राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नवा रायपुर-अधिवेशन को जोड़कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी नया कुछ गढ़ना नहीं चाहती है। वह ‘राहुल गांधी सिद्धांत’ पर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो 2019 के घोषणापत्र के ‘न्याय’ कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वैसे नहीं आए, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे साहब ले ही लेंगे।
कार्यक्रमों पर नज़र डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि
पार्टी ने बीजेपी के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाए हैं। नयापन
कोई नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया
गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी
फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के
ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिए गए हैं या राहुल की शरण में चले गए हैं। जी-23
जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।
दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियाँ भी कायम
हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता
से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों
से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी
चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली
जबर्दस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव-गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ
हवा-हवाई है? पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल
गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर
बड़े नेताओं तक ने ‘भारत-जोड़ो’ का जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।
यात्रा की राजनीति
हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप
में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी
यह भी मानती है कि इस यात्रा ने पार्टी में ‘प्राण फूँक दिए हैं’ और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाए जाएंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों
में उनकी ‘तपस्या’ के कारण पैदा
हुआ उत्साह भंग न होने पाए। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए। जयराम रमेश ने फौरन ही
पासीघाट (अरुणाचल) से पोरबंदर (गुजरात) की पूर्व से पश्चिम यात्रा की घोषणा भी कर
दी है, जो जून या नवंबर में आयोजित की जाएगी। यह यात्रा उतने बड़े स्तर पर नहीं
होगी और पदयात्रा के साथ दूसरे माध्यमों से भी हो सकती है।
बहरहाल ‘यात्रा की राजनीति’ ही अब कांग्रेस का रणनीति है। उनकी समझ से बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब। बीजेपी पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी-घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी-आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय-चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे कार्यक्रमों की देखादेखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘देश के उत्पादों’ के बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।
राहुल का चेहरा
राहुल गांधी अपनी वामपंथी छवि बनाना चाहते हैं।
विरोधी दलों की एकता से जुड़े प्रस्ताव में ‘सेक्युलर और सोशलिस्ट पार्टियों की
एकता’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। खड़गे जी ने
दावा किया है कि कांग्रेस 2024 के लिए एक ‘विज़न
दस्तावेज’ तैयार करेगी। चुनाव
राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी
घोषित करने या नहीं करने का अब कोई मतलब नहीं है। अध्यक्ष कोई भी हो, कमान परिवार के हाथ में होगी। एक तस्वीर सामने आई है, जिसमें मंच पर
खड़गे जी और कुछ लोग खड़े हैं। धूप से बचाने के लिए छतरी केवल सोनिया जी के ऊपर
है। ‘छत्र’ के इस प्रतीक को आप इस रूप में देख
सकते हैं।
अधिवेशन में जो बातें उभर कर आई है, उनमें से
कुछ इस प्रकार हैं: पार्टी लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत से
लड़ेगी, भाजपा को परास्त करने की हर संभव कोशिश करेगी। सामाजिक न्याय को महत्व देगी।
युवाओं को आगे लाएगी। समान विचारों वाले विरोधी दलों को एकजुट करेगी। बार-बार
दोहराई जाने वाली इन बातों के मुकाबले तत्व की बातें दो हैं। नरेन्द्र मोदी पर सीधे
हमले जारी रहेंगे। गौतम अडानी का नया नाम इसमें है। इसके अलावा सीबीआई तथा ईडी के
दुरुपयोग के आरोपों को धार दी जाएगी।
लोकतांत्रिक-पिष्टपेषण
पिछले साल से पार्टी की दो प्रवृत्तियाँ साफ
दिखाई पड़ रही हैं। जी-23 का दबाव कहें या वक्त की जरूरत पार्टी ने
लोकतांत्रिक-कर्मकांड का सहारा लेना शुरू कर दिया है। उदयपुर के चिंतन-शिविर से
कुछ सिद्धांत निकल कर आए और पार्टी के अध्यक्ष का चुनाव हुआ। उस चुनाव में स्पष्ट
था कि खड़गे जी परिवार के प्रत्याशी हैं। कार्यसमिति के गठन की प्रक्रिया को लेकर
चली चर्चा को भी रायपुर में विराम लग गया और यह स्पष्ट है कि चुनाव नहीं होगा,
मनोनयन होगा। सदस्यों की संख्या भी बढ़ा दी गई है। देश में लोकतंत्र की माँग करने
वाली पार्टी आंतरिक लोकतंत्र से भाग रही है।
