हाल में जब मध्य प्रदेश सरकार ने मेडिकल पुस्तकों को हिंदी में प्रकाशित किया, तब मैंने कुछ लेख लिखे थे और उन्हें आगे बढ़ाने का विचार किया। इसके लिए मैंने फलस्तीन, इसरायल, अरबी और अफ्रीका की भाषाओं में मेडिकल पढ़ाई से जुड़े प्रश्नों पर नोट्स तैयार किए। पर जब उस मसले को राजनीति ने घेर लिया, तब मैंने अपना हाथ रोक लिया। पढ़ने वाले यह समझने की कोशिश करने लगते हैं कि मैं संघी हूँ, कांग्रेसी हूँ, लोहियाइट हूँ, लाल झंडा हूँ या आंबेडकरवादी? काफी लोगों ने इन शब्दों के परिधान पहन रखे हैं। और वे दुनिया को इसी नज़र से देखना चाहते हैं। जब किताब लिखूँगा, तब इस विषय पर भी लिखूँगा। तकनीकी शब्दावली और आम-फहम भाषा से जुड़े मसले भी मेरी दृष्टि में हैं। एक बड़ा रोचक मसला हिंदी-उर्दू का है। दोनों की लिपियों का अंतर उन्हें अलग करता है, पर क्या आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की मौखिक भाषा में दोनों के फर्क को मिटाया जा सकता है? बहरहाल।
मैं केवल हिंदी-नज़रिए
से नहीं देखता। मेरी नज़र भाषा और खासतौर से भारतीय भाषाओं पर है। लेखक और
पत्रकार के रूप में भारतीय भाषाओं के विस्तार का सबसे
सकारात्मक पक्ष यह है कि हम कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक उसकी भाषा में बात
पहुँचा सकते हैं। ऐसे में दो-तीन बातों को ध्यान में रखना होता है। एक, हमारा
दर्शक या श्रोता कौन है? उसका भाषा-ज्ञान किस स्तर का है? केवल उसके ज्ञान की बात ही नहीं है बल्कि देखना यह भी होगा कि वह जिस
क्षेत्र का निवासी है, वहाँ के मुहावरे और लोकोक्तियों का हमें ज्ञान है या नहीं।
पाठक से सीखें
यह दोतरफा प्रक्रिया है। हमें भी अपने लक्ष्य से
सीखना है। खासतौर से तब, जब संवाद लोकभाषा में हो। इसके विपरीत अपेक्षाकृत नगरीय
क्षेत्र में मानक-भाषा का इस्तेमाल करने का प्रयास करना चाहिए। लोकभाषा से लालित्य
आता हो, तब तो ठीक है, अन्यथा किसी दूसरे क्षेत्र के लोक-प्रयोग कई बार दर्शक और
श्रोता को समझ में नहीं आते।
पाकिस्तान में इन दिनों आटे का संकट है। दोनों देशों में दाल-आटे का भाव आम आदमी की दशा पर रोशनी डालता है। भारतीय भूखंड में आटे की व्याप्ति पर डॉ पंत की किताब में अच्छी जानकारी पढ़ने को मिली। आटा संस्कृत आर्द (जोर से दबाना) और प्राकृत अट्ट से व्युत्पन्न हुआ है। अर्थ है किसी अनाज का चूरा, पिसान, बुकनी, पाउडर। कई तरह का चूर्ण बेचने वाला कहलाया परचूनी या परचूनिया। आटा के लिए फारसी शब्द है आद, जो संस्कृत के आर्द का प्रतिरूप लगता है। गुजराती में आटो, कश्मीरी में ओटू, मराठी में आट के अलावा पीठ शब्द भी चलता है, जो पिष्ट या पिसा हुआ से बना है। हिंदी में पिट्ठी या पीठी भी पीसी हुई दाल है। नेपाली में पीठो, कन्नड़ में अट्टसु, पंजाबी, बांग्ला और ओडिया में भी आटा, पर तमिष और मलयाळम में इन सबसे अलग है मावु।
आदान-प्रदान
विश्वनाथ दिनकर नरवणे
ने अपने भारतीय व्यवहार कोश में देश की सोलह भाषाओं अलग-अलग व्यवहृत रूपों का
विवेचन किया है। उन्होंने इन भाषाओं की उच्चारण पद्धतियों की तुलना करने के साथ ही
यह भी बताया है कि अतीत में किस प्रकार एक
भाषा के शब्द या मुहावरे दूसरी भाषा में प्रवेश करते गए और मौलिक रूप ग्रहण कर
लिया। दक्षिण और उत्तर की भाषाओं के वाक्य विन्यास के अंतर को समझ लें, तो अर्थ
समझने में ज्यादा देर नहीं लगता। इसका कारण है संस्कृत। इन सभी भाषाओं की शब्दावली
के मूल में है संस्कृत।
इसी क्रम में याद आती
है भोलानाथ तिवारी की छोटी सी किताब ‘शब्दों का जीवन।’ 1954 में पहली बार प्रकाशित उस किताब में उन्होंने शब्द
जनमते हैं, शब्द बढ़ते हैं, शब्द उलटते हैं, शब्द बोलते हैं, शब्द मनोरंजक होते
हैं, शब्द चलते हैं, शब्द मोटे होते हैं, शब्द संगति से प्रभावित होते हैं, शब्द
उन्नति करते हैं, शब्द अवनति करते हैं, शब्द दुबले होते हैं, शब्द घिसते हैं से
लेकर शब्द मरते हैं तक छोटे-छोटे अध्याय लिखे हैं, जो बड़ी रोचक कहानी कहते हैं।
लिंगभेद
देश बहुत बड़ा है। संस्कृति की मूल शब्दावली के
बावजूद शब्दों के प्रयोग में अंतर है। हिंदी क्षेत्र में ही एकरूपता नहीं है।
खासतौर से शब्दों के लिंग को लेकर संशय हैं। बिहार में हाथी आती है, तो पंजाब में
तारें आती हैं, वाराणसी और प्रयाग में लोग शिकारें मारकर लाते हैं, बिहार में दही
खट्टी होती है, मारवाड़ में बुखार चढ़ती है। ऐसे प्रयोगों पर 1919 में जगन्नाथ
प्रसाद चतुर्वेदी ने पुस्तक प्रकाशित की थी, हिंदी लिंग विचार। यह स्थिति आज भी
बनी हुई है।
ऐसे शब्दों की सूची बहुत लंबी बनती है, जो
शब्दकोश में भले ही कुछ बताए गए हों, पर इस्तेमाल में उन्हें लेकर भ्रम बना रहता
है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित शब्द पुर्लिंग हैं, पर बहुत से लोग उन्हें
स्त्रीलिंग मानते हैं: तकिया, ताबीज, मजाक, पतंग, चौपाल, मटर, प्याज,
