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Wednesday, October 11, 2023

अरुंधति रॉय पर मुकदमा चलाने की अनुमति


दिल्ली के उप-राज्यपाल विजय कुमार सक्सेना ने लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ तेरह साल पुराने एक मामले में मुकदमा चलाने को मंज़ूरी दे दी है। यह मामला 2010 के एक भाषण का है। अरुंधति रॉय के साथ-साथ जम्मू कश्मीर के एक प्रोफेसर शेख शौकत हुसैन पर भी मुकदमा चलाए जाने को मंज़ूरी दी गई है। नई दिल्ली स्थित मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत के आदेश के बाद इन दोनों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की गई थी।

शेख शौकत हुसैन ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर’ में इंटरनेशनल लॉ के प्रोफेसर रह चुके हैं। उप-राज्यपाल ने पाया कि दोनों के खिलाफ मामला चलाए जाने के लिए पर्याप्त आधार हैं। दोनों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा-153ए (धर्म, नस्ल, स्थान या भाषा के आधार पर दो समुदायों में नफरत पैदा करना, शांति भंग करना), 153बी (राष्ट्रीय अखंडता के विरुद्ध बातें करना) और 505 (भड़काऊ बयान देना) के तहत मामला दर्ज किया गया है।

दिल्ली में ही हुई एक सभा में इन दोनों ने कहा था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा। दोनों के खिलाफ आईपीसी की धारा-124ए (राजद्रोह) के तहत भी मुकदमा चलाया जाना था, लेकिन यह फिलहाल संभव नहीं, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि संवैधानिक पीठ की सुनवाई पूरी होने तक इस धारा से जुड़े सारे मामले रोक दिए जाएँ। इस मामले में दो अन्य अभियुक्त सैयद अली शाह गिलानी और दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक रहे अब्दुल रहमान गिलानी का निधन चुका है।

Wednesday, May 3, 2023

फ़ेक न्यूज़ का बढ़ता दायरा और नियमन की पेचीदा राहें

फेक न्यूज़ वैश्विक-समस्या है, केवल भारत की समस्या नहीं। इसे रोकने या बचने के समाधान वैश्विक और राष्ट्रीय-स्तर पर निकलेंगे। चूंकि यह एक ऐसी तकनीक से जुड़ी समस्या है, जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है, इसलिए भविष्य में इसके नए-नए रूप देखने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसका असर जीवन के सभी क्षेत्रों में है। भारत में हमें राजनीति और खासतौर से चुनाव के दौरान इसका असर देखने को मिलता है, इसलिए हमारा ध्यान उधार ज्यादा है। पर गलत जानकारियाँ, गलतफहमियाँ और दुष्प्रचार जैसी नकारात्मक गतिविधियाँ जीवन के हरेक क्षेत्र में संभव हैं। गलत जानकारियाँ देकर ठगी और अपराध भी इसके दायरे से बाहर नहीं हैं। भावनात्मक शोषण, मानसिक दोहन, गिरोहबंदी जैसी गतिविधियों के लिए भी विरूपित सूचनाओं का इस्तेमाल होता है। इन सब बातों के अलावा राष्ट्रीय-सुरक्षा के लिए खतरनाक हाइब्रिड वॉर का एक महत्वपूर्ण हथियार है सूचना।

तमाम बातें हो जाती हैं, पर उनके बारे में निष्कर्ष नहीं निकल पाते हैं। मसलन मीडिया हाउस द वायर और सोशल मीडिया कंपनी मेटा के बीच का विवाद सुलझा नहीं। इसमें दो राय नहीं कि फेक न्यूज़ पर रोक लगाई जानी चाहिए, पर कैसे? क्या होती है फेक न्यूज़ और उसपर रोक कौन लगाएगा? चूंकि सार्वजनिक कार्य-व्यवहार का नियमन शासन करता है, इसलिए पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। पर यह नियमन प्राइवेसी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों से भी मेल खाने वाला होना चाहिए, इसलिए कुछ जटिलताएं पेश आ रही हैं। सच को घुमा-फिराकर पेश करना भी एक मायने में झूठ है और इस लिहाज से हम अपने मीडिया पर नज़र डालें तो समझ में आने लगता है कि बड़ी संख्या में राजनेता और मीडियाकर्मी जानबूझकर या अनजाने में अर्ध-सत्य को फैलाते हैं। इस नई तकनीक ने ‘नरो वा कुंजरो वा’ की स्थिति पैदा कर रखी हैं।

