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Saturday, March 25, 2023

भारतीय भाषाओं का मीडिया और शब्द चयन


हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ'  को पढ़ते हुए मेरे मन में तमाम पुरानी बातें कौंधती चली गई हैं। एक अरसे से मैं भाषा को लेकर एक किताब लिखने का विचार करता रहा हूँ। संभव है मैं उसे तैयार कर पाऊं। मैं भाषा-विज्ञानी नहीं हूँ। केवल भाषा को बरतने वाला हूँ। विचार को ज्यादा बड़े फलक पर व्यक्त करने के पहले अपने ब्लॉग पर मैं स्फुट विचार व्यक्त करता रहा हूँ। हिंदी को लेकर भी 20-25 से ज्यादा लेख मैंने ब्लॉग में लिखे हैं। काफी बातें मेरी डायरियों में दर्ज हैं, जिन्हें मैं समय-समय पर लिखता रहा हूँ।

हाल में जब मध्य प्रदेश सरकार ने मेडिकल पुस्तकों को हिंदी में प्रकाशित किया, तब मैंने कुछ लेख लिखे थे और उन्हें आगे बढ़ाने का विचार किया। इसके लिए मैंने फलस्तीन, इसरायल, अरबी और अफ्रीका की भाषाओं में मेडिकल पढ़ाई से जुड़े प्रश्नों पर नोट्स तैयार किए। पर जब उस मसले को राजनीति ने घेर लिया, तब मैंने अपना हाथ रोक लिया। पढ़ने वाले यह समझने की कोशिश करने लगते हैं कि मैं संघी हूँ, कांग्रेसी हूँ, लोहियाइट हूँ, लाल झंडा हूँ या आंबेडकरवादी? काफी लोगों ने इन शब्दों के परिधान पहन रखे हैं। और वे दुनिया को इसी नज़र से देखना चाहते हैं। जब किताब लिखूँगा, तब इस विषय पर भी लिखूँगा। तकनीकी शब्दावली और आम-फहम भाषा से जुड़े मसले भी मेरी दृष्टि में हैं। एक बड़ा रोचक मसला हिंदी-उर्दू का है। दोनों की लिपियों का अंतर उन्हें अलग करता है, पर क्या आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की मौखिक भाषा में दोनों के फर्क को मिटाया जा सकता है? बहरहाल।  

मैं केवल हिंदी-नज़रिए से नहीं देखता। मेरी नज़र भाषा और खासतौर से भारतीय भाषाओं पर है। लेखक और पत्रकार के रूप में भारतीय भाषाओं के विस्तार का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि हम कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक उसकी भाषा में बात पहुँचा सकते हैं। ऐसे में दो-तीन बातों को ध्यान में रखना होता है। एक, हमारा दर्शक या श्रोता कौन है? उसका भाषा-ज्ञान किस स्तर का है? केवल उसके ज्ञान की बात ही नहीं है बल्कि देखना यह भी होगा कि वह जिस क्षेत्र का निवासी है, वहाँ के मुहावरे और लोकोक्तियों का हमें ज्ञान है या नहीं।

पाठक से सीखें

यह दोतरफा प्रक्रिया है। हमें भी अपने लक्ष्य से सीखना है। खासतौर से तब, जब संवाद लोकभाषा में हो। इसके विपरीत अपेक्षाकृत नगरीय क्षेत्र में मानक-भाषा का इस्तेमाल करने का प्रयास करना चाहिए। लोकभाषा से लालित्य आता हो, तब तो ठीक है, अन्यथा किसी दूसरे क्षेत्र के लोक-प्रयोग कई बार दर्शक और श्रोता को समझ में नहीं आते।

पाकिस्तान में इन दिनों आटे का संकट है। दोनों देशों में दाल-आटे का भाव आम आदमी की दशा पर रोशनी डालता है। भारतीय भूखंड में आटे की व्याप्ति पर डॉ पंत की किताब में अच्छी जानकारी पढ़ने को मिली। आटा संस्कृत आर्द (जोर से दबाना) और प्राकृत अट्ट से व्युत्पन्न हुआ है। अर्थ है किसी अनाज का चूरा, पिसान, बुकनी, पाउडर। कई तरह का चूर्ण बेचने वाला कहलाया परचूनी या परचूनिया। आटा के लिए फारसी शब्द है आद, जो संस्कृत के आर्द का प्रतिरूप लगता है। गुजराती में आटो, कश्मीरी में ओटू, मराठी में आट के अलावा पीठ शब्द भी चलता है, जो पिष्ट या पिसा हुआ से बना है। हिंदी में पिट्ठी या पीठी भी पीसी हुई दाल है। नेपाली में पीठो, कन्नड़ में अट्टसु, पंजाबी, बांग्ला और ओडिया में भी आटा, पर तमिष और मलयाळम में इन सबसे अलग है मावु।

