केरल में 'एंटी इनकम्बैंसी' थी, पर असम में कांग्रेस का सेल्फ गोल भी था. गुरुवार को चुनाव का ट्रेंड आने के थोड़ी देर बाद ही राहुल
गांधी के दफ्तर ने ट्वीट किया, ‘हम विनम्रता के साथ जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं. चुनाव जीतने वाले दलों
को मेरी शुभकामनाएं.’ एक और ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘पार्टी लोगों का भरोसा
जीतने तक कड़ी मेहनत करती रहेगी.’ इस औपचारिक सदाशयता को अलग रखते
हुए सवाल पूछें कि अब पार्टी के सामने विकल्प क्या हैं? वह ऐसा क्या करेगी, जिससे लोगों का भरोसा दोबारा जीता जा
सके. पाँच राज्यों की विधानसभाओं के परिणामों का निहितार्थ अगले
साल होने वाले चुनावों में नजर आएगा.
पिछले दो साल में कांग्रेस को हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और
जम्मू-कश्मीर में हार का मुँह देखना पड़ा है. इस दौरान उसे अकेली जीत अरुणाचल में
मिली थी, जहाँ पार्टी में हुई बगावत के बाद वह सरकार भी हाथ से गई. यह कहानी
उत्तराखंड में भी दोहराई गई, पर बीजेपी की केन्द्रीय सरकार की उतावली और नादानी के
कारण वह बगावत विफल हो गई, पर वह अभी तक तार्किक परिणति तक नहीं पहुँची है. अब कांग्रेस
के हाथ से असम और केरल दो राज्य और चले गए. उसके पास कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा
है. शेष हैं उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय और मिजोरम. इसलिए इन चुनाव परिणामों का बड़ा संदेश कांग्रेस के नाम है.
केरल में पराजय के पीछे स्वाभाविक ‘एंटी इनकम्बैंसी’ है. प्रदेश के मुख्यमंत्री ऊमन चैंडी और कुछ मंत्रियों पर
भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं. पार्टी को वाममोर्चे ने हराया है जो बंगाल में
उसका सहयोगी दल है. ‘बंगाल में दोस्ती और केरल में
कुश्ती’ की रणनीति कांग्रेसी रणनीति के
दोषों को उजागर करती है. ये चुनाव परिणाम अगले साल होने वाले चुनावों को और उनके
परिणाम उनके बाद होने वाले चुनावों को प्रभावित करेंगे. अंततः यह कहानी 2019 के
लोकसभा चुनाव पर खत्म होगी?
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव
होंगे. असम में मिली हार इन सभी राज्यों में कांग्रेस को परेशान करेगी. पिछले साल
पार्टी ने कांग्रेस ने जेडीयू और आरजेडी के साथ महागठबंधन का रास्ता चुना था. पर
असम में एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन के लिए पार्टी तैयार नहीं हुई. बंगाल और असम में
मुस्लिम वोट महत्वपूर्ण था. यह वोट उत्तर प्रदेश में भी महत्वपूर्ण होगा. पर वहाँ कांग्रेस
को कोई प्रभावशाली दोस्त अभी तक नहीं मिला है. यूपी में इस वोट पर मुलायम सिंह का
कब्जा है. पार्टी यदि असम और बंगाल में सफल होती तभी उत्तर प्रदेश पर असर पड़ता, भले ही वह केरल में हार जाती. दिक्कत
यह है कि पार्टी को मुस्लिम वोट चाहिए, मुस्लिम परस्त पार्टी की छवि नहीं चाहिए. उसे
बीजेपी का विरोध करना है, पर हिन्दू विरोधी छवि नहीं चाहिए.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल
गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें
कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है. पचास के दशक
में जब हिन्दू कोड बिल पास हुए थे तबसे कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने के आरोप
लगते रहे हैं. पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई. साठ के दशक में
गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिन्दू विरोधी साबित नहीं कर सका.
अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम के
धर्मांतरण के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी छवि हिन्दू-मुखी बनाने का बाकायदा प्रयास
किया. उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि आंदोलन का रुख अपनी और
मोड़ने की कोशिश भी की. अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास कराने के कार्यक्रम
कांग्रेस सरकार के इशारे पर ही हुए थे. लोकसभा चुनाव के बाद एके एंटनी ने केरल में
पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के
प्रति झुकाव रखने वाली अपनी छवि को सुधारना होगा.
असम में बीजेपी ‘बाहरी लोगों’ को लेकर इस राज्य की बेचैनी का फायदा उठाया. लगे हाथ
कांग्रेस से आए हिमंत विश्व शर्मा का लाभ भी पार्टी को मिला. हिमंत ने कांग्रेस
क्यों छेड़ी? राहुल गांधी के कारण. पार्टी में
सुनवाई नहीं होती. यह शिकायत पंजाब और यूपी के कार्यकर्ताओं को भी है. पंजाब में
अकाली दल की बदनामी बढ़ती जा रही है, पर कांग्रेस
उसका लाभ उठाने की स्थिति में नहीं है. शायद आम आदमी पार्टी बगैर किसी
मजबूत संगठनात्मक आधार के इसका लाभ उठा ले. अगले साल राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति
पद के चुनाव भी होंगे. राष्ट्रपति के चुनाव में विधानसभा सदस्यों के वोट भी होते
हैं. राज्यों में पराजय का मतलब है दीर्घकालीन नुकसान. लोकसभा चुनाव के पहले 2018
में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे. इन चारों राज्यों में बीजेपी और
कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी.
पाँच राज्यों की विधानसभाओं के साथ
गुजरात, झारखंड, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में उप चुनाव भी हुए हैं। उत्तर प्रदेश
में बिलारी और जंगीपुर की दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी को जीत मिली है. सपा के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का
सवाल बना हुआ था, क्योंकि हाल में मुजफ्फरनगर उपचुनाव में भाजपा ने सपा प्रत्याशी
को हरा दिया था. इसके बाद शामली जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में भी सपा
प्रत्याशी की हार हुई थी. लोकसभा चुनाव के बाद 2014 में बिहार और उत्तर प्रदेश में
हुए चुनावों में भाजपा की हार हुई थी.
बिहार के उप चुनावों ने महागठबंधन की परिकल्पना को
जन्म दिया था. पर इसबार असम में ऐसा गठबंधन नहीं बन सका. पंजाब में इस किस्म के
गठबंधन की खास सम्भावना नहीं है. उत्तराखंड में चुनाव फरवरी में होने हैं.
सम्भावना इस बात की है कि कांग्रेस उसके पहले विधानसभा भंग कराने का फैसला कर सकती
है ताकि हमदर्दी के वोट मिलें. उत्तराखंड, गुजरात, गोवा और हिमाचल में कांग्रेस और
भाजपा का सीधा मुकाबला होगा. कांग्रेस के लिए इनमें से किसी राज्य में कोई अच्छा
संदेश नहीं है. शायद उत्तराखंड में कुछ हमदर्दी हो.
बीजेपी को असम में मिली सफलता उत्तर प्रदेश में मनोबल
बढ़ाने का काम करेगी. वोटर से ज्यादा उसे कार्यकर्ता का मनोबल चाहिए. उत्तर प्रदेश
में पार्टी दलित और ओबीसी वोट को अपनी और खींचना चाहती है. इसीलिए उसने केशव
प्रसाद मौर्य को पार्टी अध्यक्ष बनाया है. इसके साथ वह मंदिर का मसला भी उठाएगी. केशव
प्रसाद मौर्य विश्व हिन्दू परिषद से भी जुड़े रहे हैं. असम में उसने बांग्लादेशी
घुसपैठियों का सवाल उठाया था. पर पंजाब में यह मसला ज्यादा मदद नहीं करेगा, बल्कि अकाली
दल का साथ नुकसान पहुँचाएगा. ‘एंटी इनकम्बैंसी’ का सामना उसे करना होगा.
प्रभात खबर में प्रकाशित
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