Sunday, April 2, 2023

हेट स्पीच पर राष्ट्रीय-बहस भी होनी चाहिए


सुप्रीम कोर्ट में गत 29 मार्च को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने हेट स्पीच मामले पर सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि जिस दिन राजनीति और धर्म अलग हो जाएंगे, और नेता राजनीति में धर्म का उपयोग करना बंद कर देंगे, उसी दिन नफरत फैलाने वाले भाषण भी बंद हो जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि हम अपने हाल के फैसलों में भी कह चुके हैं कि पॉलिटिक्स को राजनीति के साथ मिलाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। वहीं, जस्टिस बीवी ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी की मिसाल देते हुए कहा, 'वाजपेयी और नेहरू को याद कीजिए, जिन्हें सुनने के लिए लोग दूर-दराज से एकत्र होते थे। हम कहां जा रहे हैं?' इसके पहले अदालत कह चुकी है कि खबरिया चैनलों के एंकर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से हेट स्पीच परोसते रहे हैं। खंडपीठ ने नफरती भाषण देने वाले लोगों पर सख्त आपत्ति जताते हुए सवाल किया है कि लोग खुद को काबू में क्यों नहीं रखते हैं? यह काबू शब्द भी विचारणीय है। हेट स्पीच क्या बेकाबू होकर होती है या जो बाला जाता है वह सोचा-समझा होता है?

किसकी हेट स्पीच?

सुप्रीम कोर्ट में इस प्रश्न पर चल रही बहस को गौर से सुनने की जरूरत है। इस बहस के साथ देश की राजनीति, प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न जुड़े हैं। ऐसे तमाम प्रश्नों पर हमें विचार करना चाहिए। केरल के पत्रकार शाहीन अब्दुल्ला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की है कि वह देशभर में हुई हेट स्पीच की घटनाओं की निष्पक्ष, विश्वसनीय और स्वतंत्र जांच के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करें। भारत में मुसलमानों को डराने-धमकाने के चलन को तुरंत रोका जाए। हालांकि, कोर्ट ने यह भी पूछा कि क्या मुसलमान ऐसे बयान नहीं दे रहे हैं?

और कुछ सवाल

अदालत की टिप्पणी पर केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र चुप नहीं है। केरल जैसे राज्य चुप थे, जब मई 2022 में पीएफआई (प्रतिबंधित संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) की एक रैली में हिंदुओं और ईसाइयों के खिलाफ नरसंहार के आह्वान किए गए थे। उन्होंने आश्चर्य जताया कि जब अदालत इस बारे में जानती थी, तो उसने स्वत: संज्ञान क्यों नहीं लिया। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि तमिलनाडु में डीएमके के एक प्रवक्ता ने कहा था, ‘जो भी पेरियार कहते थे, वह किया जाना चाहिए… यदि आप स्वतंत्रता चाहते हैं तो आपको सभी ब्राह्मणों की हत्या करनी होगी। इस पर जैसे ही जस्टिस जोसफ हँसे, मेहता ने कहा, ‘यह हँसी की बात नहीं है। मैं इसे हँसी में नहीं उड़ाऊँगा। इस आदमी के खिलाफ एफआईआर नहीं हुई है। इतना ही नहीं, वे एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रवक्ता बने हुए हैं।’

Friday, July 8, 2022

आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताओं के बीच संतुलन जरूरी है

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कई वर्षों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लगी हुई है। नौबत हत्याओं तक आ गई है। हाल में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और उसके पहले बीजेपी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा के वक्तव्यों के कारण विवाद खड़े हुए हैं। इन बयानों की सदाशयता या आपराधिक भावना पर विचार अदालतों में ही सम्भव है। इनपर जल्द से जल्द विचार होना चाहिए। पर हम चैनलों, गलियों और चौपालों में बैठी अदालतों में फैसले करना चाहते हैं, जो अनुचित है।

