आप अपने बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं पहले खुद वैसा बनिए। यह बात बच्चों के व्यवहार पर किए जाने वाले अध्ययनों से जाहिर होती है। माता-पिता की गतिविधियों और बच्चों में पढ़ने की ललक के बीच गहरा सम्बन्ध पाया गया है (स्कौलेस्टिक, 2013). उदाहरण के लिए, नियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में 57% के माता-पिता ने अपने बच्चों के पढ़ने के लिए रोजाना अलग से समय निर्धारित किया हुआ है. इसके विपरीत अनियमित रूप से पढ़ने वाले बच्चों में सिर्फ 17% के माता-पिता ने ही ऐसी व्यवस्था की है. आशुतोष उपाध्याय ने जॉर्डन सैपाइरो के इस लेख का अनुवाद करके भेजा है, जो पठनीय है
यह एक सांस्कृतिक मान्यता है कि आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बच्चों को किताबों से दूर कर रहे हैं. मैं जब दूसरे विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों से मिलता हूं तो वे अक्सर शिकायत करते हैं कि विद्यार्थी अब पढ़ते नहीं हैं क्योंकि उनकी आंखें हर वक्त उनके फोन से चिपकी रहती हैं. टेक्नोफोब (टेक्नोलॉजी से भयभीत रहने वाले) जमात के लोग सोचते हैं कि हम एक ऐसी पीढ़ी को तैयार कर रहे हैं जो साहित्य की कीमत नहीं समझती. नए और पुराने के बीच ध्रुवीकरण जारी है. संभव है यह धारणा किसी स्क्रीन-विरोधी मानस की बची-खुची भड़ास हो जो टेलीविजन के स्वर्णकाल की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता. यह पिटी-पिटाई मनगढ़ंत कहानी भी हो सकती है जो तकनीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ संग्राम में किताबों की हार पर छाती कूट-कूट कर कह रही है- कागज सच्चा नायक और गोरिल्ला ग्लास दुष्ट खलनायक!
Showing posts with label बच्चे. Show all posts
Showing posts with label बच्चे. Show all posts
Thursday, September 24, 2015
Sunday, February 20, 2011
बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?
ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।
जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश
गिरिजेश कुमार
“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |
Subscribe to:
Posts (Atom)