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Wednesday, October 30, 2024

बांग्लादेश में तख्तापलट और भारत से रिश्ते

बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के विरुद्ध हुई बगावत और उसके बाद डॉ मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन के बाद दक्षिण एशिया की राजनीति में रातोंरात बड़ा बदलाव हो गया है। डॉ यूनुस को देश का मुख्य सलाहकार कहा गया है, पर व्यावहारिक रूप से यह प्रधानमंत्री का पद है। उन्हें प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों को मंत्री इसलिए नहीं कहा गया है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पहला सवाल है कि क्या यह सरकार शीघ्र चुनाव कराएगी? डॉ यूनुस ने संकेत दिया है कि हम जल्दी चुनाव नहीं कराएंगे, बल्कि देश में बड़े स्तर पर सुधारों का काम करेंगे।

उनसे पूछा गया कि कैसे सुधार, तब उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रशासनिक मशीनरी और मीडिया में सुधार की जरूरत है। देश में अब जो हो रहा है, उसका परिणाम क्या होगा यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। ज्यादा बड़े सवाल सांविधानिक-संस्थाओं से जुड़े हैं, मसलन अदालतें। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को राष्ट्रपति के आदेश से रिहा कर दिया गया है। क्या यह संविधान-सम्मत कार्य है? इसी तरह एक अदालत ने मुहम्मद यूनुस को आरोपों से मुक्त कर दिया। क्या यह न्यायिक-कर्म की दृष्टि से उचित है? ऐसे सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है, पर आने वाले समय में पूछे जा सकते हैं।  

Monday, August 5, 2024

फिर से चौराहे पर बांग्लादेश


बांग्लादेश एकबार फिर से 2007-08 के दौर में वापस आ गया है। ऐसा लगता था कि शेख हसीना के नेतृत्व में देश लोकतांत्रिक राह पर आगे बढ़ेगा, पर वे ऐसा कर पाने में सफल हुईं नहीं। हालांकि इस देश का राजनीतिक भविष्य अभी अस्पष्ट है, पर लगता है कि फिलहाल कुछ समय तक यह सेना के हाथ में रहेगा। उसके बाद लोकतंत्र की वापसी कब होगी और किस रूप में होगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि सेना बैरक में कब लौटेगी, कर्फ्यू पूरी तरह से नहीं हटाया गया है, इंटरनेट पूरी तरह से वापस नहीं आया है और शैक्षणिक संस्थान बंद हैं।

शेख हसीना और उनके सलाहकारों ने भी राजनीतिक रूप से गलतियाँ की हैं। राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि उन्होंने पिछले 16 वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था को मजबूत करने की कोशिश नहीं की और जनमत को महत्व नहीं दिया। अवामी लीग जनता के मुद्दों को नजरंदाज़ करती रही। आरक्षण विरोधी आंदोलन को 'सरकार विरोधी आंदोलन' माना गया। उसे केवल कोटा सुधार आंदोलन के रूप में नहीं देखा। शेख हसीना के बेटे और उनके आईटी सलाहकार सजीब वाजेद जॉय ने सेना और न्याय-व्यवस्था से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया है कि कोई भी अनिर्वाचित देश में नहीं आनी चाहिए। सवाल है कि क्या निकट भविष्य में चुनाव संभव है? भारत की दृष्टि से यह परेशानी का समय है।

Thursday, September 8, 2022

शेख हसीना की राजनीतिक सफलता पर निर्भर हैं भारत-बांग्लादेश रिश्ते


शेख हसीना और नरेंद्र मोदी की मुलाकात और दोनों देशों के बीच हुए सात समझौतों से ज्यादा चार दिन की इस यात्रा का राजनीतिक लिहाज से महत्व है. दोनों की कोशिश है कि विवाद के मसलों को हल करते हुए सहयोग के ऐसे समझौते हों, जिनसे आर्थिक-विकास के रास्ते खुलें.