सामाजिक बहस ठंडे दिमाग से ही होनी चाहिए, उत्तेजना और तैश में नहीं। दो चार लोगों की वजह से किसी समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी जब बुनियादी बातों पर चोट लगती है तब समुदाय कुंठित महसूस करते हैं। ऐसा नहीं कि समूचा ईसाई समुदाय एक जैसा है या सारे हिन्दू एक हैं और सारे मुसलमान एक जैसा सोचते हैं। इनके भीतर कई प्रकार की धारणाएं हैं, पर इनके अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है। अपनी नेतागीरी चमकाने कुछ ठेकेदार भी सामने आते हैं।

पूरी बहस के साथ कुछ मानवीय मूल्य जुड़े हैं, जो आपस में टकराते हैं। महत्वपूर्ण क्या है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावनाओं का सम्मान? यह टकराव केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। और यह सब कम से कम दो दिशाओं में जा रहा है। इस्लामोफोबिया से शुरू होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। यानी मध्ययुगीन प्रवृत्तियों का टकराव। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सांविधानिक-सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं।

पश्चिमी देशों में जानबूझकर इस बहस को छेड़ा गया है। सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आता था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। पर वह बहस अब भी नहीं हो रही, जिसका वह ट्रिगर पॉइंट था। ऐसा ही 2015 में फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो में प्रकाशित कार्टूनों के कारण हुआ। 1988 में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर ऐसी ही नाराजगी पैदा हुई थी, जिसके कारण ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला खुमैनी ने उनकी मौत का फरमान जारी किया था।

क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे? या उस खुली बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जो कभी न कभी तो होगी। शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है?

Friday, September 3, 2021

जिस दौर में ‘झूठ का बोलबाला’ हो उस दौर में सच की लड़ाई कौन और कैसे लड़ेगा?


सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि मीडिया का एक वर्ग देश को बदनाम करने वाली खबरों को साम्प्रदायिक रंग देता है। देश में हर चीज इस वर्ग को साम्प्रदायिकता के पहलू से नजर आती है। इससे देश की छवि खराब हो रही है। अदालत ने यह भी पूछा है कि क्या केंद्र ने निजी चैनलों के नियमन की कभी कोशिश भी की है? इसके पहले गत 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सत्य को ताकतवर बनाए बगैर लोकतंत्र की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

विचार-अभिव्यक्ति और सूचना तथा समाचार से जुड़ी इन बातों का जवाब नागरिकों को नहीं व्यवस्था को देना है। सुप्रीम कोर्ट भी उसी व्यवस्था का अंग है। सरकार के तीनों अंगों में उसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सवाल है कि जिस देश में चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लम्बित हों, वहाँ ऊँची सैद्धांतिक बातों का मतलब क्या है। जब झूठ बोलने से व्यक्ति को लाभ मिलता हो, तो वह सच की लड़ाई कैसे लड़ेगा?  अदालतों को सवाल उठाने के साथ-साथ रास्ते भी बताने चाहिए। बहरहाल यह बहस लम्बी है और इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।

साम्प्रदायिकता का पानी

प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और एएस बोपन्ना की पीठ फर्जी खबरों के प्रसारण पर रोक के लिए जमीयत उलमा-ए-हिंद की याचिका सहित कई याचिकाओं पर गत 2 सितम्बर को सुनवाई कर रही थी। जमीयत ने अपनी याचिका में निज़ामुद्दीन स्थित मरकज़ में पिछले साल धार्मिक सभा से संबंधित फर्जी खबरें फैलाने से रोकने और इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कड़ी कार्रवाई करने का केंद्र को निर्देश देने का अनुरोध किया है।

अदालत ने वैैब पोर्टलों और यूट्यूब सहित इंटरनेट मीडिया पर परोसी जाने वाली फर्जी खबरों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वे केवल शक्तिशाली आवाजों को सुनते हैं। किसी मामले में ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब से जवाब मांगा जाए, तो वह जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेते हैं। न्यायाधीशों, संस्थानों के खिलाफ बिना किसी जवाबदेही के कई चीजें लिखी जाती हैं।