महाधिवेशन में कांग्रेस ने अपने संविधान के जिन
16 नियमों और 32
प्रावधानों में संशोधन के प्रस्ताव तकरीबन मंजूर किए हैं, वे
सभी राहुल गांधी के विचारों से निकले हैं। सबसे बड़ा फैसला यह लिया गया कि कार्यसमिति
के सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाएगी और इसमें एससी, एसटी,
ओबीसी, महिला और युवाओं वर्ग की हिस्सेदारी
सुनिश्चित की जाएगी। कार्यसमिति में सदस्यों की संख्या 23 से 35 कर दी गई है। इनमें
से 50 प्रतिशत सदस्य अब आरक्षण कोटे से बनाए जाएंगे। यह फैसला संचालन समिति ने
किया, जो खुद ही मनोनीत है। रायपुर में पहले दिन जब संचालन समिति इस विषय पर चर्चा
कर रही थी, तब उसमें परिवार के सदस्यों ने हिस्सा नहीं लिया। शायद यह साबित करने
के लिए कि परिवार ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर हो रही चर्चा में दखल देना नहीं चाहता।
उदयपुर में 50 फीसदी पदों पर 50 से कम उम्र के
लोगों को रखने का सिद्धांत बना था। उसका क्या हुआ पता नहीं। बहरहाल कार्यसमिति में
दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को कितना स्थान मिलेगा, और किस तरह मिलेगा, यह
कुछ समय बाद ही पता लगेगा। उसका व्यावहारिक रूप कुछ समय बाद ही स्पष्ट होगा। वस्तुतः
यह आंतरिक लोकतंत्र से ज्यादा चुनावी रणनीति का हिस्सा है। पार्टी आरक्षित वर्गों
को आकर्षित करना चाहती है। पार्टी ने जातिगत जनगणना कराने की मांग भी की है। लोकतंत्र
की दृष्टि से देखें, तो यह देखना होगा कि विभिन्न प्रदेशों की कांग्रेस समितियों
के सदस्य किस प्रकार चुनकर आए थे।
आंतरिक कलह
संगठनात्मक-प्रश्नों से ज्यादा महत्वपूर्ण है विरोधी
एकता का सवाल। पार्टी ने इस प्रस्ताव के मार्फत विरोधी दलों से कहा है कि कांग्रेस
अकेली पार्टी है, जिसने बीजेपी के साथ कभी समझौता नहीं किया। कांग्रेस के बगैर
बीजेपी का सामना करना किसी के बस की बात नहीं है। 58 बिंदुओं वाले इस प्रस्ताव में
2004 से 2014 के बीच के अनुभव का हवाला दिया गया है। केवल दावे करने से काम नहीं
चलेगा। सवाल विरोधी दलों के भरोसे का है।
विरोधी-एकता स्थापित करने के पहले पार्टी को
अपनी आंतरिक एकता को स्थापित करना होगा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी की आंतरिक
कलह छिपी नहीं है। दोनों राज्यों में इस साल चुनाव हैं। ‘पार्टी हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान चला रही है, पर ज्यादातर राज्यों में कार्यकर्ताओं के बीच
मनमुटाव है। पंजाब में ऐसा ही मनमुटाव पार्टी की हार का कारण बना। उस मनमुटाव को
हाईकमान ने ही बढ़ावा दिया था। खबरें हैं कि महाधिवेशन की कुछ जरूरी बैठकों से एक
राज्य के कुछ नेता गायब रहे। अधिवेशन के दौरान इस किस्म की शिकायतों की भरमार थी।
विरोधी-एकता
2024 के चुनाव के पहले ही कांग्रेस की इस
रणनीति की असलियत का पता लगेगा। इस साल हो रहे नौ राज्यों के चुनाव में उसके पहले संकेत
मिलेंगे। पहला संकेत पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के परिणामों से आ भी गया है। अब मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान,
कर्नाटक, मिज़ोरम और तेलंगाना में पार्टी की
रणनीति पर नजरें रहेंगी। इन राज्यों में यदि वह अपने दावों को सच साबित नहीं कर
पाई, तो विरोधी दलों का भरोसा जीतना मुश्किल होगा।
हाल में आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसौदिया
की गिरफ्तारी होने पर इसीलिए पार्टी ने केंद्र-सरकार की आलोचना की। इसके पहले
पार्टी आम आदमी पार्टी के भ्रष्टाचार पर हमले करती थी, पर उसे लगता है कि इस समय केंद्र
पर हमला करना उसके लिए ज्यादा मुफीद होगा। संयोग से दिल्ली के आबकारी-कांड में
तेलंगाना के सूत्र भी जुड़े हैं और आम आदमी पार्टी और के चंद्रशेखर राव की पार्टी
बीआरएस काफी करीब आ गए हैं, पर कांग्रेस को लगता है कि बीजेपी के विरोध में ये
पार्टियाँ भी उसके साथ आएंगी।
विरोधी दलों की एकता के सिलसिले में तृणमूल
कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और केसीआर की भारत राष्ट्र समिति को कांग्रेस के नेतृत्व
को लेकर आपत्ति है। तीसरे मोर्चे की अवधारणा को लेकर बीआरएस ने खम्मम में रैली भी
की थी। आम आदमी पार्टी उन राज्यों में प्रवेश कर रही है, जहाँ कांग्रेस कमजोर हो
रही है। यह बात छिपी नहीं है कि गुजरात विधानसभा के चुनाव में उसने कांग्रेस के
वोटों को काटा। राष्ट्रीय पार्टी बन जाने के बाद उसके उत्साह और महत्वाकांक्षा में
वृद्धि हुई है।
राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के दौरान कहा था कि
समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश तक सीमित है। सच यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव
में वे सपा के साथ गठबंधन करने को मजबूर हुए थे। वह गठबंधन सफल नहीं हुआ, पर साबित
यह हुआ कि गठबंधन का गणित उतना सरल नहीं है, जितना समझा जा रहा है। बहरहाल एनसीपी,
जेडीयू और डीएमके जैसे दल मानते हैं कि कांग्रेस के बगैर विरोधी एकता संभव नहीं। बिहार.
तमिलनाडु और महाराष्ट्र में इन पार्टियों का कांग्रेस के साथ गठबंधन पहले से है।
सफलता तभी है, जब कोई नया गठबंधन सामने आए।
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