 

बांग्लादेश में अगले साल के अंत में आम चुनाव हैं और उसके तीन-चार महीने बाद भारत में. दोनों चुनावों को ये रिश्ते भी प्रभावित करेंगे. दोनों सरकारें अपनी वापसी के लिए एक-दूसरे की सहायता करना चाहेंगी.  

 

पिछले महीने बांग्लादेश के विदेशमंत्री अब्दुल मोमिन ने एक रैली में कहा था कि भारत को कोशिश करनी चाहिए कि शेख हसीना फिर से जीतकर आएं, ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता कायम रहे. दो राय नहीं कि शेख हसीना के कारण दोनों देशों के रिश्ते सुधरे हैं और आज दक्षिण एशिया में भारत का सबसे करीबी देश बांग्लादेश है.

 

विवादों का निपटारा

असम के एनआरसी और हाल में रोहिंग्या शरणार्थियों से जुड़े विवादों और बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के भारत-विरोधी आंदोलनों के बावजूद दोनों देशों ने धैर्य के साथ मामले को थामा है.

 

दोनों देशों ने सीमा से जुड़े तकरीबन सभी मामलों को सुलझा लिया है. अलबत्ता तीस्ता जैसे विवादों को सुलझाने की अभी जरूरत है. इन रिश्तों में चीन की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर बांग्ला सरकार ने बड़ी सफाई से संतुलन बनाया है.

 

बेहतर कनेक्टिविटी

पाकिस्तान के साथ बिगड़े रिश्तों के कारण पश्चिम में भारत की कनेक्टिविटी लगभग शून्य है, जबकि पूर्व में काफी अच्छी है. बांग्लादेश के साथ भारत रेल, सड़क और जलमार्ग से जुड़ा है. चटगाँव बंदरगाह के मार्फत भारत अपने पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिण पूर्व के देशों से कारोबार कर सकता है.

 

इसी तरह बांग्लादेश का नेपाल और भूटान के साथ कारोबार भारत के माध्यम से हो रहा है. बांग्लादेश की इच्छा भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा भी है.

 

शेख हसीना सरकार को आर्थिक मोर्चे पर जो सफलता मिली है, वह उसका सबसे बड़ा राजनीतिक-संबल है. भारत के साथ विवादों के निपटारे ने इसमें मदद की है. इन रिश्तों में विलक्षणता है.

 

सांस्कृतिक समानता

दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं. 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस था, और आज भी दोनों के अंतर्विरोधी रिश्ते हैं. पर ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं.

 

बेशक वहाँ भी भारत-विरोध है, पर सरकार के नियंत्रण में है. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि पिछले एक दशक में शेख हसीना के कारण भारत का बांग्लादेश पर प्रभाव बहुत बढ़ा है. क्या यह मैत्री केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो कभी नेतृत्व बदला तो क्या होगा?

 

यह केवल हसीना शेख तक सीमित मसला नहीं है. अवामी लीग केवल एक नेता की पार्टी नहीं है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और.

 

आर्थिक सफलता

केवल साजिशों की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था.

Tuesday, December 28, 2021

बांग्लादेश के उदय का ऐतिहासिक महत्व

बांग्लादेश की स्थापना के पचास वर्ष पूरे होने पर तमाम बातें भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए विचारणीय हैं। विभाजन की निरर्थकता या सार्थकता पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करने समय है। भारत में धर्मनिरपेक्षता और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में इस्लामिक राज-व्यवस्था को लेकर बहस है। अफगानिस्तान में हाल में हुआ सत्ता-परिवर्तन भी विचारणीय है। भारतीय उपमहाद्वीप में चलने वाली हवाएं अफगानिस्तान पर भी असर डालती हैं। सवाल है कि इस क्षेत्र के लोगों की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं? इलाके की राजनीति क्या उन महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती है? दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक के उत्तराधिकारियों के पास इक्कीसवीं सदी में सपने क्या हैं वगैरह?

