देस-परदेश
अमेरिका-चीन और भारत-2, इस आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ
नब्बे के दशक के वैश्वीकरण का सबसे बड़ा फायदा चीन को मिला. पश्चिमी देशों के पूँजी निवेश के कारण उसकी अर्थव्यवस्था का तेज विस्तार हुआ. पश्चिम को शुरुआती वर्षों में चीन का उदय अपने पक्ष में जाता नज़र आता था, पर ऐसा हुआ नहीं. सामरिक और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर चीन आज पश्चिम के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आया है. असली टकराव अब अमेरिका और चीन के बीच है.
हाल में जी-20 की बैठक में भाग लेने आए रूसी
विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि हम भारत और चीन की दोस्ती चाहते हैं. रूस,
भारत और चीन के
विदेशमंत्री इस साल त्रिपक्षीय समूह की बैठक के लिए मिलेंगे, पर भारत सरकार के
सूत्रों का कहना है कि जब तक उत्तरी सीमा की स्थिति में सुधार नहीं
होगा, भारत ऐसी किसी बैठक में भाग नहीं लेगा. आरआईसी (रूस, भारत, चीन) के
विदेशमंत्री पिछली बार नवंबर 2021 में वर्चुअल माध्यम से मिले थे. फरवरी 2022 में
यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से नहीं मिले हैं. लावरोव जो भी कहें भारत और चीन
की प्रतिस्पर्धा आकाश में लिखी दिखाई पड़ती है. रूस और चीन के हित भी टकराते हैं,
पर आज वे दिखाई पड़ नहीं रहे हैं.
अमेरिकी रुख
भारत और अमेरिका आज जितने करीबी नज़र आ रहे
हैं, उतने अतीत में नहीं थे. 1971 में बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिका की
दिलचस्पी चीन से दोस्ती गाँठने की थी, ताकि वह रूस को संतुलित करने वाली ताकत बने.
पर चीन अब भस्मासुर बन चुका है. बांग्लादेश की मुक्ति सामान्य लड़ाई नहीं थी. उस
मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन
के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसे फिर से पढ़ने की जरूरत है.
उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की
इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा. विदेशमंत्री
एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि
हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है, पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी
देशों ने हमें रूस की ओर धकेला.
1998 में भारत के एटमी परीक्षण के फौरन बाद
पाकिस्तान ने भी एटमी परीक्षण किया. दुनिया जानती थी कि पाकिस्तानी एटम बम वस्तुतः
चीनी मदद से तैयार हुआ है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने
राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, ‘हमारी सीमा पर एटमी
ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है… इस
देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ कहा जाता है कि अमेरिकी
प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया. यह अमेरिकी नीति में बदलाव का
प्रस्थान-बिंदु था.
चीन पर नकेल
अमेरिका अब उस प्रक्रिया को उलटना चाहता है, जिसके कारण चीन का आर्थिक महाविस्तार हुआ है. सवाल है कि क्या उसे सफलता मिलेगी? हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड एक कदम है. उधर अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई में पड़ गया. इस निवेश समझौते (सीएआई) पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी. इसमें व्यवस्था थी कि ईयू और चीन की कंपनियां एक दूसरे के यहां आसानी से निवेश कर पाएंगी.
ईयू देश अपने लिए बाजार खोज रहे हैं. उन्हें चीन का बाजार खुलता नजर
आता था. चीन को उम्मीद थी कि उसकी बाजार की ताकत के कारण ईयू और अमेरिका में
चीन-विरोध को लेकर सहमति नहीं बनेगी. पर अब यूरोप चीन से दूर जा रहा है.
विकल्प ऑल्टेशिया
सवाल है कि चीन का विकल्प क्या है? हाल में ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने चीन पर काबू पाने से जुड़े
विकल्पों से जुड़ी कुछ रिपोर्ट प्रकाशित की हैं. इनमें एक विकल्प है ऑल्टरनेटिव एशियन सप्लाई-चेन,
संक्षेप में ऑल्टेशिया. पश्चिमी उद्योग जगत ने चीन की खोज दुनिया के कारखाने के
रूप में की थी, जहाँ सस्ती मजदूरी और सरकारी संरक्षण की मदद से वे माल हासिल करें.