Tuesday, March 14, 2023

शब्दों से एक रोचक मुलाकात

अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने बेगम का तकिया नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।  

व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ज्ञानकोश नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफर की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।

Monday, October 17, 2022

समस्या समाज की है, केवल भाषा की नहीं


भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा-3

इससे पहले की दूसरी कड़ी पढ़ें यहाँ

गृहमंत्री अमित शाह ने रविवार, 16 अक्टूबर 2022 को भोपाल में मेडिकल शिक्षा की हिंदी किताबों का लोकार्पण किया। गृहमंत्री ने कहा कि देश विद्यार्थी जब अपनी भाषा में पढ़ाई करेंगे, तभी वह सच्ची सेवा कर पाएंगे। 10 राज्यों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में शुरू होने वाली है। इस पर काम चल रहा है। मैं देश भर के युवाओं से अह्वान से कहता हूं कि अब भाषा कोई बाध्यता नहीं है। आने वाले दिनों में ये सिलसिला और तेजी से आगे बढ़ेगी. पढ़ाई लिखाई और अनुसंधान मातृभाषा में होगा तो देश तेज़ी से तरक़्क़ी करेगा।

इस कार्यक्रम को आप किस तरह से देखते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम की मेडिकल पुस्तकों के मसले को काफी लोग राजनीतिक दृष्टि से देख रहे हैं। दक्षिण भारत, खासतौर से तमिलनाडु में हिंदी-विरोध राजनीतिक-विचारधारा की शक्ल भी अख्तियार कर चुका है। यह विचारधारा पहले से उस इलाके में पल्लवित-पुष्पित हो रही थी, पर 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से इसे बल मिला है। मेरा सुझाव है कि इस मसले को राजनीतिक नज़रिए से देखना बंद करें।

भारतीय जनता पार्टी हिंदी-माध्यम से शिक्षण को प्रचार के लिए इस्तेमाल करे या द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इसके विरोध को अपनी राजनीति की ज़रिया बनाए, दोनों परिस्थितियों में हम उद्देश्य से भटकेंगे। जब आप राजनीतिक हानि-लाभ या रणनीतियों का विवेचन करें, तब भाषा की राजनीति पर भी विचार करें। पर जब शिक्षा-नीति की दृष्टि से विचार करें, तब यही देखें कि सामान्य-छात्र के लिए कौन सी भाषा उपयोगी है।

भाषा की राजनीति

भाषा की राजनीति अलग विषय है। सामाजिक पहचान के रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। यह राजनीति है। राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण अवयव है भाषा। हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने का फैसला एक प्रकार से राजनीतिक समझौता था। संविधान सभा ने आधे-अधूरे तरीके से इस मसले का समाधान किया और इसे समस्या के रूप में छोड़ दिया। इसके लिए राजनीति ही दोषी है, जिसका विवेचन शुरू करते ही हम एक दूसरे रणक्षेत्र में पहुँच जाते हैं।

फिलहाल मैं प्राथमिक रूप से शिक्षा के माध्यम से जुड़े सवालों पर बात करना चाहूँगा, जिसकी विशेषज्ञता मेरे पास नहीं है। विशेषज्ञों की राय के सहारे ही मैंने अपनी राय बनाई है। मेरी दृष्टि की विसंगतियों को पाठक इंगित करें तो अच्छा है। इससे मुझे अपनी राय को सुस्पष्ट बनाने में आसानी होगी।

स्थानीयता का महत्व

नब्बे के दशक में अंग्रेजी के दो काफी प्रचलित हुए थे। एक लोकल और दूसरा ग्लोबल। कहा गया कि थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल। स्थानीयता और अंतरराष्ट्रीयता को जोड़ने की यह कोशिश थी। इसे भाषा की दृष्टि से देखें, तो बनता है वैश्विक भाषा और स्थानीय भाषा। आपकी समस्याएं और उनके समाधानों की स्थानीयता उतनी ही या उससे कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण है, जितनी आप वैश्विकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। मध्य प्रदेश में हिंदी के माध्यम से मेडिकल पढ़ाई अभी शुरू ही नहीं हुई है कि आपने अमेरिका और यूरोप जाकर वहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने या प्रैक्टिस से जुड़ी परेशानियों का जिक्र शुरू कर दिया।

