हाल में ब्रिटेन-यात्रा के दौरान राहुल गांधी के बयानों की ओर देश का ध्यान गया है। वे क्या कहना चाहते हैं और क्यों? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी बातों से कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने में मदद मिलेगी? इन बातों का ब्रिटिश समाज से क्या लेना-देना है और भारत का मतदाता क्या उनसे सहमत है? उम्मीद थी कि ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के बाद वे परिपक्व हो चुके होंगे और अब नए सिरे से अपनी बात रखेंगे। पर उनके पास वही पुराना ‘मोदी-मंत्र’ है और अपनी बात कहने का विदेशी-मंच। क्या उन्हें भारत में कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई, जहाँ से वे अपनी बात कह सकें? वे किसे संबोधित कर रहे हैं, भारतीयों को या विदेशियों को? दस दिन के अपने प्रवास में राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक बिजनेस स्कूल और ब्रिटिश संसद में एक कार्यक्रम को संबोधित किया, भारतवंशियों से भेंट की, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय पत्रकारों के एक संगठन की संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और चैथम हाउस में हुई एक बातचीत में भाग लिया। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र, फ्री प्रेस और पेगासस आदि पर अपने विचार रखे। उन्होंने भारत की केंद्र-सरकार पर लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जो संस्थागत ढांचा चाहिए जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका… इन सभी पर अंकुश लग रहा है। मेरे खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो किसी भी परिस्थिति में आपराधिक मामले नहीं हैं। जब आप मीडिया और लोकतांत्रिक ढांचे पर इस प्रकार का हमला करते हैं तो विरोधियों के लिए लोगों के साथ संवाद करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
प्रश्न और प्रति-प्रश्न
राहुल गांधी के इन वक्तव्यों से कुछ सवाल खड़े
हुए हैं। उन्होंने विदेश जाकर भारतीय-व्यवस्था की जो आलोचना की है, उसे क्या सामान्य
राजनीतिक-आलोचना माना जाए? देश के प्रमुख विरोधी-दल के नेता से उम्मीद यही
की जाती है कि वह व्यवस्था-दोषों पर रोशनी डाले। आलोचना व्यवस्था की है, तो वे अमेरिका और ब्रिटेन से किस प्रकार का हस्तक्षेप चाहते हैं? अपने देश में पराजित-पार्टी अपनी विफलता का ठीकरा सत्ताधारी दल पर
क्यों फोड़ना चाहती है? क्या यह सच नहीं कि 2014 के चुनाव के पहले
से ही ब्रिटिश अखबार गार्डियन में उन्हीं लोगों के पत्र और लेख छपने लगे थे, जो आज
राहुल गांधी के कार्यक्रमों के पीछे हैं? ऐसी ही आलोचना क्या
ब्रिटेन के राजनेता भारत आकर अपनी व्यवस्था की कर सकते हैं? बेशक उनकी व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर हैं, पर आलोचना तो उनकी भी होती है। वहाँ भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते खराब रहते हैं, पर राजनीतिक-संवाद का तरीका हमारे तरीके से फर्क है। ब्रिटिश
या अमेरिकी राजनेता भारत में आकर अपनी व्यवस्था की आलोचना कर भी लें, पर क्या चीन, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, ईरान के राजनेता
अपने शासन की आलोचना करके वापस अपने देश में सुरक्षित जा सकते हैं, जिनके साथ अब
भारत की तुलना की जा रही है? क्या ये बातें औपनिवेशिक ब्रिटिश-धारणा को सही साबित कर रही हैं कि भारत अपने लोकतंत्र का निर्वाह नहीं कर पाएगा? भारत
में फासिज्म है, तो राहुल गांधी इतनी आसानी से अपनी बात कैसे कह पा रहे हैं? यदि उनकी घेराबंदी इतनी जबर्दस्त है, तो वे अपनी ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ को सफलता के
साथ किस प्रकार पूरा कर पाए? क्या भारतीय मीडिया में राहुल गांधी और
कांग्रेस के समर्थन और नरेंद्र मोदी की आलोचना में लेखों का प्रकाशन संभव नहीं है?
