पिछले
साल जब सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति की निजता को उसका मौलिक अधिकार माना, तबसे हम
निजी सूचनाओं को लेकर चौकन्ने हैं। परनाला सबसे पहले ‘आधार’ पर गिरा, जिसके राजनीतिक संदर्भ ज्यादा थे। सामान्य व्यक्ति अब भी
निजता के अधिकार के बारे में ज्यादा नहीं जानता। वह डेटा पॉइंट बन गया है, जबकि
उसे जागरूक नागरिक बनना है। दूसरी तरफ हमारे वंचित और साधनहीन नागरिक अपनी
अस्तित्व की रक्षा में ऐसे फँसे हैं कि ये सब बातें विलासिता की वस्तु लगती हैं। बहरहाल
कैम्ब्रिज एनालिटिका के विसिल ब्लोवर क्रिस्टोफर वायली ने ब्रिटिश संसदीय समिति को
जो जानकारियाँ दी हैं, उनके भारतीय निहितार्थों पर विचार करना चाहिए। विचार यह भी करना चाहिए कि हमारे विचारों और भावनाओं का दोहन कितने तरीकों से किया जा सकता है और इसकी सीमा क्या है। एक तरफ हम मशीनों में कृत्रिम मेधा भर रहे हैं और दूसरी तरफ इंसानों के मन को मशीनों की तरह काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं।
हरिभूमि में प्रकाशित
इस
मामले के तीन अलग-अलग पहलू हैं, जिन्हें एकसाथ देखने की कोशिश संशय पैदा कर रही
है। पिछले कुछ समय से हम ‘आधार’ को लेकर बहस कर रहे हैं। ‘आधार’ बुनियादी तौर पर एक पहचान संख्या है, जिसका इस्तेमाल नागरिक को
राज्य की तरफ से मिलने वाली सुविधाएं पहुँचाने के लिए किया जाना था, पर अब दूसरी
सेवाओं के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। इसमें दी गई सूचनाएं लीक हुईं या उनकी
रक्षा का इंतजाम इतना मामूली था कि उन्हें लीक करके साबित किया गया कि जानकारियों
पर डाका डाला जा रहा है। चूंकि व्यक्तिगत सूचनाओं का व्यावसायिक इस्तेमाल होता है,
इसलिए ‘आधार’ विवाद का विषय बना और अभी उसका मामला सुप्रीम
कोर्ट के सामने है।
‘आधार’ के विरोधियों में से एक तबका मानता है कि
राज्य को व्यक्ति के जीवन में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध
में वैश्विक व्यवस्था के सामने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की चुनौती खड़ी हुई है। ऐसे
में राज्य ने निगरानी की व्यवस्था को बढ़ाया है, जिसकी प्रतिक्रिया में निजता के
अधिकार की माँग बढ़ी है। राज्य की जिम्मेदारी नागरिक को रक्षा प्रदान करने की भी
है। दोनों बातों को जोड़कर देखें तो कुछ विसंगतियाँ जन्म लेती हैं। उधर तकनीक ने
राज-व्यवस्था के भीतर छिद्र खोज लिए हैं और विकीलीक्स जैसी संस्थाएं उभर कर आईं
हैं।
पिछले
दो दशक में सोशल मीडिया के विस्तार के बाद इस मसले से जुड़े दो और पहलू उभरे हैं।
सोशल मीडिया हमारी अभिरुचियों, प्रवृत्तियों और धारणाओं को भी तय कर रहा है।
तकनीकी विस्तार इतना तेज है कि देखते ही देखते ज्यादातर हाथों में स्मार्टफोन आ गए
हैं। इसके मार्फत हम जानकारियाँ प्राप्त कर रहे हैं, साथ ही हमारी जानकारियाँ भी
अनजाने में किसी को हाथों में पड़ रहीं हैं। इन जानकारियों का इस्तेमाल ही उस बहस
का विषय है, जो इस वक्त खड़ी है।
नागरिक
के व्यक्तिगत जीवन की जानकारी में इच्छुक संस्थाएं कई तरह की हैं। कोई आपको फैशन
की सामग्री बेचना चाहता है तो कोई किताब। किसी के पास इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हैं तो
कोई कॉज़्मेटिक्स लेकर आया है। मीडिया आपकी राय बना रहा है, आपकी पसंद तय कर रहा
है। राजनीति-शास्त्र अब केवल सांविधानिक-व्यवस्थाओं और राजनीतिक-दर्शन के अध्ययन
पर केन्द्रित नहीं है। वह अब व्यक्ति के आचरण-व्यवहार का अध्ययन करता है। पर
ज्यादा महत्वपूर्ण बनकर उभरी हैं वे एजेंसियाँ, जो व्यक्ति के आचरण और व्यवहार को
बना रही हैं।
इस
वक्त की बहस का केन्द्रीय विषय है वे एजेंसियाँ, जो हमारे मन-मस्तिष्क को संचालित
करना चाहती हैं। डेटा-चोरी, डेटा-बाजार और डेटा में मिलावट वगैरह इसके सहायक