Tuesday, December 15, 2020

भारतीय भाषाओं में इंजीनियरी की पढ़ाई


इंजीनियरिंग के स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए होने वाली आगामी परीक्षा जॉइंट एंटरेंस एग्जामिनेशन मेन (JEE Main) देश की 12 भाषाओं में होगी। इस परीक्षा से जुड़ी बातें तभी बेहतर तरीके से समझ में आएंगी, जब इनका संचालन हो जाएगा। पहली नजर में मुझे यह विचार अच्छा लगा और मेरी समझ से इसके साथ भारतीय शिक्षा के रूपांतरण की संभावनाएं बढ़ गई हैं। इंजीनियरी के कोर्स में प्रवेश के लिए फरवरी 2021 से शुरू हो रही यह परीक्षा चार चक्रों में होगी। फरवरी से मई तक हरेक महीने एक परीक्षा होगी।

केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने पिछले गुरुवार 10 दिसंबर को कहा कि एक साल में चार बार संयुक्त प्रवेश परीक्षा इसलिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि छात्र विभिन्न परीक्षाओं के एक ही दिन होने या कोविड-19 जैसी स्थिति की वजह से अवसरों से वंचित न हो सकें। उन्होंने कहा कि जेईई (मेन 2021) के लिए पाठ्यक्रम पिछले साल जैसा ही रहेगा। एक और प्रस्ताव का अध्ययन किया जा रहा है, जिसके तहत छात्रों को 90 (भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित के 30 -30 सवालों) में से 75 सवालों (भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और गणित के 25-25 सवालों) का जवाब देने का विकल्प मिलेगा।

Tuesday, July 21, 2015

इमोजी यानी पढ़ो नहीं देखो, मन के भावों की भाषा

पढ़ना और लिखना बेहद मुश्किल काम है. इंसान ने इन दोनों की ईज़ाद अपनी जरूरतों के हिसाब से की थी. पर यह काम मनुष्य की प्रकृति से मेल नहीं खाता. भाषा का विकास मनुष्य ने किस तरह किया, यह शोध का विषय है. भाषाएं कितने तरह की हैं यह जानना भी रोचक है. पर यह सिर्फ संयोग नहीं कि दुनिया भर में सबसे आसानी से चित्र-लिपि को ही पढ़ा और समझा जाता है. सबसे पुरानी कलाएं प्रागैतिहासिक गुफाओं में बनाए गए चित्रों में दिखाई पड़ती हैं. और सबसे आधुनिक कलाएं रेलवे स्टेशनों, सार्वजनिक इस्तेमाल की जगहों और हवाई अड्डों पर आम जनता को रास्ता दिखाने वाले संकेत चिह्नों के रूप में मिलती हैं. इन्हें दुनिया के किसी भी भाषा-भाषी को समझने में देर नहीं लगती.

देखना मनुष्य की स्वाभाविक क्रिया है. कम्प्यूटर को लोकप्रिय बनाने में बड़ी भूमिका उसकी भाषा और मीडिया की है. पर कम्प्यूटर अपने साथ नई भाषा लेकर भी आया है. मीडिया हाउसों के लिए सन 1985 में ऑल्डस कॉरपोरेशन ने जब अपने पेजमेकर का पहला वर्ज़न पेश किया तब इरादा किताबों के पेज तैयार करने का था. उन्हीं दिनों पहली एपल मैकिंटॉश मशीनें तैयार हो रहीं थीं, जो इस लिहाज से क्रांतिकारी थीं कि उनकी कमांड स्क्रीन पर देखकर दी जाती थीं. ये कमांड की-बोर्ड की मदद से दी जा रहीं थीं और माउस की मदद से भी.

Saturday, June 20, 2015

कैसे शुरू हुई भाषा?

स्वभाव से जिज्ञासु और विज्ञानोन्मुखी आशुतोष उपाध्याय ऐसे लेखन पर नजर रखते हैं जो जानकारी के किसी नए दरवाजे को खोलता हो और विश्वसनीय भी हो. मैने इसके महले भी उनके अनूदित लेख अपने ब्लॉग पर डाले हैं। उन्होंने हाल में यह लेख भेजा है. इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि मनुष्य में भाषा क्षमता के जन्म के बारे में एक विद्वान के कुछ दिन पूर्व प्रकाशित एक हैरतअंगेज लेख ने मुझे प्रेरित किया कि इस विषय पर हिंदी में कुछ तथ्यात्मक व विज्ञान सम्मत सामग्री जुटाई जाय. इस सिलसिले में भाषाविज्ञानी रे जैकेनडौफ के एक शुरुआती आलेख का अनुवाद आप सब के साथ शेयर कर रहा हूं. पसंद आये तो अन्य मित्रों तक भी पहुंचाएं.
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कैसे शुरू हुई भाषा?
रे जैकेनडौफ