विभाजन की निरर्थकता

बांग्लादेश की स्थापना के साथ भारतीय भूखंड के सांप्रदायिक विभाजन की निरर्थकता के सवाल पर जितनी गहरी बहस होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।   विभाजन के बाद पाकिस्तान दो भौगोलिक इकाइयों के रूप में सामने आया था। हालांकि इस्लाम उन्हें जोड़ने वाली मजबूत कड़ी थी, पर सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच फर्क भी था। पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान शुरू से ही पश्चिम में था। बंगाली मुसलमानों का बहुमत होने के बावजूद पश्चिम की धौंसपट्टी चलती थी।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और। केवल साजिशों और महत्वाकांक्षाओं की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था। मोटे तौर पर समझने के लिए 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.66 अरब डॉलर और बांग्लादेश की 8.75 अरब डॉलर थी। 2020 में पाकिस्तान की जीडीपी 263.63 और बांग्लादेश की 324.24 अरब डॉलर हो गई। इसके अलावा मानवीय विकास के तमाम मानकों पर बांग्लादेश बेहतर है।

प्रति-विभाजन?

क्या यह प्रति-विभाजन है? विभाजन की सिद्धांततः पराजय 1948 में ही हो गई थी। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी और उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वाले देश के दुश्मन हैं। इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

Monday, December 27, 2021

भारत-बांग्ला रिश्तों के खट्टे-मीठे पचास साल


भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस के रूप में उभरा था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी। बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में भारत का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। तब इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?

विभाजन की कड़वाहट

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है।

लोकतांत्रिक अनुभव

शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विरोधी-दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे। भारत ने समर्थन किया था, इसलिए कि बांग्लादेश में अस्थिरता का भारत पर असर पड़ता है।

उस विवाद से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उस चुनाव में अवामी लीग ने कुल 300 में से 288 सीटों पर विजय पाई। दुनिया के मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है। बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता माना जाएगा।

Sunday, December 26, 2021

बांग्लादेश के संदर्भ में इंदिरा गांधी को याद करने की जरूरत


बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है। साथ ही उन परिस्थितियों पर फिर से विचार हो रहा है, जिनमें बांग्लादेश की नींव पड़ी। बांग्लादेश में इस साल मुजीब-वर्ष यानी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। बांग्लादेश की मुक्ति और स्वतंत्रता संग्राम के 50 वर्ष के साथ दोनों देशों के राजनयिक संबंधों के 50 साल भी पूरे हो रहे हैं। मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वहाँ गए।

इस दौरान देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम का उल्लेख नहीं होने पर बहुत से लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। वयोवृद्ध नेता कर्ण सिंह ने 17 दिसंबर को कहा कि इंदिरा गांधी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व के बिना बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को जीता नहीं जा सकता था। विरोधी दलों के नेताओं ने भी इसी किस्म के विचार व्यक्त किए। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर उनके बयान का संदर्भ देते हुए याद दिलाया कि विजय दिवस इंदिरा गांधी के साहसिक और निर्णायक फैसले की वजह से है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहने के बावजूद इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी और उन्हें 1971 की बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के बाद ‘दुर्गा’ का अवतार बताया था।

असाधारण विजय

बांग्लादेश की मुक्ति एक सामान्य लड़ाई नहीं थी। हालात केवल एक देश और समाज की मुक्ति तक सीमित नहीं थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक और बड़े युद्ध के हालात बन गए थे, जिनमें एक तरफ पाकिस्तान, चीन और अमेरिका खड़े थे और दूसरी तरफ भारत और रूस। छोटे से गलत कदम से बड़ी दुर्घटना हो सकती थी। उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसने भी वैश्विक जनमत को भारत के पक्ष में मोड़ने में भूमिका निभाई और निक्सन जैसे राजनेता को बौना बना दिया। साथ ही सातवें बेड़े के कारण पैदा हुए भय का साहस के साथ मुकाबला किया। उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा। इसलिए एक नजर उन परिस्थितियों पर फिर से डालने की जरूरत है।