उच्चतम न्यायालय इंटरनेट मीडिया तथा वेब पोर्टल समेत ऑनलाइन सामग्री के नियमन के लिए हाल में लागू सूचना प्रौद्योगिकी नियमों की वैधता के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित याचिकाओं को सर्वोच्च अदालत में स्थानांतरित करने की केंद्र की याचिका पर छह हफ्ते बाद सुनवाई करने के लिए भी राजी हो गया है।

मीडिया की जवाबदेही

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा, मुझे यह नहीं मालूम कि ये इंटरनेट मीडिया, ट्विटर और फेसबुक आम लोगों को कहां जवाब देतेे हैं। वे कभी जवाब नहीं देते। कोई जवाबदेही नहीं है। वे खराब लिखते हैं और जवाब नहीं देते और कहते हैं कि यह उनका अधिकार है। वैब पोर्टल और यूट्यूब चैनलों पर फर्जी खबरों तथा छींटाकशी पर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर आप यूट्यूब देखेंगे तो पाएंगे कि कैसे फर्जी खबरें आसानी से प्रसारित की जा रही हैं और कोई भी यूट्यूब पर चैनल शुरू कर सकता है। याचिका दायर करने वाले एक पक्ष का ओर से पेश हुए वकील संजय हेगड़े ने कहा कि ट्विटर ने उनके अकाउंट को निलम्बित कर दिया था। मैंने इस सिलसिले में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है।

Sunday, July 18, 2021

राजद्रोह बनाम कानूनी-अराजकता

लोकतंत्र के कुछ बुनियादी आधारों को लेकर देश में कुछ समय से जो बहस चल रही है, उससे जुड़े दो मामले पिछले हफ्ते अदालत में उठे। सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने हैरत जताई कि अब भी आईटी कानून की धारा 66ए के तहत लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं, जबकि इसे सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2015 को असंवैधानिक घोषित किया था। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ अदालत में यह मामला लेकर गई थी। दो साल पहले इस संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि इस कानून के रद्द होने के बाद कम से कम 22 लोगों पर इसके तहत मुकदमे चलाए गए हैं। अदालत की हैरानी के बाद अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा है कि वे थानों को 66ए के तहत मामले दर्ज न करने के निर्देश दें। अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में कानूनों के अनुपालन के नाम पर कैसी अराजकता है।

राजद्रोह कानून

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा दूसरा मामला राजद्रोह कानून का है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए किया था, तो क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे जारी रखने की जरूरत है? अदालत में एक रिटायर मेजर जनरल ने धारा-124ए(राजद्रोह) कानून के वैधानिकता को चुनौती दी है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाले पीठ ने इस याचिका के परीक्षण का फैसला किया है। अदालत ने कहा कि सरकार कई कानूनों को खत्म कर चुकी है। इसे क्यों नहीं देखा गया? अदालत ने यह भी कहा कि यह फैसला नहीं है, हमने जो सोचा है उसका संकेत है।

पिछले दो महीनों में राजद्रोह कानून को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे तार्किक परिणति तक पहुँचना चाहिए। मसला कानून को खत्म करने से ज्यादा इसके दुरुपयोग से जुड़ा है। धारा66ए निरस्त है, फिर भी अधिकारी उसका इस्तेमाल करते हैं। लोगों को गिरफ्तार किया जाता है। कोई जवाबदेही नहीं। कोई पुलिस ऑफिसर गांवों के दूर दराज इलाकों में किसी शख्स के खिलाफ राजद्रोह कानून का आसानी से इस्तेमाल कर सकता है। जुआरियों पर राजद्रोह का आरोप।

इसी दौरान अदालत में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से अलग से अर्जी दाखिल की गई है, जिसमें राजद्रोह कानून के प्रावधान को चुनौती दी गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अर्जी पर भी सुनवाई के लिए सहमति दे दी। अटॉर्नी जनरल वेणुगोपाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच में भी राजद्रोह कानून को चुनौती वाली याचिका विचाराधीन है। दो पत्रकारों की उस याचिका पर 27 जुलाई को सुनवाई होनी है।