इस सवाल का मतलब क्या है? मनुष्य में भाषा सामर्थ्य के जन्म के बारे में पूछते हुए, सबसे पहले हमें यह स्पष्ट करना होगा कि असल में हम जानना क्या चाहते हैं? सवाल यह नहीं कि किस तरह तमाम भाषाएं समय के साथ क्रमशः विकसित होकर वर्तमान वैश्विक मुकाम तक पहुंचीं. बल्कि इस सवाल का आशय है कि किस तरह सिर्फ मनुष्य प्रजाति, न कि चिम्पैंजी और बोनोबो जैसे इसके सबसे करीबी रिश्तेदार, काल क्रम में विकसित होकर भाषा का उपयोग करने के काबिल बने.

और क्या विलक्षण विकास था यह! मानव भाषा की बराबरी कोई दूसरा प्राकृतिक संवाद तंत्र नहीं कर सकता. हमारी भाषा अनगिनत विषयों (जैसे- मौसम, युद्ध, अतीत, भविष्य, गणित, गप्प, परीकथा, सिंक कैसे ठीक करें... आदि) पर विचारों को व्यक्त कर सकती है. इसे न केवल सूचना के सम्प्रेषण के लिए, बल्कि सूचना मांगने (प्रश्न करने) और आदेश देने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. अन्य जानवरों के तमाम संवाद तंत्रों के विपरीत, मानव भाषा में नकारात्मक अभिव्यक्तियां भी होती हैं यानी हम मना कर सकते हैं. हर इंसानी भाषा में चंद दर्जन वाक् ध्वनियों से निर्मित दसियों हजार शब्द होते हैं. इन शब्दों की मदद से वक्ता अनगिनत वाक्यांश और वाक्य गढ़ सकते हैं. इन शब्दों के अर्थों की बुनियाद पर वाक्यों के अर्थ खड़े किए जाते हैं. इससे भी विलक्षण बात यह है कि कोई भी सामान्य बच्चा दूसरों की बातें सुनकर भाषा के समूचे तंत्र को सीख जाता है.

Tuesday, June 24, 2014

भाषाओं को लेकर टकराव का ज़माना गया

मनमोहन सिंह अंग्रेजी में बोलते थे और नरेंद्र मोदी हिदी में बोलते हैं। मनमोहन सिंह की विद्वत्ता को लेकर संदेह नहीं, पर जनता को अपनी भाषा में बात समझ में आती है। गृह मंत्रालय के एक अनौपचारिक निर्देश को लेकर जो बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है उसके पीछे वह साहबी मनोदशा है, जो अंग्रेजी के सिंहासन को डोलता हुआ नहीं देख सकती। हाल में बीबीसी हिंदी की वैबसाइट पर एक आलेख में कहा गया था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के समय की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक एक साथ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हैं।

आलेख में लेखक ने पूछा है, वे आपस में किस भाषा में बात कर रहे थे? अंग्रेज़ी में नहीं बल्कि हिंदी में। अगर मोदी की जगह मनमोहन सिंह होते तो ये लोग किस भाषा में बातें कर रहे होते? किसी और भाषा में नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी में। मोदी अब तक प्रधानमंत्री की हैसियत से विदेशी नेताओं से जितनी बार मिले हैं उन्होंने हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया है।

Thursday, August 26, 2010

जैसी हिन्दी आप चाहेंगे वैसी बनेगी


ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के ताजा संस्करण में 2000 नए शब्द जोड़े गए हैं। इन नए शब्दों में ट्वीटप, चिलैक्स, नेटबुक और वुवुज़ेला भी हैं। कम्प्यूटर का इस्तेमाल बढ़ने और खासतौर से सोशल नेटवर्क साइट्स के विस्तार के साथ अनेक नए शब्द बन रहे हैं। इन नए शब्दों में डि-फ्रेंड, पेवॉल, वर्फिंग या ईयरवर्म जैसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल बढ़ता जाएगा। मसलन डि-फ्रेंड। अपनी फ्रेंड लिस्ट से किसी को हटाना। वर्फिंग याने काम (वर्क) के दौरान (नेट) सर्फिंग। संगीत सुनते-सुनते कोई धुन गहरे से दिमाग में बैठ गई तो वह ईयरवर्म है। ऑक्सफर्ड डिक्शनरी की ऑनलाइन सेवा हर तीन महीने में यों भी तकरीबन एक से दो हजार नए शब्द जोड़ती है।