बांग्लादेश की स्थापना के पीछे की परिस्थितियों पर विचार करते समय उन दिनों भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में हुए संसदीय चुनावों के परिणामों पर भी विचार करना चाहिए। भारत में फरवरी 1971 में और उसके करीब दो महीने पहले पाकिस्तान में। पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जनरल याह्या खान ने आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रीय असेम्बली के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का फैसला किया। उन्हें अनुमान ही नहीं था कि पूर्वी पाकिस्तान इस लोकतांत्रिक-गतिविधि के सहारे पश्चिम को सबक सिखाने का फैसला करके बैठा है। याह्या खान को लगता था कि किसी को बहुमत मिलेगा नहीं, जिससे मेरी सत्ता चलती रहेगी। पर शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को न केवल पूर्वी पाकिस्तान की 99 फीसदी सीटें मिलीं, बल्कि राष्ट्रीय असेम्बली में पूर्ण बहुमत भी मिल गया, पर पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान ने उन्हें प्रधानमंत्री पद देने से इनकार कर दिया।

Thursday, December 16, 2021

बांग्लादेश के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बांग्लादेश पहला ऐसा देश था, जो युद्ध के बाद नए देश के रूप में सामने आया था। इस देश के उदय ने भारतीय भूखंड के धार्मिक विभाजन को गलत साबित किया। पूर्वी पाकिस्तान हालांकि मुस्लिम-बहुत इलाका था, पर वह बंगाली था। यह बात शायद आज भी पाकिस्तान के सूत्रधारों को समझ में नहीं आती है। पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को भी यह बात समझ में नहीं आई थी। उन्होंने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। उन्होंने उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वालों को  इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी। यह सब अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है, पर बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है।

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। 

Monday, April 5, 2021

बांग्लादेश पर चीनी-प्रभाव को रोकने की चुनौती

 


बांग्लादेश की स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती समारोह के सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा ने बांग्लादेश के महत्व पर रोशनी डाली है। मैत्री के तमाम ऐतिहासिक विवरणों के बावजूद पिछले कुछ समय से इन रिश्तों में दरार नजर आ रही थी। इसके पीछे भारतीय राजनीति के आंतरिक कारण हैं और चीनी डिप्लोमेसी की सक्रियता। भारत में बांग्लादेशी नागरिकों की घुसपैठ, नागरिकता कानून में संशोधन, रोहिंग्या और तीस्ता के पानी जैसे कुछ पुराने विवादों को सुलझाने में हो रही देरी की वजह से दोनों के बीच दूरी बढ़ी है।

पिछले कुछ समय से भारतीय विदेश-नीति में दक्षिण एशिया के देशों से रिश्तों को सुधारने के काम को महत्व दिया जा रहा है। म्यांमार में फौजी सत्ता-पलट के बाद भारत की संतुलित प्रतिक्रिया और संरा मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका विरोधी प्रस्ताव पर मतदान के समय भारत की अनुपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती है। पश्चिम बंगाल के चुनाव में बीजेपी ने बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर जो चुप्पी साधी है, वह भी विदेश-नीति का असर लगता है।  

भारत-बांग्‍लादेश सीमा चार हजार 96 किलोमीटर लंबी है। दोनों देश 54 नदियों के पानी का साझा इस्तेमाल करते हैं। दक्षिण एशिया में भारत का सबसे बड़ा व्यापार-सहयोगी बांग्लादेश है। वर्ष 2019 में दोनों देशों के बीच 10 अरब डॉलर का कारोबार हुआ था। बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था प्रगतिशील है और सामाजिक-सांस्कृतिक लिहाज से हमारे बहुत करीब है। हम बहुत से मामलों में बेहतर स्थिति में हैं, पर ऐतिहासिक कारणों से दोनों देशों के अंतर्विरोध भी हैं। उन्हें सुलझाने की जरूरत है। 