अदरक, चम्मच, गेंद, दही, कीचड़ वगैरह। संविधान पीठ को स्त्रीलिंग मान लिया गया है,
जबकि वह पुर्लिंग शब्द है। उसे शरीर की पीठ नहीं माना जा सकता। वह पीढ़ा है। दूसरी
तरफ मानक हिंदी में निम्नलिखित शब्द स्त्रीलिंग हैं, पर काफी लोग उन्हें पुर्लिंग
मान लेते हैं: लालटेन, कलम, लगाम, पतझड़, बारूद, छाछ, चौखट
ईंट, मखमल वगैरह।
क्षेत्रीय बनाम मानक भाषा
भारतीय भाषाओं के मीडिया का विस्तार हो रहा है।
शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े
थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। राजस्थान में
जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर
वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है।
आज नहीं तो कल हिंदी का निरंतर बढ़ता प्रयोग
हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने
इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिंदी के सभी मीडिया
वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिंदी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी
वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके
बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
मीडिया का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी
से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से
लिखते और बोलते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह,
सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस
वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें।
तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस
प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम,
शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे
जाते हैं।
रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं।
आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु,
भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण
जैसे ‘क्ष’ आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते
हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर
क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते।
ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। सीताफल, कद्दू,
कासीफल, घीया, लौकी,
तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम
अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे
लेकर भ्रम रहता है। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ
होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर
सकता है।
गूढ़ और सरल भाषा
आम बोलचाल की भाषा और गूढ़ विषयों की भाषा को एक नहीं किया जा सकता।
बोलचाल की भाषा भी व्यक्ति और व्यक्ति की अलग-अलग होती है। सड़क के भैये और एक
अध्यापक की भाषा एक जैसी नहीं होती। चैनल और अखबार की भाषा भी एक जैसी नहीं हो
सकती। दो चैनलों की भाषा का अंतर भी उनके बाज़ार का अंतर बता सकता है। आज नहीं तो
दस साल बाद यह फर्क आएगा।
अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी,
हरियाणवी और कौरवी में तमाम ऐसे शब्द हैं जो मानक हिंदी के विकास की
धारा में पीछे रह गए हैं। नए शब्द सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं आते। भारतीय भाषाओं
से और बोलियों से भी आएंगे। यह आदान-प्रदान भी चलेगा। हमारा सांस्कृतिक और
व्यापारिक विस्तार हो रहा है। हम कमज़ोर बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोग नहीं है। पश्चिम
और पूर्व के समन्वय के लिहाज से भी हम बेहतर स्थिति में हैं। भाषा-व्याकरण और
शब्दकोश से जुड़ा हमारा अतीत बहुत समृद्ध है, पर
वह अतीत है वर्तमान नहीं है।
वाचिक मीडिया
अभी तक की ज्यादातर बातें प्रिंट या लिखित
मीडिया से जुड़ी हैं। अब वाचिक मीडिया का उदय हो रहा है। टीवी और डिजिटल
प्लेटफॉर्म में ग्रैफिक, स्क्रॉल और कैप्शन में लिखित शब्दों का इस्तेमाल होता है,
पर उससे ज्यादा बोलने वाले शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है। इसमें उच्चारण भेद और
उच्चारण-दोष दोनों तरह की प्रवृत्तियाँ देखने में आ रही हैं। जल्दी बोलने के
प्रयास में सरिता को सर्ता और यमुना को यम्ना, कल्पना को कल्प्ना, सपना को सप्ना
बोलते हुए आप अक्सर सुनेंगे। कृपा, दृष्टि, सृष्टि, पृष्ठ, द्वितीय, तृतीय जैसे
शब्दों में अक्सर आप उच्चारण दोष पाएंगे।
"मीडिया का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया" और भाषा प्रयोग संबंधी अनेक विसंगतियों का कारण यही है। मीडिया चाहे मुद्रित हो या इलेक्ट्रॉनिक/वाचिक, समस्या सबके साथ है क्योंकि भाषा प्रयोग का सही माहौल हम बना ही नहीं पाए हैं और उस दिशा में हम गंभीर भी नहीं हैं।आपका सुझाव सही है कि सबको मिल बैठकर नीति निर्धारित करनी चाहिए, लेकिन क्या यह हो पाएगा।
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