प्रमोद जोशी
मैने हाल में अपने ब्लॉग में कहीं मॉनसून शब्द का इस्तेमाल किया। इसपर मुझसे एक पत्रकार मित्र ने पूछा मॉनसून क्यों मानसून क्यों नहीं? मैने उन्हें बताया कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा लगता है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।
बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिन्दी का जहाँ भी प्रयोग है वहां की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिन्दी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे ‘टारगेट’ पर एंडरसन लिखेंगे या ‘टार्गेट’ यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? ऐसा मैं हिन्दी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। मसलन लैंगिक, जातीय, सामुदायिक, धार्मिक या क्षेत्रीय संवेदनाओं-मर्यादाओं को किस तरह ध्यान में रखें। किन शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचें। किन शब्दों का प्रयोग करते वक्त क्या सावधानी बरतें वगैरह। इसी तरह कानून और पत्रकारीय नैतिकता के किन सवालों पर ध्यान दिया जाय यह भी शैली पुस्तिका के दायरे में आता है।
हिन्दी के अखबारों का विस्तार हो रहा है। शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिन्दी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिन्दी के सभी अखबार वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिन्दी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या अंग्रेज़ी के शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा। उर्दू में ज़ंग और जंग में फर्क होता है। रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। फिर लिंग की गड़बड़ियाँ हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच,प्याज,न्याय पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? बड़ा भ्रम है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।
शैली पुस्तिका बनाने का मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। एक धारणा है कि हमें अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। काफी लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। नए शब्दों को स्टाइलशीट में रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सम्पादकीय विभाग के लिए विकसित हो रहे सॉफ्टवेयरों में इस तरह की व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
स्टाइलशीट का सबसे नया पहलू डिज़ाइन का है। अखबार के डिज़ाइन के बाबत मूल धारणा और प्रयोग डिज़ाइन की स्टाइलबुक में हो तो बेहतर है। यहाँ मेरा आशय क्वार्क या पेजमेकर की स्टाइलशीट से नहीं है। मेरा आशय है कि ग्रैफिक प्रयोगों, खासकर टैक्स्ट और विज़ुअल के गुम्फ़न से है। इसे इनफोग्रैफ कहते हैं। इसका चलन हिन्दी में कम है। यह विधा जानकारी को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाती है। रंगों और फॉर्म के प्रयोग किसी अखबार या किसी विषय की पहचान बन सकते हैं। इसे सार्थक बनाने के लिए स्टाइलशीट की ज़रूरत होती है। बल्कि लेखन, सम्पादन और डिज़ाइन के समन्वय के लिए ग्रिड बनाकर काम किया जा सकता है।
इतने सारे अखबारों के बीच अलग पहचान बनाने के लिए खास विषयों और उनके प्रेजेंटेशन पर फोकस की ज़रूरत होती है। इसके लिए लिखने से लेकर पेश करने तक क्वालिटी चेक के कई पायदान होने चाहिए। इधर हुआ इसका उल्टा है। अखबारों से प्रूफ रीडर नाम का प्राणी लुप्त हो गया। अब यह मानकर चलते हैं कि कोई कॉपी रिपोर्टर लिख रहा है तो उसमें प्रयुक्त वर्तनी आदि देखने की जिम्मेदारी उसकी है। व्यवहार में ऐसा नहीं है। रिपोर्टर ही नहीं अब कॉपी डेस्क पर भी भाषा और विषय की अच्छी समझ वाले लोग कम हो रहे हैं। मीडिया हाउसों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर सकता है।
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