Thursday, April 1, 2021

बांग्लादेश में भारत-विरोधी हिंसा


प्रधानमंत्री की बांग्लादेश  यात्रा के दौरान हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम संगठन के नेतृत्व में हुई हिंसा ने ध्यान खींचा है। यह संगठन सन 2010 में खड़ा हुआ था और परोक्ष रूप से प्रतिबंधित संगठन जमाते-इस्लामी के एजेंडा को चलाता है।  इस संगठन से जुड़े लोगों ने न केवल सरकारी सम्पत्ति, रेलवे स्टेशन, रेल लाइन, ट्रेन, थानों और सरकारी भवनों को नुकसान पहुँचाया गया। हिंदू-परिवारों पर और मंदिरों पर भी हमले बोले गए। खुफिया रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि जमात, हिफाजत और विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी शेख हसीना की सरकार को गिराने की साजिश रच रहे हैं।

हिंसा की शुरुआत ढाका के बैतूल मुकर्रम इलाके से हुई थी, पर सबसे ज्यादा मौतें ब्राह्मणबरिया जिले में हुईं। इसके अलावा चटगाँव में भी हिंसा हुई, जहाँ हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम का मुख्यालय है। ब्राह्मणबरिया प्रशासन, पत्रकारों और चश्मदीदों के मुताबिक़ हिंसा सुबह 11 बजे से शुरू हुई थी। ज़िला मुख्यालय, नगर पालिका परिषद, केंद्रीय पुस्तकालय, नगरपालिका सभागार, भूमि कार्यालय और प्रेस क्लब समेत टी-ए रोड के दोनों तरफ स्थित अनेक सरकारी इमारतों को आग लगा दी गई थी।

Friday, March 26, 2021

राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा

 


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश-यात्रा के तीन बड़े निहितार्थ हैं। पहला है, भारत-बांग्लादेश रिश्तों का महत्व। दूसरे, बदलती वैश्विक परिस्थितियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया की भूमिका और तीसरे पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनाव में इस यात्रा की भूमिका। इस यात्रा का इसलिए भी प्रतीकात्मक महत्व है कि कोविड-19 के कारण पिछले एक साल से विदेश-यात्राएं न करने वाले प्रधानमंत्री की पहली विदेश-यात्रा का गंतव्य बांग्लादेश है।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बांग्लादेश का स्वतंत्रता दिवस 26 मार्च उस ‘पाकिस्तान-दिवस’ 23 मार्च के ठीक तीन दिन बाद पड़ता है, जिसके साथ भारत के ही नहीं बांग्लादेश के कड़वे अनुभव जुड़े हुए हैं। हमें यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रगान के रूप में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत को चुना था।

हालांकि बांग्लादेश का ध्वज 23 मार्च, 1971 को ही फहरा दिया था, पर बंगबंधु मुजीबुर्रहमान ने स्वतंत्रता की घोषणा 26 मार्च की मध्यरात्रि को की थी। बांग्लादेश मुक्ति का वह संग्राम करीब नौ महीने तक चला और भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद अंततः 16 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्म समर्पण के साथ उस युद्ध का समापन हुआ। बांग्लादेश की स्वतंत्रता पर भारत में वैसा ही जश्न मना था जैसा कोई देश अपने स्वतंत्रता दिवस पर मनाता है। देश के कई राज्यों की विधानसभाओं ने उस मौके पर बांग्लादेश की स्वतंत्रता के समर्थन में प्रस्‍ताव पास किए थे।

विस्तार से पढ़ें पाञ्चजन्य में


Thursday, March 19, 2015

जन,गण मन और आमार बांग्ला...