राजद्रोह और देशद्रोह

इस विषय को व्यावहारिकता की रोशनी में देखना चाहिए। राजद्रोह और देशद्रोह के अंतर को भी समझने की जरूरत है। सरकार या सरकारी नीतियों के प्रति असंतोष व्यक्त करने की सीमा-रेखा भी तय होनी चाहिए। इस साल 26 जनवरी को लालकिले पर जो हुआ, क्या उसे स्वस्थ लोकतांत्रिक-विरोध के दायरे में रखा जाएगा? वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के एक मामले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने 3 जून को कहा था कि पत्रकारों को राजद्रोह के दंडात्मक प्रावधानों से तबतक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, जबतक कि उनकी खबर से हिंसा भड़कना या सार्वजनिक शांति भंग होना साबित न हुआ हो।

Sunday, October 11, 2020

आज़ादी और उसकी मर्यादा-रेखा


इस हफ्ते देश में अचानक अभिव्यक्ति की आजादी और उससे जुड़ी बातें हवा में हैं। चैनलों के बीच टीआरपी की लड़ाई इसके केंद्र में है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी और एक फैसले ने ध्यान खींचा है। अदालत ने गुरुवार को अपनी एक टिप्पणी में कहा कि हाल के समय में बोलने की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरुपयोग हुआ है। मार्च के महीने में लॉकआउट के वक्त तबलीगी जमात के मामले में मीडिया की कवरेज को लेकर दायर हलफनामे को ‘जवाब देने से बचने वाला’ और ‘निर्लज्ज’ बताते हुए न्यायालय ने केंद्र सरकार को आड़े हाथ लिया।

इसी हफ्ते अदालत ने शाहीनबाग आंदोलन से जुड़े एक मामले पर भी अपना फैसला सुनाया है। इन दोनों मामलों को मिलाकर पढ़ें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आंदोलन की स्वतंत्रता से जुड़ी कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। भारतीय संविधान नागरिक को स्वतंत्रताएं प्रदान करता है, तो उनपर कुछ विवेक सम्मत पाबंदियाँ भी लगाता है। हम अक्सर अपनी आजादी का सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। समय आ गया है कि अब हम स्वतंत्रता के साथ-साथ उन मर्यादाओं पर भी विचार करें, जिनके बगैर स्वतंत्रताओं का कोई अर्थ नहीं है। स्वतंत्रता और उसपर लागू होने वाली पाबंदियों के संतुलन के बारे में विचार करने की घड़ी अब आ रही है। खासतौर से मीडिया में इस वक्त जो आपसी मारकाट चल रही है, उसे देखते हुए मर्यादाओं और संतुलन के बारे में सोचना ही पड़ेगा। यह मारकाट किसी वैचारिक आधार पर न होकर शुद्ध कारोबारी आधार पर है और पत्रकार अपने मालिकों-प्रबंधकों के इशारे पर कठपुतली जैसा व्यवहार कर रहे हैं, इसलिए इस पूरे व्यवसाय के स्वामित्व से जुड़े प्रश्नों पर भी हमें सोचना चाहिए। 

Thursday, May 9, 2019

कैसे रुकेगा,‘तू चोर, तू चोर!’


राजनीतिक बयानबाज़ी मर्यादा रेखाओं को पार कर रही है। राफेल विमान के सौदे से जुड़े एक आदेश के संदर्भ में राहुल गांधी को अपने बयान ‘चौकीदार चोर है’ पर सुप्रीम कोर्ट से बिना किसी शर्त के माफी माँगनी पड़ी है। इस आशय का हलफनामा दाखिल करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि अब अवमानना के इस मामले को बंद कर देना चाहिए। अदालत राफेल मामले पर अपने 14 दिसम्बर, 2019 के आदेश पर पुनर्विचार की अर्जी पर भी विचार कर रही है। अब 10 मई को पता लगेगा कि अदालत का रुख क्या है। अपने माफीनामे में राहुल ने कहा है कि अदालत का अपमान करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। भूल से यह गलती हो गई।

इस चुनाव में कांग्रेस ने ‘चौकीदार चोर है’ को अपना प्रमुख राजनीतिक नारा बनाया है। यह नारा राफेल सौदे से जोड़कर कांग्रेस ने दिया है। अब बीजेपी ने इसपर पलटवार करते हुए ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया है। चुनाव के अब केवल दो दौर शेष हैं। इधर झारखंड की एक रैली में मोदी ने राहुल गांधी को संबोधित करते हुए कहा, 'आपके पिताजी को आपके राज-दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था, लेकिन देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में उनका जीवन-काल समाप्त हो गया।' कांग्रेस के नारे 'चौकीदार चोर है' के जवाब में यह सीधी चोट है।

सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी की माफी का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी 'चौकीदार चोर है' के नारे से हट गई है। राहुल के वकील अभिषेक सिंघवी का कहना है कि यह पार्टी का राजनीतिक नारा है। और पार्टी उसपर कायम है। यह बात उन्होंने हलफनामे में भी कही है। पर अब बीजेपी ने जब राजीव गांधी को भी घेरे में ले लिया है, तब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या दिवंगत व्यक्ति को लेकर इस प्रकार की राजनीति उचित है? बीजेपी का कहना है कि हम केवल वास्तविक स्थिति को बयान कर रहे हैं, इसमें गलत क्या है?

Monday, November 20, 2017

खतरनाक हैं अभिव्यक्ति पर हमले

संजय लीला भंसाली की पद्मावती पहली फिल्म नहीं है, जो विवाद का विषय बनी हो. इस फिल्म का राजपूत संगठन विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म को बनाया गया है. फिल्मों, साहित्यिक कृतियों, नाटकों और अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों का विरोध यदि शब्दों और विचारों तक सीमित रहे तो उसे स्वीकार किया जा सकता है. पर यदि विरोध में हिंसा का तत्व शामिल हो जाए, तो सोचना पड़ता है कि हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं. विरोध के इस तरीके के कारण फिल्म की ऐतिहासिकता का सवाल पीछे चला गया है. चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारे तौर-तरीके मध्य युगीन होते जा रहे हैं. फ्रांस की कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर हमला गलत था, तो इस हमले की धमकी भी गलत है. 

Friday, September 8, 2017

इस कट्टरता का स्रोत कहाँ है?


पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के कारण देश के उदारमना लोगों के मन में दहशत है। विचार अभिव्यक्ति के सामने खड़े खतरे नजर आने लगे हैं। पिछले तीन साल से चल रही असहिष्णु राजनीति की बहस ने फिर से जोर पकड़ लिया है। हत्या के फौरन बाद मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में खासतौर से दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। दूसरी ओर कुछ लोग सोशल मीडिया पर अभद्र तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं।  

हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी बुनियाद में उदारता को होना चाहिए। कट्टरपंथी समाज आधुनिक नहीं हो सकता। सवाल केवल गौरी लंकेश की हत्या का नहीं है। हमारे बौद्धिक विमर्श की दिशा क्या है? इस हत्या के बाद हमारी साख और घटी है। सवाल यह है कि क्या यह भारतीय जनता पार्टी और उसके हिंदुत्व एजेंडा की देन है? क्या यह हत्या कर्नाटक में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जुड़ी तो नहीं है?  कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। वह इस हत्याकांड का पर्दाफाश क्यों नहीं करती?

Thursday, March 26, 2015

अभिव्यक्ति पर बहस तो अब शुरू होगी

सुप्रीम कोर्ट के 66ए के बाबत फैसले के बाद यह धारा तो खत्म हो गई, पर इस विषय पर विमर्श की वह प्रक्रिया शुरू हुई है जो इसे तार्किक परिणति तक ले जाएगी। यह बहस खत्म नहीं अब शुरू हुई है। धारा 66ए के खत्म होने का मतलब यह नहीं कि किसी को कुछ भी लिख देने का लाइसेंस मिल गया है। ऐसा सम्भव भी नहीं। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाएं अच्छी तरह परिभाषित हैं। यह संवैधानिक व्यवस्था सोशल मीडिया पर भी लागू होगी। पर उसके नियमन की जरूरत है। केंद्र सरकार ने इस मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए इससे हाथ खींच लिया था। उसकी जिम्मेदारी है कि वह अब नियमों को स्पष्ट करने में पहल करे।