हमारे लिए इस खबर के दो माने हैं। एक तो हम ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के बारे में जानें और दूसरे यह कि हिन्दी के विस्तार के दौर में इस बात का संकेत क्या है। आगे बढ़ने के पहले मैं यह निवेदन करना चाहूँगा कि किसी नई प्रवृत्ति के उभरने पर न तो घबराना चाहिए और न यह मान लेना चाहिए कि यह अंतिम सत्य है। दिल और दिमाग के दरवाजे खोलकर ही सारी चीज़ों को देखें। नई बातें बड़े कालखंड में ही सही या गलत साबित होंगी।  

हिन्दी में नए शब्दों को जोड़ने की ज़रूरत है। मेरे कहने मात्र से यह बात लागू नहीं होती। नए शब्द जुड़ने के कारण होते हैं। नए शब्द घर का दरवाज़ा खटखटाने वाले नए मेहमान हैं। हिन्दी का विकास नए शब्दों के जुड़ते जाने से ही हुआ है। उसके इस्तेमाल का भौगोलिक दायरा बढ़ता जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पुराने शब्द निरर्थक हो गए या उनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। कुछ लोग हिन्दी को आसान बनाने के नाम पर जबर्दस्ती अंग्रेजी शब्दों की जो ठूँसम-ठाँस कर रहे हैं, वह ठीक नहीं। पर लॉगिन, पासवर्ड, कोलेस्ट्रॉल, माउस, डायलॉग या ट्रेनिंग जैसे शब्द आसानी से हिन्दी में आ गए हैं। उन्हें शब्दकोशों में जगह दी जानी चाहिए। यों भी भाषा शब्दकोशों से नहीं शब्दकोश भाषा से बनते हैं।
     
हिन्दी को आसान बनाने की जो ज़िम्मेदारी लेते हैं, उन्हें भी समझना चाहिए कि हिन्दी आसान होने के कारण ही तो प्रचलित है। पर आम बोलचाल की भाषा और  गूढ़ विषयों की भाषा को एक नहीं किया जा सकता। बोलचाल की भाषा भी व्यक्ति और व्यक्ति की अलग-अलग होती है। सड़क के भैये और एक अध्यापक की भाषा एक जैसी नहीं होती। चैनल और अखबार की भाषा भी एक जैसी नहीं हो सकती। दो चैनलों की भाषा का अंतर भी उनके बाज़ार का अंतर बता सकता है। आज नहीं तो दस साल बाद यह फर्क आएगा।

आसान, रोचक और संदेश को साफ-साफ बताना भाषा का काम है। अंग्रेजी जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी नहीं जाती। हिन्दी में भी ऐसा है। हिन्दी में हाल के वर्षों में झकास, मस्त, खलास, खीसा, भिड़ू, टकला, वाट लगाना जैसे शब्द फिल्मी कारखाने से आए। इन्होंने जगह बना ली है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी और कौरवी में तमाम ऐसे शब्द हैं जो मानक हिन्दी के विकास की धारा में पीछे रह गए हैं। नए शब्द सिर्फ अंग्रेजी से ही नहीं आते। भारतीय भाषाओं से और बोलियों से भी आएंगे। यह आदान-प्रदान भी चलेगा। कुमाऊंनी में गंध के लिए जितने प्रकार के शब्द हैं, उनकी सूची बनाई जाए तो बड़ी लम्बी और उपयोगी बनेगी। किसी एक घटना से शब्द प्रचलन में आ जाते हैं। जैसे खालिस्तानी आंदोलन के दौरान सरबत खालसा या घल्लू-घारां जैसे शब्द आए।  

हमारा सांस्कृतिक और व्यापारिक विस्तार हो रहा है। हम कमज़ोर बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोग नहीं है। पश्चिम और पूर्व के समन्वय के लिहाज से भी हम बेहतर स्थिति में हैं। भाषा-व्याकरण और शब्दकोश से जुड़ा हमारा अतीत बहुत समृद्ध है, पर वह अतीत है वर्तमान नहीं है। इस लिहाज से मैं ऑक्सफर्ड शब्दकोश के बारे में जानकारी हासिल करने का सुझाव दूँगा। पर उसके पहले अपने देश जानकारी भी लेनी चाहिए। हिन्दी विकीपीडिया के अनुसार,सब से पहले शब्द संकलन भारत में बने। हमारी यह शानदार परंपरा वेदों जितनीकम से कम पाँच हज़ार सालपुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृतनामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमरकोश के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है।

भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है। यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है। ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है ईर्या आधुनिक कोशों की नीवँ डाली इंग्लैंड में 1755 में सैमुएल जानसन ने। उन की डिक्शनरी सैमुएल जॉन्संस डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज ने कोशकारिता को नए आयाम दिए। इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं। असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 में अमरीका में नोहा वैब्स्टर्स की नोहा वैब्स्टर्स ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज प्रकाशित हुई। इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था। साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था। कोश को सफल होना ही था, हुआ। वैब्स्टर के बाद अँगरेजी कोशों के संशोधन और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा। आज छोटे बड़े हर शहर में, किताबों की दुकानें हैं। हर दुकान पर कई कोश मिलते हैं। हर साल कोशों में नए शब्द सम्मिलित किए जाते हैं।

ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी अपने आप में एक विशाल काम है। इस डिक्शनरी के दो संस्करण निकल चुके हैं। पहला 1928 में निकला था और दूसरा 1989 में। तीसरे संस्करण पर काम चल रहा है और सब ठीक रहा तो वह सन 2037 तक पूरा हो जाएगा। 1989 के इसके संस्करण में इसके 20 खंड थे। इसी संस्करण के छोटे-छोटे संस्करण आप अलग नाम से देखते हैं। इस डिक्शनरी को दुबारा टाइप करना पड़े तो एक व्यक्ति को 120 साल लगेंगे। प्रूफ पड़ने में 60 साल। इस शह्दकोश को इस तरह तैयार किया गया था कि इसमें अंग्रेजी भाषा के इतिहास में जितने शब्द इस्तेमाल में आए उन्हें इसमें शामिल कर लिया जाय। फिर भी इसमें सन 1150 तक प्रयोग से बाहर हो चुके शब्द शामिल नहीं हैं। यह एक विशाल आयोजन है जिसमें शास्त्रीय शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के और अपशब्द (स्लैंग) भी शामिल हैं।ऑक्सफर्ड इंग्लिश डिक्शनरी को अपडेट करने के काम में 300 विद्वान लगे हैं और यह प्रोजेक्ट 5.5 करोड़ डॉलर का है। यानी ढाई सौ करोड़ रुपए से ज्यादा का। इसके साथ ऑक्सफर्ड इंग्लिश कोर्पस है, जिसमें करीब बास लाख शब्दों का भंडार है। इस पर करीब 3.5 करोड़ पाउंड याने करीब 300 करोड़ का खर्च है। धनराशि बताने का आशय सिर्फ इस बात को रेखांकित करना है कि कोई समाज अपने वैचारिक कर्म के प्रति कितना सचेत है।

हिन्दी के पास ऑक्सफर्ड जैसा कोई कार्यक्रम नहीं है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाएं इन कार्यों को करतीं हैं। इसके लिए आर्थिक और तकनीकी सहयोग भी चाहिए। शब्दकोश के बारे में मुझे जानकारी नहीं है, पर हिन्दी के विश्वकोश को मैने नेट पर देखा है, जिसे सी-डैक की मदद से नेट पर रखा गया है। इस काम को जिस स्तर पर अपडेट करना चाहिए वह अभी हुआ नहीं है। हाल के वर्षों में अरविन्द कुमार-कुसुम कुमार के व्यक्तिगत प्रयास से समांतर कोश तैयार हुआ वह उत्साहवर्धक है। इसका सहज संस्करण भी देखने को मिला। इस कोश में प्रौपराइटर, प्रौपैलर, फोकस, औप्टीशियन, औरबिटर, औब्शेसन, इंटरनैट और इंटरकौम। जैसे तमाम अंग्रेजी शब्द हैं। पर यह मानक नहीं है। वर्तनी का सवाल भी है। वृत्तमुखी ध्वनि के लिए दीर्घ औ का इस्तेमाल किया गया है। कौल शब्द कुलीन और ग्रास के अर्थ में है। सम्भव है वे कभी टेली कॉल वाले कॉल को भी शामिल करें। यह कोश की नहीं मानक हिन्दी के प्रयोग की कमी है। अभी हम हर बात पर एकमत नहीं हैं।