भारत और बांग्लादेश के इस मैच के पहले बजाए गए दोंनों देशों के राष्ट्रगान एक ही लेखक के लिखे हुए थे। दोनों के गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा है। जनगण मन और आमार शोनार बांग्ला की भावना भी ेक जैसी है। इन दोनों राष्ट्रगीतों के बारे में हम काफी कुछ जानते हैं। हमें पाकिस्तान के राष्ट्रगीत के बारे में भी जानना चाहिए। 

आज़ादी के समय पाकिस्तान के पास कोई राष्ट्र-गीत नही था। इसलिए जब भी ध्वज वन्दन होता " पाकिस्तान जिन्दाबाद, आज़ादी पाइन्दाबाद" के नारे लगते थे। शुरुआती दिनों में तराना-ए-पाकिस्तान के नाम से एक गीत प्रचलित था। हालंकि पाकिस्तान सरकार के रिकॉर्ड्स में इसका विवरण नहीं मिलता। इस गीत के बारे में कहा जाता है कि मुहम्मद अली जिन्ना चाहते थे कि पाकिस्तान के राष्ट्र-गीत को रचने का काम शीघ्र ही पूरा करना चाहिए। उनके सलाह कारों ने उनको अनेक जानेमाने उर्दू शायरों के नाम सुझाए जो गीत रच सकते थे। लेकिन जिन्ना साहब का सोच कुछ और ही थी। वे दुनिया के सामने पाकिस्तान की धर्मनिरपेक्ष छवि स्थापित करना चाहते थे। उन्होने लाहौर के  श्रेष्ठ उर्दू शायर और मूलरूप से हिन्दू जगन्नाथ आज़ाद से निवेदन किया कि आप पाकिस्तान के लिए राष्ट्र-गीत लिखें। जगन्नाथ आज़ाद तैयार हो गए। गाने के बोल थे -

ऐ सरज़मी ए पाक जर्रे तेरे हैं आज सितारो से तबनक रोशन है कहकशाँ से कहीं आज तेरी खाक
वास्तव में यह गीत वहाँ के राष्ट्रगीत का दर्जा पा सका था या नहीं और जिन्ना ने इसे लिखवाया था या नहीं यह सब विवाद का विषय है। 

जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान सरकार ने एक राष्ट्र-गीत कमेटी बनाई। जाने माने शायरो के पास से गीत के नमूने मंगवाए। लेकिन कोई भी गीत राष्ट्र-गीत के लायक नही बन पा रहा था। आखिरकार पाकिस्तान सरकार ने 1950 मे अहमद चागला द्वारा रचित धुन को राष्ट्रीय धुन के रूप मे मान्यता दी। उसी समय ईरान के शाह पाकिस्तान की यात्रा पर आए और उन्होने धुन को काफी पसंद किया। यह धुन पाश्चात्य अधिक लगती थी, लेकिन राष्ट्र-गीत कमेटी का मानना था कि इसका यह स्वरूप पाश्चात्य समाज मे अधिक स्वीकृत होगा। सन 1954 में उर्दू शायर हाफ़िज़ जलन्धरी ने इस धुन के आधार पर एक गीत की रचना की। यह गीत राष्ट्र-गीत कमेटी के सदस्यों को पसंद भी आया। और आखिरकार हाफ़िज़ जलन्धरी का लिखा गीत पाकिस्तान का राष्ट्र-गीत बना। 'पाक सरज़मीन' को उर्दू में "क़ौमी तराना" (قومی ترانہ) कहा जाता है। जैसे कि पाकिस्तान की किसी भी चीज के साथ होता है इसका भी भारत कनेक्शन है। हफीज़ जालंधरी का जालंधर भारत में है। यह सन् 1954 में पाकिस्तान का राष्ट्रगान बना। इस राष्ट्रगान में भी पाकिस्तान को मातृभूमि के रूप से माना गया है। इसके शुरुआती शब्द हैंः-

पाक सरज़मीन शाद बाद
किश्वर-ए-हसीन शाद बाद
तू निशान-ए-अज़्म-ए-आलिशान
अर्ज़-ए-पाकिस्तान!
मरकज़-ए-यक़ीन शाद बाद