उत्पाद हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है राज-व्यवस्था को अपने शिकंजे में करने की
कोशिश। वर्तमान बहस को इसी नजरिए से देखना चाहिए। जेम्स हार्डिंग की पुस्तक ‘अल्फा डॉग्स’ में लेखक ने
बताया कि अमेरिका में सत्तर के दशक से ऐसे व्यावसायिक समूह खड़े हो गए हैं जो
लोकतंत्र का संचालन कर रहे हैं। अमेरिका में ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में। संयोग
से इस वक्त भी ज्यादातर संदर्भ अमेरिकी हैं। डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव के साथ तमाम
विवाद भी जुड़े हैं।
हमारे देश में
भी लोकतंत्र का पहला लक्ष्य है चुनाव जीतना। चुनाव जिताने की विशेषज्ञता प्राप्त
कम्पनियां देश-काल और समाज के हिसाब से मुहावरे और नारे गढ़ती हैं। इनकी सहायक
कम्पनियाँ डेटा माइनिंग करती हैं, जानकारियाँ एकत्र करती हैं। लोकतंत्र जनमत या पब्लिक ओपीनियन के सहारे चलता है। गोलबंदी पब्लिक ओपीनियन
में ही सबसे ज्यादा नजर आती है। जैसे-जैसे लोकतांत्रिक प्रणाली का विकास हो रहा है, उसे स्वच्छ और
पारदर्शी बनाने की कोशिशें एक तरफ हैं और सिस्टम को अपने कब्जे में करने की
कोशिशें दूसरी तरफ हैं।
सामान्य
पाठक के नजरिए से देखें तो हम समझ ही नहीं पा रहे हैं कि यह सब है क्या। इसलिए
सबसे पहले यह समझना चाहिए कि हुआ क्या है और हम बातें क्या कर रहे हैं। कैम्ब्रिज
एनालिटिका ब्रिटिश फर्म है, जो डेटा माइनिंग, डेटा ब्रोकरेज और डेटा एनालिसिस के
आधार पर राजनीतिक सलाह देने और चुनाव प्रक्रियाओं के कारोबार में हिस्सा लेती है।
यह कम्पनी 2013 में एक और कम्पनी एससीएल (स्ट्रैटेजिक कम्युनिकेशंस लैबोरेटरीज़)
में से निकली थी।
चुनाव जीतने में दिलचस्पी राजनीतिक दलों से
ज्यादा कारोबारियों और तमाम तरह के हित समूहों की होती है। भारतीय संदर्भों में हम
इन बातों को अब देख-सुन रहे हैं, इसलिए विस्मय हो रहा है। फेसबुक डेटा लीक मामला
सामने आने के बाद ब्रिटिश फर्म कैंब्रिज एनालिटिका के एक पूर्व सहयोगी क्रिस्टोफर
वायली ने ब्रिटिश संसद की एक समिति के सामने जो बातें बताईं हैं, उनसे कई तरह के
निष्कर्ष निकल रहे हैं। ज्यादातर मामले अमेरिकी राजनीतिक समूहों और अमेरिकी चुनाव
से जुड़ी गतिविधियों से सम्बद्ध हैं, पर अब इस संस्था की भारतीय गतिविधियों पर से
भी पर्दा उठ रहा है।
वायली ने बताया कि इससे जुड़ी भारतीय फर्म ने 2012 में उत्तर प्रदेश में एक राष्ट्रीय पार्टी
के लिए जातिगत जनगणना की थी। यह काम ऐसे वोटरों की पहचान करने के लिए हुआ था, जिन्हें
अपने पक्ष में किया जा सकता हो। भारत में जेहादियों की भरती से जुड़ी रिसर्च का
काम भी किया गया। दिल्ली और छत्तीसगढ़ के चुनावों में कम्पनी ने स्टडी की। यह सब हाल
में ही नहीं हुआ है। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कई उम्मीदवारों के लिए काम किया।
इसके अलावा 2003 से 2012 के बीच हुए चुनावों में कैंब्रिज एनालिटिका के उत्तर
प्रदेश, मध्य
प्रदेश, राजस्थान
और बिहार में कई क्लाइंट थे। वायली के अनुसार 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में
काम किया था। उनका दावा है कि देश के छह हजार जिलों और सात लाख गाँवों की जानकारी
उनके पास है। जानकारियाँ हमेशा उपयोगी होंगी। महत्वपूर्ण यह है कि उनका इस्तेमाल
कौन और क्यों कर रहा है।
हरिभूमि में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-04-2018) को ) "चाँद की ओर निकल" (चर्चा अंक-2928) पर होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व ऑटिज़्म जागरूकता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteनमस्ते सर. आम आदमी बरसों से डेटा प्वॉइंट ही बनाया गया है. भारत की राजनीतिक संरचना ही ऐसी है.
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