हिन्दी के लिए नए शब्द बनाने की सरकारी परियोजना ने बहुत बड़ा काम किया था।गम्भीर विषयों की भाषा चलताऊ शब्दों से नहीं बनती। पर उससे ज्यादा बड़ी ज़रूरत अलग-अलग विषयों के शब्द कोशों और विश्वकोशों की है। इस काम का आधा हिस्सा मीडिया से और आधा विश्वविद्यालयों से जुड़ा है। हिन्दी के सहारे कारोबार चलाने वाले न जाने क्या सोचते हैं। अलबत्ता हिन्दी-प्रयोक्ता ही तय करेंगे कि वे अपनी भाषा को कहाँ ले जाना चाहते हैं। यह भी कि हिन्दी की ज़रूरत उन्हें कहाँ है। 

Friday, August 20, 2010

गलत काम करने वालों को म्यूज़िक क्यों सुनाते हैं?

सोनिया गांधी का एक वक्तव्य आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा है कि कॉमनवैल्थ गेम्स के दोषियों को खेल खत्म होने के बाद सजा मिलेगी। अखबार ने इसका शीर्षक दिया है Sonia says corrupt will face music after Games. मतलब साफ है, पर मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि काम गलत करें और म्यूज़िक का मजा भी लें, ऐसी भाषा क्यों बनी होगी। भाषा के विकास के दौरान ऐसे तमाम मौके आते हैं। इसके लिए मैने phrase.org को देखा। उसमें जो जानकारी मिली वह पेश है। पर यह जानकारी भी पर्याप्त नहीं लगती। शायद आप मदद करें। जानकारी इस प्रकार हैः-

Face the music

Meaning
Accept the unpleasant consequences of one's actions.
Origin
The phrase 'face the music' has an agreeable imagery. We feel that we can picture who was facing what and what music was playing at the time. Regrettably, the documentary records don't point to any clear source for the phrase and we are, as so often, at the mercy of plausible speculation. There was, of course, a definitive and unique origin for the expression 'face the music' and whoever coined it was quite certain of the circumstances and the music being referred to. Let's hope at least that one of the following suggestions is the correct one, even though there is no clear evidence to prove it.
A commonly repeated assertion is that 'face the music' originated from the tradition of disgraced officers being 'drummed out' of their regiment. A second popular theory is that it was actors who 'faced the music', i.e. faced the orchestra pit, when they went on stage. A third theory, less likely but quite interesting none the less, was recounted with some confidence by a member of the choir at a choral concert I attended recently in Sheffield. It relates to the old UK practice of West Gallery singing. This was singing, literally from the west galleries of English churches, by the common peasantry who weren't allowed to sit in the higher status parts of the church. The theory was that the nobility were obliged to listen to the vernacular songs of the parishioners, often with lyrics that were critical of the ways of the gentry.
It may help to pinpoint the origin to know that the phrase appears to be mid 19th American in origin. The earliest citation I can find for the phrase is from The New Hampshire Statesman & State Journal, August 1834:
"Will the editor of the Courier explain this black affair. We want no equivocation - 'face the music' this time."
ALmost all other early citations are American. Sadly, none of them give the slightest clue as to the source, or reason for, the music being faced.

मैने इसे और ज्यादा जानने की कोशिश की तो एक वीडियो मिला जिसमें संगीत से जुड़े अंग्रेजी के 6 मुहावरों  पर अच्छी जानकारी है।
 इस वीडियो को देखें

Saturday, July 24, 2010

हिंग्लिश, हिन्दी और हम


सारा संसार समय के साथ बदलता है। भाषाएं भी बदलतीं हैं। हिन्दी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। इसे लेकर हाल में बीबीसी रेडियो के हिन्दी कार्यक्रम में इस सवाल को लेकर एक रोचक कार्यक्रम पेश किया गया। इसमें हिन्दी भाषियों के विचार भी रखे गए। 


हिन्दी के अखबारों ने , खासतौर से नवभारत टाइम्स ने अंग्रेजी मिली-जुली हिन्दी का न सिर्फ धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया है, बल्कि उसे प्रगतिशील साबित भी किया है। अखबार के मास्टहैड के नीचे लाल रंग से मोटे अक्षरों में एनबीटी लिखा जाता है। मेरा ख्नयाल है कि नवभारत टाइम्स ने ऐसा विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए किया है। विज्ञापनदाता का हिन्दी जीवन-संस्कृति और समाज से रिश्ता नहीं है। वे फैशन के लिए एक खास तबके को लुभाते हैं। यह तबका हमारे बीच है, यह भी सच है। पर यह हिन्दी की मुख्यधारा नहीं है। बिजनेस के दबाव में यह धारा फैसले करती है। 