Sunday, March 8, 2015

अनुचित है फिल्म पर रोक लगाना

दिल्ली रेप कांड पर लेज़्ली उडविन की डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज़ डॉटर' में दिखाई गई सामग्री, उसकी उपयोगिता, निरर्थकता और दुष्प्रभाव को लेकर तमाम तरह की धारणाएं हैं। उनपर विमर्श किया जाना चाहिए, पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या इसके प्रदर्शन पर रोक लगनी चाहिए? वह भी इस जमाने में जब इंटरनेट पर किसी चीज के वायरल होने में सेकंड भी नहीं लगते हैं। इस फिल्म के साथ भी यह हुआ। सरकारी पाबंदी के बावजूद बीबीसी ने इस फिल्म को जारी कर दिया और देखते ही देखते यह फिल्म इंटरनेट पर जारी हो गई और लाखों लोगों ने इसे देख लिया। लोग अब पूछ रहे हैं कि इसमें ऐसा क्या था जिसके कारण इसपर पाबंदी लगाई गई। बहरहाल सरकार अपने रुख पर कायम है और यूट्यूब के प्रमुख यूजर्स के एकाउंट से फिल्म को हटवा दिया गया है। पर न जाने कितने लोगों ने इस फिल्म को डाउनलोड कर लिया है और वे यूट्यूब और इसी किस्म की दूसरी साइट्स पर इस फिल्म को अपलोड कर रहे हैं।
फिल्म को लेकर कई सवाल एक साथ उठे हैं जो इस प्रकार हैं:-
· क्या यह फिल्म भारत की छवि को खराब करती है?
· क्या इसे तैयार करते वक्त भारतीय जेल नियमों का पालन किया गया?· क्या बलात्कार के दोषी मुकेश सिंह को मंच देना उचित था? यह मामला अभी न्यायालय के विचाराधीन है। ऐसे में इसका प्रदर्शन अदालती निर्णय को प्रभावित कर सकता है।
· इस फिल्म में पीड़िता की पहचान की गई है। नियमानुसार और नैतिकता के तकाजे से भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था।· यह फिल्म व्यावसायिक लाभ के लिए नहीं बनाई गई थी, पर इसका व्यावसायिक लाभ लिया जा रहा है।
· यह भी लगता है कि इस फिल्म के प्रदर्शन के विरोध के पीछे दो मीडिया हाउसों की प्रतिस्पर्धा है। एक मीडिया हाउस इसका प्रसारण करने जा रहा था कि दूसरे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया और सरकार उसके दबाव में आ गई। कुछ मीडिया हाउसों की भूमिका विस्मयकारी है। वेअभिव्यक्ति पर रोक वाले पक्ष को देख ही नहीं पा रहे हैं।

Monday, January 12, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावना की रक्षा?

शार्ली एब्दो हत्याकांड के विरोध में रविवार को पेरिस में जबर्दस्त रैली हुई। पूरा यूरोप इस घटना के बाद उठ खड़ा हुआ है, पर इस घटना ने एक नई बहस को जन्म भी दिया है। आतंकवाद पर चर्चा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर केंद्रित हो गई है। दुनियाभर के अखबार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर विचार-विमर्श में लगे हैं। भारत में यह सवाल उठ रहा है कि शार्ली एब्दो जैसी स्वतंत्रता क्या हम अपने कार्टूनिस्टों को दे सकते हैं? मकबूल फिदा हुसेन को निर्वसन में रहने को किसने मजबूर किया? संयोग से शार्ली एब्दो के एक कार्टूनिस्ट जॉर्जेस वोलिंस्की यहूदी थे। इसरायली अखबार 'हारेट्ज़' में प्रकाशित लेख में वहाँ के कलाकार इदो अमीन ने लिखा है कि शार्ली एब्दो का प्रकाशन इसरायल में सम्भव नहीं था, क्योंकि वहाँ के कानून धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के खिलाफ हैं। अमीन ने लिखा है,
Georges Wolinski, the leading caricaturist at Charlie Hebdo, was among those murdered in the terror attacks in Paris last week. He was one of my cultural heroes when I was starting out.
Neither Superman, Charlie Brown, Asterix nor "The Adventures of Tintin" spoke to me the way Wolinski’s black-and-white sketches did — with his distorted, exaggerated figures openly revealing their dark urges. This half-Polish, half-Tunisian Jew possessed an anarchist spirit that left no sacred cow standing.
Every community was insulted by his brush. His position toward readers was this: Does it bother you? So don’t read it! And if you want to ridicule me back, I won’t sue you.”
After the terrible massacre at Charlie Hebdo and the murders that followed at the Jewish market, concerned people have spoken out over the fate of France’s Jews. Don’t they see the time has come to move to Israel, as Prime Minister Benjamin Netanyahu told them after the murder at the Toulouse school?
And the sooner the better! But if Wolinski had moved to Israel and opened a Charlie weekly here, he would have had a problem.In France, freedom of speech is considered a universal right, while in Israel such a weekly would not be able to exist because of the Israeli law that bans “offending religious sensibilities.” During my years as a cartoonist I have had to become familiar with the laws restricting the Israeli press.
पूरा लेख यहाँ पढ़ें 