पश्चिमी पूँजी और तकनीक की मदद से खड़े हुए
चीनी कारखानों का माल आज दुनिया के बाजारों में भरा पड़ा है. इससे चीन की
आर्थिक-शक्ति बढ़ी और उसकी राजनीतिक-महत्वाकांक्षाएं भी खुलकर सामने आने लगीं.
तमाम देशों की आर्थिक गतिविधियाँ चीनी सप्लाई-चेन पर आश्रित हैं. खासतौर से
इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण.
इकोनॉमिस्ट के अनुसार फिलहाल कोई एक देश चीन का
मुकाबला नहीं कर सकता, पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 14 देशों के समूह की
सामूहिक-क्षमता चीन के बराबर है. ये देश हैं जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान,
फिलीपींस, ब्रूनेई, मलेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, लाओस, कंबोडिया, थाईलैंड,
सिंगापुर, बांग्लादेश और भारत. इस क्षमता में कुशल कामगार, उत्पादन के संसाधन,
लॉजिस्टिक्स और परिवहन सुविधाएं शामिल हैं.
बदलता वक्त
इन देशों ने सितंबर 2022 तक पिछले एक साल में
634 अरब डॉलर की सामग्री अमेरिका को भेजी. इसके मुकाबले चीन का अमेरिका को निर्यात
केवल 614 अरब डॉलर का ही था, पर इलेक्ट्रॉनिक्स के निर्यात में ये 14 देश भी कुल
मिलाकर चीन के बराबर नहीं हैं. अलबत्ता यह कारोबार अब चीन से निकलकर दूसरे देशों
में जा रहा है. ताइवान की फॉक्सकॉन, पेगाट्रॉन और विस्ट्रॉन ने, जो एपल के गैजेट्स
को असेंबल करती हैं, भारत में काफी निवेश किया है.
पिछले साल दुनिया में एपल के 20 आईफोन में से
एक भारतीय फोन था, जो 2025 तक चार में एक हो जाएगा. ताइवान के दो विश्वविद्यालयों
ने भारतीय कामगारों को हाईटेक ट्रेनिंग देने के लिए टाटा के साथ समझौता किया है.
गूगल ने हाल में अपने पिक्सेल स्मार्टफोन का उत्पादन चीन से हटाकर वियतनाम में
लगाया है.
दूसरी तरफ चीन में बढ़ती अमीरी के साथ अब
मजदूरी की दरें चढ़ रही हैं. चीन में औसतन एक घंटे की मजदूरी पिछले साल 8.31 डॉलर
थी, जबकि भारत, थाईलैंड और वियतनाम में 3 डॉलर से भी कम थी. भारत, बांग्लादेश और
ताइवान को छोड़ दें, तो इनमें से 11 देशों की अर्थव्यवस्थाएं रीज़नल
कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) के मार्फत आपस में जुड़ी हुई हैं.
इस व्यवस्था में चीन भी शामिल है. ये 14 देश
किसी एक भौगोलिक-दायरे में नहीं हैं और इनमें जापान, ताइवान और सिंगापुर जैसे
देशों का जीवन-स्तर चीनी जीवन-स्तर से बेहतर है. बावजूद इन बातों के पिछले तीन
दशकों में चीन में औद्योगिक ढाँचा इतना बड़ा बन चुका है कि उसके समांतर किसी नई
अर्थव्यवस्था का निर्माण रातों-रात नहीं हो सकता.
मुकाबला अफ्रीका में
चीनी को अपना औद्योगिक आधार बनाए रखने के लिए
सबसे बड़ी जरूरत खनिजों की है. इसके लिए चीन ने अफ्रीका को अपना ठिकाना बनाया है.
