनाओं से पैदा हुआ गर्द-गुबार छँट ही रहा था कि भारत की एकता
से ईर्ष्या रखने वालों ने दूसरी योजनाओं पर काम शुरू कर दिया।
सीमा पर हरकतें
भारतीय खुफिया एजेंसियों का कहना है कि पाकिस्तान से सक्रिय आतंकी ग्रुप सोशल मीडिया में काफी एक्टिव है और वे युवाओं को बरगला कर आतंकी संगठन में शामिल होने के लिए मना रहे हैं। इन संगठनों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। इस काम में पंजाब और कश्मीर के उन अपराधियों को भी शामिल किया जा रहा है, जो नशे का अवैध कारोबार करते हैं। हाल में पंजाब से सटी पाकिस्तानी सीमा आईएसआई की गतिविधियों में इजाफा देखने को मिल रहा है। पाक रेंजर्स और आईएसआई की मदद से सीमा के नजदीक कई जगहों पर भारत में ड्रग्स और हथियार भेजने के लिए स्मगलरों और आतंकियों को ड्रोन्स मुहैया कराए गए हैं। फ़िरोज़पुर और अमृतसर के बीच कई पाकिस्तानी ड्रोन-गतिविधि काफी बढ़ गई है। पाकिस्तान की तरफ से सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देने के लिए ‘डमी ड्रोन्स’ का सहारा भी लिया जा रहा है।
पुलिस मुख्यालय
हालांकि, खालिस्तान
आंदोलन अब इतिहास बन चुका है। गिने-चुने लोगों को छोड़ दें, तो सिखों
के बीच इस आंदोलन का कोई समर्थन नहीं है, पर थोड़े से लोग ही मौके का फायदा उठाने
की कोशिश कर रहे हैं। यह बात हाल में अमृतपाल सिंह को प्रकरण में साबित हुई है, जो
एक नए भिंडरावाले के रूप में उभरना चाहता है। इसने ‘वारिस पंजाब दे’ के
नाम से एक संगठन के सहारे अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ाने की कोशिश की थी। पंजाब
पुलिस ने गत 18 मार्च से उसकी गिरफ्तारी की कोशिश शुरू की, तो वह निकल भागा। पिछले
साल पंजाब के मोहाली में पुलिस के खुफिया विंग मुख्यालय में 9 मई, 2022 की रात
रॉकेट चालित ग्रेनेड से हमला किया गया, जिससे इमारत की
एक मंजिल की खिड़की के शीशे टूट गए। यह चौंकाने वाली घटना थी। उसके एक दिन पहले
हिमाचल विधान भवन के मुख्य द्वार के बाहर खालिस्तानी बैनर लगाए गए।
देर से जागे
पंजाब पुलिस और भारत सरकार इन गतिविधियों को
रोकने के लिए देर से जागी है। देश-विदेश की घटनाओं पर गौर करें, तो पाएंगे कि सिखों
और शेष भारतीयों के बीच कटुता पैदा करने की कोशिशें की जा रही हैं। पहले कनाडा से
खबरें आती थीं, पर अब ऑस्ट्रेलिया से आ रही हैं, जहाँ हिंदू मंदिरों पर हमले और तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं। फिर
तथाकथित 'खालिस्तान जनमत संग्रह' के दौरान मारपीट की घटनाएं हुईं। गत 12
जनवरी को ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न के स्वामी नारायण मंदिर में भारत विरोधी नारे
लिखे गए। मार्च की शुरुआत में श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर में तोड़फोड़ की गई थी। गत
15 मार्च को ब्रिसबेन में भारतीय वाणिज्य दूतावास को बंद करने पर मजबूर कर दिया।
भीड़ ने 'खालिस्तान जिंदाबाद' के
साथ हिंदुओं के खिलाफ नारे लगाए। 21 फरवरी की रात ब्रिसबेन के टारिंगा में स्वान
रोड स्थित वाणिज्य दूतावास पर हमला किया गया। पहले भारतीयों पर हमले हो रहे थे। बाद
में उन्होंने भारत सरकार से संबंधित संस्थानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया।
लंदन और सैन फ्रांसिस्को
कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तानी
तत्वों ने अपनी शक्ल दिखानी शुरू कर दी। सबसे गंभीर घटना लंदन स्थित भारतीय
उच्चायोग में हुई, जहाँ रविवार 19 मार्च को कुछ लोगों ने तिरंगे झंडे को उतार कर
खालिस्तानी झंडा लगा दिया। इस घटना से भारतवंशियों में रोष फैल गया और दुनिया के
कई देशों में उन्होंने तिरंगा हाथ में लेकर प्रदर्शन किए हैं। ऐसी ही एक घटना
अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को स्थित भारतीय कौंसुलेट में हुई। खालिस्तान समर्थकों के
एक ग्रुप ने रविवार 20 मार्च को सैन फ्रांसिस्को में भारतीय दूतावास पर हमला कर
वहां तोड़फोड़ की थी। खालिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए, प्रदर्शनकारियों
ने पुलिस की ओर से लगाए गए बैरिकेड तोड़ दिए और दूतावास के अंदर दो तथाकथित
खालिस्तानी झंडे लगा दिए थे। हालांकि, दूतावास के दो
कर्मियों ने जल्द ही उन झंडों को हटा दिया था। इसके बाद, प्रदर्शनकारियों
का एक ग्रुप दूतावास में घुस गया और दरवाजे-खिड़कियां तोड़ दीं।
सिखों का विरोध
अमेरिका में रहने वाले सिख समुदाय के नेताओं ने
भी तिरंगे के अपमान को लेकर विरोध जताया है। सिख नेताओं ने इन घटनाओं की निंदा की
और कहा कि खालिस्तानी आंदोलन को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। उत्तरी अमेरिका
में दस लाख से अधिक सिख रहते हैं और उनमें से केवल 50 भारतीय दूतावास के बाहर
विरोध करने के लिए दिखाई देते हैं। दिल्ली में सिखों ने लंदन की घटना के विरोध में
तिरंगा झंडा हाथ में ब्रिटिश हाई कमीशन के बाहर लेकर प्रदर्शन किया। नई दिल्ली में
प्रदर्शन के लिए पहुंचे सिखों ने कहा-पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई हमारे
अमन-चैन को तबाह करने की साजिश रच रही है। हमने हमेशा अपने तिरंगे का सम्मान किया
है और लंदन में हुई हरकत को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
पृष्ठभूमि
आंदोलन की पृष्ठभूमि काफी पीछे ले जाती है। 14
दिसंबर 1920 को स्थापित, शिरोमणि अकाली दल ने स्वतंत्रता के बाद
पंजाबी सूबा आंदोलन चलाया। इस माँग के पीछे दो आत्यंतिक प्रवृत्तियाँ थीं। संप्रभु
राज्य या भारत के भीतर स्वायत्त राज्य की स्थापना। धर्म-आधारित विभाजन में बहुत खून
बहा था, जिसके कारण भारत सरकार ने शुरू में इस मांग को खारिज कर दिया। माँग और आंदोलन
जारी रहे और अंततः इंदिरा गांधी के
नेतृत्व में केंद्र सरकार ने मांग को स्वीकार कर लिया। पंजाब पुनर्गठन अधिनियम
संसद में पास हो गया, जो 1 नवंबर 1966 से लागू हो गया। अकाली दल ने 1973 में आनंदपुर
साहिब प्रस्ताव पास करके पंजाब में सत्ता के आमूलचूल हस्तांतरण और स्वायत्तता की
माँग की गई थी। 1982 में, अकाली दल और जरनैल सिंह भिंडरावाले ने
संकल्प को लागू करने के लिए धर्मयुद्ध मोर्चा शुरू करने के लिए हाथ मिलाया। इसके
बाद की कहानी से आप परिचित हैं।
बाहरी हाथ
आंदोलन के पीछे अमेरिका और पाकिस्तान की भूमिका
होने का इशारा 2007 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘काओबॉयज़ ऑफ
रॉ’ में बी रामन ने किया था, जो कैबिनेट
सचिवालय में एडीशनल सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुए थे। इसकी पृष्ठभूमि 1971 तक
जाती है, जब बांग्लादेश का जन्म हुआ नहीं था। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और
पाकिस्तानी सैनिक शासक याह्या खान ने भारत के पंजाब को तोड़कर नया देश बनाने की
योजना तैयार की। पंजाब के सिख नेता जगजीत सिंह चौहान को ब्रिटेन भेजा गया, जिसने
पुराने सिख होम रूल आंदोलन को खालिस्तान नाम से पुनर्जीवित किया। याह्या खान ने
चौहान को पाकिस्तान बुलाया। वे भुट्टो से मिले। अक्टूबर
1971 में वे अमेरिका गए। उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स में स्वतंत्र सिख राज्य की
घोषणा करते हुए एक विज्ञापन दिया। अमेरिकी
पत्रकारों और संरा अधिकारियों से भी उनकी मुलाकात हुई। इन बैठकों की व्यवस्था
अमेरिकी रक्षा परिषद के तत्कालीन प्रमुख हेनरी किसिंजर ने की थी। आज की
परिस्थितियाँ हालांकि बदली हुई हैं, पर इतना समझ लीजिए कि आंदोलन की मददगार ताकतें
जीवित हैं।
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