परिपक्व राहुल
इन कार्यक्रमों को आयोजित करने वाले मानते हैं कि इन कार्यक्रमों से केवल भारत की राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर बहस खड़ी होगी, बल्कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक और कारोबारी रिश्तों को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें वहाँ रहने वाले भारतवंशी सेतु का काम करेंगे। उनके समर्थक मानते हैं कि राहुल गांधी ने अपनी परिपक्वता के झंडे गाड़ दिए हैं और उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी सारी बातें गोल-मोल, अटपटी और अबूझ पहेली जैसी रही है। उनसे जो नीतिगत सवाल पूछे गए, उनके जवाबों को लेकर भी काफी चर्चा है। खासतौर से जब उनसे पूछा गया कि यदि उनकी सरकार आई, तो उनकी विदेश-नीति में नया क्या होगा, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह काफी लोगों को समझ में नहीं आया। ब्रिटेन जाकर वे चीन की तारीफ क्यों कर रहे हैं? ‘भारत को राज्यों का संघ’ बताकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? वे पिछले एक साल में कम से कम तीन बार कह चुके हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, केवल राज्यों का संघ है। संविधान के पहले अनुच्छेद में यह लिखा गया है तो इससे क्या भारत का राष्ट्र-राज्य होना खारिज हो गया? ऐसा है, तो प्रस्तावना में 'राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता' का क्या मतलब है? हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य क्या था? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्या है? क्या राज्यों ने भारत का गठन किया है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन हुआ था?
देश के इन राज्यों और नागरिकों के बीच हजारों साल से संवाद चलता रहा है। हमारा समाज गतिशील है। तीर्थयात्राओं और साधुओं की यात्राओं के मार्फत यह संवाद चलता रहा है। विविधता के बीच यही हमारी एकता का प्रमाण है। राहुल के विरोधी मानते हैं कि उनकी इस यात्रा के पीछे, पश्चिमी-देशों के भीतर सक्रिय भारत-विरोधी लॉबी है, जिसका जिक्र हाल में अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस के बयानों के कारण हुआ था। क्या इसे भारतीय राजनीति में पश्चिमी हस्तक्षेप का हिस्सा माना जाए? क्या इन कार्यक्रमों से राहुल गांधी की साख बढ़ी है?
गोरों से संवाद
राहुल गांधी का यह पहला विदेशी-संवाद नहीं है। 2018
में उन्होंने जर्मनी और ब्रिटेन में कुछ ऐसी बातें कहीं, जिन्हें बीजेपी ने
देश-विरोधी बताया था। किसी ने राहुल के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया था। उस वक्त राहुल
गांधी ने भाजपा और आरएसएस की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से
की थी। इसके जवाब में बीजेपी की ओर से कहा गया कि उन्हें भारत की अभिकल्पना के साथ
धोखा बंद करना चाहिए। राहुल ने जर्मनी के हैम्बर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में
कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी और लोगों के अंदर पनपे
ग़ुस्से के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं होने लगी हैं। उनका यह भी कहना था कि विश्व
में कहीं भी लोगों को विकास की प्रक्रिया से दूर रखा जाता है तो आईएस जैसे गुटों
को बढ़ावा मिलता है। वे विदेशी-धरती पर ऐसी बातें कहकर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या यह गोरों से भारत को फिर से उपनिवेश बनाने का आग्रह है? या यह साबित करने का प्रयास है कि जब हमारी सरकार होगी, तभी आपके
दृष्टिकोण से भारत सही रास्ते पर होगा? उन्होंने संबोधित किसे किया, दुनिया
को, अंग्रेजों को या भारतीयों को? या उन्होंने नरेंद्र मोदी की उस आत्म-श्लाघा
का जवाब दिया है, जो वे विदेश जाकर व्यक्त करते रहे हैं? क्या
मोदी-समर्थक यह मानने की गलती कर रहे हैं कि मोदी पर हमला, भारत पर हमले जैसा है? इन सारे सवालों के जवाब अर्धसत्य हैं। कोई पूरी तरह ‘हां’ और ‘नहीं’