खनिजों के अलावा पूँजी निवेश और सामरिक दृष्टि से भी अफ्रीका महत्वपूर्ण क्षेत्र
है. पिछले 33 साल से चीन के विदेशमंत्री अफ्रीका को नए साल की पहली विदेश यात्रा
का पड़ाव चुनते रहे हैं.
चीन की नजरें सूडान/दक्षिण सूडान, अंगोला और नाइजीरिया जैसे प्रचुर तेल-भंडारों वाले देशों पर रही हैं.
अफ्रीका में कोबाल्ट खनन पर चीन का एकाधिकार है. दुनिया में दुर्लभ खनिजों का सबसे
बड़ा आपूर्तिकर्ता चीन है. दुनिया के तमाम देश शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों
का वादा कर रहे हैं, जिन्हें हासिल करने के लिए दुर्लभ
खनिजों की मांग में वृद्धि हो रही है. इनमें 50 खनिज ऐसे हैं, जिनके बिना स्मार्टफ़ोन, इलेक्ट्रिक वाहनों,
हथियारों और उन्नत तकनीक वाले उपकरण बनाना असंभव है.
पिछले तीन दशक में चीन ने पूरे अफ्रीका
महाद्वीप में खनन के बड़े-बड़े ठेके हासिल किए हैं. अफ्रीका की सबसे बड़ी आर्थिक
गतिविधि है खनन. दुनियाभर की करीब 30 फीसदी खदानें अफ्रीका में हैं. खनन के ठेकों
के आबंटन के लिए वहाँ कई सम्मेलन होते हैं, जिनमें सबसे बड़ा है माइनिंग इंडाबा.
इसमें दुनियाभर के खनन उद्यमी शामिल होते हैं.
अमेरिकी दिलचस्पी
इसबार का माइनिंग इंडाबा दक्षिण अफ्रीका के
केपटाउन में फरवरी के महीने में आयोजित हुआ, जिसकी खासियत थी बड़ी संख्या में
अमेरिकी अधिकारियों की उपस्थिति. अमेरिका से जितना बड़ा प्रतिनिधि मंडल इस साल आया, उतना कभी नहीं आया था. इसमें ह्वाइट हाउस और विदेश मंत्रालय के
अधिकारी भी शामिल थे.
अमेरिका की दृष्टि में अफ्रीका दो तरह से
महत्वपूर्ण है. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार 2040 तक स्वच्छ-ऊर्जा
तकनीकों के विकास के लिए 2020 में उपलब्ध लीथियम के 40 गुना, 25 गुना ग्रेफाइट और
करीब 20 गुना निकेल और कोबाल्ट की जरूरत होगी. विंड टर्बाइन मैग्नेट्स से लेकर
लड़ाकू विमानों तक में इस्तेमाल होने वाले रेयर अर्थ पदार्थ की सात गुना ज्यादा
जरूरत होगी.
दूसरी बड़ी जरूरत है खनन पर चीनी कब्जे को
तोड़ने की. खनिजों के सप्लाई चेन पर चीन का वर्चस्व स्थापित हो गया है. चीन दुनिया
के 68 फीसदी निकेल, 40 फीसदी ताँबे, 59 प्रतिशत लीथियम, 73 फीसदी कोबाल्ट का शोधन
करता है. अमेरिकी थिंकटैंक ब्रुकिंग्स के अनुसार 15 साल तक चीन खुलकर इस संपदा पर
कब्जा करता रहा और दुनिया सोती रही.
चीन ने अफ्रीका की तमाम खदानें खरीद रखी हैं.
अब अमेरिका अपने सहयोगी देशों के साथ मिलकर इस वर्चस्व को तोड़ने की कोशिश कर रहा
है. इसके लिए अफ्रीका में अब ज्यादा आक्रामक डिप्लोमेसी शुरू की जा रही है.
अफ्रीका में माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर और सामरिक-गतिविधियों के लिहाज से भारतीय
पहल भी एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसपर अलग से विवेचन की जरूरत है. भारत को वैश्विक-भूमिका
निभानी है, तो यह काम जरूरी है. (पूर्ण)
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