Tuesday, July 15, 2014

बंगाल की खाड़ी में उम्मीदों के मेघदूत

मार्च 2010 में बंगाल की खाड़ी में एक छोटा सा द्वीप समुद्र में डूब गया। ऐसा जलवायु परिवर्तन और समुद्र की सतह में बदलाव के कारण हुआ. यह द्वीप सन 1971 में हरियाभंगा नदी के मुहाने पर उभर कर आया था. यह नदी दोनों देशों की सीमा बनाती है, इसलिए इस द्वीप के स्वामित्व को लेकर विवाद खड़ा हो गया. यह विवाद अपनी जगह था, पर इसके प्रकटन और लोपन से इस बात पर रोशनी पड़ती है कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री सीमा को लेकर कई तरह के विवाद खड़े हो सकते हैं. नदियों की जलधारा अपना रास्ता बदलती रहती है. ऐसे में हमें पहले से ऐसी व्यवस्थाएं करनी होंगी कि मार्ग बदलने पर क्या करें.

Monday, March 4, 2013

बांग्लादेश का एक और मुक्ति संग्राम


बांग्लादेश में जिस वक्त हिंसा का दौर चल रहा है हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की यात्रा माने रखती है। पर बांग्ला विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया ने प्रणव मुखर्जी से मुलाकात को रद्द करके इस आंदोलन को नया रूप दे दिया है। देश में एक ओर जमात-ए-इस्लामी का आंदोलन चल रहा है, वहीं पिछले तीन हफ्ते से ढाका के शाहबाग चौक में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के समर्थक जमा हैं। इस साल के अंत में बांग्लादेश में चुनाव भी होने हैं। शायद इस देश में स्थिरता लाने के पहले इस प्रकार के आंदोलन अनिवार्य हैं। 
भारत के लिए बांग्लादेश प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। इस देश का जन्म भाषा, संस्कृति, धर्म और राष्ट्रवाद के कुछ बुनियादी सवालों के साथ हुआ था। इन सारे सवालों का रिश्ता भारतीय इतिहास और संस्कृति से है। इन सवालों के जवाब आज भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बांग्लादेश भारत के अंतर्विरोधों के प्रतीक हैं। संयोग है तीनों देश इस साल चुनाव की देहलीज पर हैं। पाकिस्तान में अगले दो महीने और भारत और बांग्लादेश में अगला एक साल लोकतंत्र की परीक्षा का साल है। इस दौरान इस इलाके की जनता को तय करना है कि उसे आधुनिकता, विकास और संस्कृति का कैसा समन्वय चाहिए। पर बांग्लादेश की हिंसा अलग से हमारा ध्यान खींचती है।
जमात-ए-इस्लामी के नेता दिलावर हुसैन सईदी को मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद बांग्लादेश के अलग-अलग इलाकों में दंगे भड़के हैं। अभी तक बांग्लादेश नेशनल पार्टी ने इस मामले में पहल नहीं की थी, पर शुक्रवार को उसकी नेता खालिदा जिया ने सरकार पर नरसंहार का आरोप लगाकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के 15 ज़िले हिंसा से प्रभावित हैं। कई शहरों में सत्तारूढ़ अवामी लीग और जमात-ए-इस्लामी कार्यकर्ताओं के बीच टकराव हुए हैं। सन 1971 के बाद से देश में यह सबसे बड़ी हिंसा है। नेआखाली के बेगमगंज में मंदिरों और हिंदू परिवारों पर हमले हुए हैं। जमात-ए-इस्लामी और उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर ने मंदिरों को ही नहीं मस्जिदों को भी निशाना बनाया है। बांग्लादेश की शाही मस्जिद कहलाने वाली बैतुल मुकर्रम मस्जिद में कट्टरपंथियों ने तोड़फोड़ की है। यह हिंसा लगभग एक महीने से चल रही है। और इस कट्टरपंथी हिंसा के जवाब में पिछले एक महीने से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नौजवानों का आंदोलन भी चल रहा है। यह आंदोलन भी देश भर में फैल गया है। देखना यह है कि क्या बांग्लादेश आधुनिकतावाद को अपनी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बना पाएगा।