बीबीसी के इस कार्यक्रम में शब्बीर खन्ना नाम के श्रोता ने बीबीसी की अपनी भाषा नीति पर हमला बोला। भाषा में बदलाव कितना होना चाहिए, कैसे होना चाहिए, यह बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। क्या कोई भाषा शुद्ध हो सकती है? दाल में नमक या नमक में दाल? संज्ञाएं नहीं क्रियाएं बदली जा रहीं है। मजेदार बात यह है कि न तो  इस हिन्दी को चलाने वाले नवभारत टाइम्स ने और न किसी दूसरे अखबार ने कोई बहस चलाई। कोई सर्वे भी नहीं किया। बीबीसी ने यह चर्चा की अच्छी बात है। इस विषय पर चर्चा होनी चाहिए। 
  
बीबीसी कार्यक्रम को सुनें 

Tuesday, June 15, 2010

मॉनसून क्यों और मानसून क्यों नहीं?



प्रमोद जोशी

मैने हाल में अपने ब्लॉग में कहीं मॉनसून शब्द का इस्तेमाल किया। इसपर मुझसे एक पत्रकार मित्र ने पूछा मॉनसून क्यों मानसून क्यों नहीं? मैने उन्हें बताया कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा लगता है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।
बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिन्दी का जहाँ भी प्रयोग है वहां की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिन्दी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे टारगेट पर एंडरसन लिखेंगे  या टार्गेट यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? ऐसा मैं हिन्दी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। मसलन लैंगिक, जातीय, सामुदायिक, धार्मिक या क्षेत्रीय संवेदनाओं-मर्यादाओं को किस तरह ध्यान में रखें। किन शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचें। किन शब्दों का प्रयोग करते वक्त क्या सावधानी बरतें वगैरह। इसी तरह कानून और पत्रकारीय नैतिकता के किन सवालों पर ध्यान दिया जाय यह भी शैली पुस्तिका के दायरे में आता है।
हिन्दी के अखबारों का विस्तार हो रहा है। शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिन्दी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिन्दी के सभी अखबार वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिन्दी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या अंग्रेज़ी के शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा। उर्दू में ज़ंग और जंग में फर्क होता है। रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। फिर लिंग की गड़बड़ियाँ हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच,प्याज,न्याय पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? बड़ा भ्रम है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।
शैली पुस्तिका बनाने का मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। एक धारणा है कि हमें अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। काफी लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। नए शब्दों को स्टाइलशीट में रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सम्पादकीय विभाग के लिए विकसित हो रहे सॉफ्टवेयरों में इस तरह की व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
स्टाइलशीट का सबसे नया पहलू डिज़ाइन का है। अखबार के डिज़ाइन के बाबत मूल धारणा और प्रयोग डिज़ाइन की स्टाइलबुक में हो तो बेहतर है। यहाँ मेरा आशय क्वार्क या पेजमेकर की स्टाइलशीट से नहीं है। मेरा आशय है कि ग्रैफिक प्रयोगों, खासकर टैक्स्ट और विज़ुअल के गुम्फ़न से है। इसे इनफोग्रैफ कहते हैं। इसका चलन हिन्दी में कम है। यह विधा जानकारी को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाती है। रंगों और फॉर्म के प्रयोग किसी अखबार या किसी विषय की पहचान बन सकते हैं। इसे सार्थक बनाने के लिए स्टाइलशीट की ज़रूरत होती है। बल्कि लेखन, सम्पादन और डिज़ाइन के समन्वय के लिए ग्रिड बनाकर काम किया जा सकता है।
इतने सारे अखबारों के बीच अलग पहचान बनाने के लिए खास विषयों और उनके प्रेजेंटेशन पर फोकस की ज़रूरत होती है। इसके लिए लिखने से लेकर पेश करने तक क्वालिटी चेक के कई पायदान होने चाहिए। इधर हुआ इसका उल्टा है। अखबारों से प्रूफ रीडर नाम का प्राणी लुप्त हो गया। अब यह मानकर चलते हैं कि कोई कॉपी रिपोर्टर लिख रहा है तो उसमें प्रयुक्त वर्तनी आदि देखने की जिम्मेदारी उसकी है। व्यवहार में ऐसा नहीं है। रिपोर्टर ही नहीं अब कॉपी डेस्क पर भी भाषा और विषय की अच्छी समझ वाले लोग कम हो रहे हैं। मीडिया हाउसों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर सकता है। 
समाचार फॉर मीडिया कॉम पर प्रकाशित