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Sunday, April 16, 2023

‘एनकाउंटर-न्याय’ और उससे जुड़े सवाल


उत्तर प्रदेश के माफिया अतीक अहमद के बेटे असद की एनकाउंटर से हुई मौत ने आधुनिक भारत की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस मौत ने उत्तर प्रदेश सरकार की कानून-व्यवस्था से जुड़ी नीतियों पर सवालिया निशान भी लगाए हैं। यह आलेख जब लिखा गया था, तब तक अतीक अहमद और उनके भाई की हत्या नहीं हुई थी, पर शनिवार की शाम अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना में तीन आरोपी कथित रूप से शामिल है, जिन्हें पुलिस ने बाद में गिरफ्तार कर लिया है। अब इस मामले ने एक और मोड़ ले लिया है। 

यह भी माना जा रहा है कि यूपी में पूँजी निवेश लाना है, औद्योगीकरण करना है और विकास से जुड़ी नीतियों को लागू करना है, तो प्रदेश को अपराध-मुक्त करना होगा। पर क्या अपराधियों के घरों को बुलडोज़ करके और उनका एनकाउंटर करने से समस्या का समाधान हो जाएगा?  इस कार्रवाई के शिकार बड़ी संख्या में मुसलमान हैं, पर केवल मुसलमान नहीं हैं। जुलाई 2020 में विकास दुबे के एनकाउंटर से यह बात स्पष्ट हुई थी। दिल्ली में चले शाहीनबाग आंदोलन के समांतर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई हिंसा के बाद प्रदेश सरकार ने जुर्माना वसूलने का अभियान भी चलाया, जिसमें अदालत ने हस्तक्षेप किया। क्या इस कार्रवाई के पीछे राजनीति है? देश की न्याय-व्यवस्था क्या इसकी अनुमति देगी? अनुमति नहीं देगी, तो फिर उसके पास समाधान क्या है? पिछले तीन-चार दशक से उत्तर प्रदेश में अपराधियों ने जिस तरह से खुलकर खेला, उसे रोकने में न्याय-व्यवस्था की भूमिका क्या है? सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन, नब्बे के दशक में पंजाब के आतंकवाद और अगस्त, 2019 के बाद कश्मीर में आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों का अनुभव क्या बताता है?

जनता क्या चाहती है?

हिंसा और अपराध के इस चक्रव्यूह में राजनीति और समाज-व्यवस्था की भी बड़ी भूमिका है। जनता के बड़े तबके ने, जिस तरह से असद की मौत पर खुशी मनाई है, तकरीबन वैसा ही 2019 में हैदराबाद में दिशा-बलात्कार मामले के चार अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद हुआ था। उन दिनों ट्विटर पर एक प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश में मारे गए, तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो और भी अच्छा हुआ।’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।’ अतीक के बेटे के एनकाउंटर को लेकर राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधारा के आधार पर भी प्रतिक्रिया दी है, पर हैदराबाद प्रकरण में ज्यादातर राजनीतिक नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटर का समर्थन किया था। जया बच्चन ने बलात्कार कांड के बाद राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच करना चाहिए और उस एनकाउंटर के बाद कहा-देर आयद, दुरुस्त आयद। कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें। यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस को तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए। हैदराबाद पुलिस को बधाइयाँ दी गईं।  इस टीम में शामिल पुलिस वालों के हाथों में लड़कियों ने राखी बाँधीं, टीका लगाया, उनपर फूल बरसाए।

क्या यही न्याय है?

ज्यादातर लोग इस बात पर जाना नहीं चाहते कि एनकाउंटर सही है या गलत। कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि मारे गए चारों अपराधी थे भी या नहीं। जनता नाराज है। उसके मन में तमाम पुराने अनुभवों का गुस्सा है। अपराधियों को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं की गई। क्या वजह है कि इसे जनता सही मान रही है? जनता को लगता है कि अपराधियों के मन में खौफ नहीं है। उन्हें सजा मिलती नहीं है। पर सरकारी हिंसा को जनता का इस कदर समर्थन भी कभी नहीं मिला। कम से कम पुलिस पर ऐसी पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई। जनता की हमदर्दी पुलिस के साथ यों भी नहीं होती। तब ऐसा अब क्यों हो रहा हैहैदराबाद की परिघटना के समर्थन के साथ विरोध भी हुआ था, पर समर्थन के मुकाबले वह हल्का था। वह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और अब तेलंगाना पुलिस पर दबाव है कि वह अपनी टीम के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाए, तब सवाल उठता है कि पुलिस वाले हीरो थे या विलेन? एनकाउंटर उन्होंने अपनी इच्छा से किया या ऊपर के आदेश थे? अदालत किसे पकड़ेगी? क्या अपराधियों का इलाज यही है? क्या हमें कस्टोडियल मौतें स्वीकार हैं? पुलिस की हिरासत में मरने वाले सभी अपराधी नहीं होते। निर्दोष भी होते हैं, पर पुलिस का कुछ नहीं होता। ऐसे मामलों में भी किसी को सजा नहीं मिलती।

न्याय से निराशा

पुलिस हिरासत में मौत का समर्थन जनता नहीं करती है। तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन भी वह नहीं करती है, पर उसके मन में यह बात गहराई से बैठ रही है कि अपराधी कानूनी शिकंजे से बाहर रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। वास्तव में बड़े अपराधी साधन सम्पन्न हैं। वे अपने साधनों की मदद से सुविधाएं हासिल कर लेते हैं। जेल जाते हैं, तो वहाँ भी उन्हें सुविधाएं मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति को न्याय किस तरह से मिले? उसके मन में बैठे अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है।