नहीं है। सरकार का समर्थन करने वाले लोग राहुल की आलोचना करेंगे। कांग्रेस-समर्थक कहेंगे
कि उनसे यह पूछा जाएगा कि भारत में चीजें कैसी हैं, तो वे
यह तो नहीं कहेंगे कि शानदार हैं।
राजनीतिक लाभ
अगला सवाल ज्यादा व्यावहारिक है। क्या राहुल
गांधी की बातों से उन्हें राजनीतिक लाभ मिलता है या नुकसान होता है? वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के
बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में
भारत की नकारात्मक छवि बनती है? खासतौर से चीन और पाकिस्तान के बरक्स
भारतीय-नीति की आलोचना को क्या भारतीय जनमानस स्वीकार करेगा? ऐसा नहीं कि हमारे पास रचनात्मक राजनीति के उदाहरण नहीं हैं। सन 1993
की बात याद आती है, जब मानवाधिकार आयोग में भारत विरोधी
प्रस्ताव लाया गया था. उस प्रस्ताव पर चर्चा के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल का
नेतृत्व करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी
को जिनीवा भेजा था। उन्हें क्या जरूरत थी विरोधी दल के नेता को भारत का
प्रतिनिधित्व सौंपने की, वह भी कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले पर? उससे क्या कांग्रेस को राजनीतिक-नुकसान हुआ? 2019 के चुनाव के ठीक
पहले फरवरी में हुए पुलवामा कांड के बाद राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस
पार्टी ने पहले मौन रहने का विचार किया और फिर वह मौन तोड़ दिया। इतना ही नहीं
पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में कहा गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए यानी
देशद्रोह के आरोप को खत्म कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल
पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) की समीक्षा की जाएगी। कश्मीर और पूर्वोत्तर में आतंकवाद पर
काबू पाने के लिहाज से इस कानून की भूमिका है। कांग्रेस एक तरफ लद्दाख में
चीनी-घुसपैठ का मामला उठाती है, वहीं राहुल गांधी चीनी-व्यवस्था की तारीफ करते हैं।
क्या इसका कोई राजनीतिक-अर्थ है?
कांग्रेसी
पराभव
राहुल गांधी यदि आक्रामक रणनीति पर चलना चाहते
हैं, तो यह उनका अधिकार है। देखना यह भी होगा के 2014 के बाद से, जब से वे कांग्रेस
के मुख्य प्रचारक बने हैं, अबतक इसके परिणाम क्या मिले हैं। मान लेते हैं कि 2014
का चुनाव वे मोदी के वैकल्पिक-करिश्मे से हार गए। जनता ने मोदी को एकबार परखने का
मन बना लिया था। पर 2019 में क्या हुआ? वे अपने ही क्षेत्र अमेठी में हार गए।
एक के बाद एक चुनाव में हार होती रही। पार्टी के कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी।
इनमें से कुछ तो राहुल के करीबी-दोस्त थे। कुछ अब भी पैर लटकाए बैठे हैं। ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के बावजूद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के परिणाम सामने हैं। हालत यह है कि उनकी
पार्टी उन्हें मोदी के सामने प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने से सकुचा रही है।
बीजेपी के प्रचार की वजह से एक दौर में तो वे हास्यास्पद नेता बन गए थे। अब पार्टी
को लगता है कि ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के कारण उनकी
छवि सुधरी है, पर मोदी के सामने खड़ा करने की हिम्मत फिर भी नहीं है। तब वे क्यों
मोदी को निशाना बना रहे हैं? क्यों नहीं अपनी वैकल्पिक राजनीति का
विकास करते हैं? इस सवाल का जवाब सोनिया गांधी को देना चाहिए,
जिन्होंने 2007 के गुजरात चुनाव में मोदी को ‘मौत का सौदागर’ बताकर अपनी पूरी राजनीति मोदी-केंद्रित कर दी। मोदी और
अमित शाह को कानूनी-पंजे में दबोचने की कोशिशें की गईं। मोदी को राष्ट्रीय नेता
बनाने में कांग्रेस की इस रणनीति का सबसे बड़ा हाथ है। यह रणनीति अब भी जारी है।
राहुल गांधी ने लोकसभा के भाषण में भी यह बात कही थी। उसे भी सुनें
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