इस सिलसिले में कुछ और लेख पठनीय हैं।

पाकिस्तानी अखबार एक्प्रेस ट्रिब्यून में आकार पटेल का लेख Should the right to speech be absolute?

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नायनन का लेख A right to offend


जनसत्ता में प्रकाशित

इस सिलसिले में मनीषा सेठी की एक किताब काफ्कालैंड इन दिनों आई है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में नहीं है, पर वह आतंकवाद का पड़ताल से जुड़ी है। मनीषा सेठी से बीबीसी हिन्दी रेडियो की बातचीत को सुनना रोचक होगा। यहाँ सुने उनसे बातचीत

Sunday, January 11, 2015

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं तो कोई भी स्वतंत्रता सम्भव नहीं

पेरिस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के माने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है। भारत में हाल के वर्षों में असीम त्रिवेदी के मामले में और फिर उसके बाद आम्बेडकर के कार्टून को लेकर यह सवाल उठा था। कुछ लोगों की मान्यता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। उसकी सीमा होनी चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या यह सीमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही लागू होती है? क्या धार्मिक या आस्था की स्वतंत्रता की सीमा भी नहीं होनी चाहिए? हाल में सिडनी के एक कैफे और पाकिस्तान के पेशावर में बच्चों की हत्या से जुड़े सवाल भी हमें इसी दिशा में लाते हैं? सवाल है कितनी आजादी? और किसकी आज़ादी?

Friday, December 19, 2014

इंटरनेट की स्वतंत्रता और उस पर नियंत्रण का सवाल


हाल में बेंगलुरु में आईएस के ट्वीट हैंडलर मेहदी विश्वास की गिरफ्तारी के बाद यह बहस आगे बढ़ी है कि  इंटरनेट पर विचारों और सूचना के आदान-प्रदान की आजादी किस हद तक होनी चाहिए। इस बात की जानकारी मिल रही है कि इराक में बाकायदा लड़ाई लड़ रहा आईएस सोशल मीडिया का भरपूर इस्कतेमाल कर रहा है। एक ओर लोकतांत्रिक आजादी का सवाल है और दूसरी ओर आतंकवादी और यहाँ तक कि समुद्री डाकू भी इसका सहारा ले रहे हैं। 

Tuesday, August 20, 2013

लाइसेंसी पत्रकारिता सम्भव नहीं

पत्रकारिता से जुड़ी वैबसाइट सैंस सैरिफ ने अपने पाठकों से इस विषय पर राय माँगी है कि पत्रकारों के चयन के लिए क्या कोई राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा होनी चाहिए? और यह भी क्या कोई लाइसेंस होना चाहिए जैसा वकालत या डॉक्टरी वगैरह का होता है? रोचक बात यह है कि इस पोल के जवाब में लगभग बराबरी की संख्या में पक्ष और विपक्ष में वोट पड़े हैं। कुछ समय पहले जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी पत्रकारिता से जुड़ने के एक बुनियादी शैक्षिक योग्यता की सलाह दी थी। बड़ी संख्या में पत्रकार भी मानते हैं कि योग्यता होनी चाहिए। इसे बड़ी संख्या कहने के बजाय लगभग बहुमत कहना चाहिए। किसी को क्यों आपत्ति होगी? हाँ आपत्ति उस तरीके और कारण पर होनी चाहिए जो इस माँग के पीछे है। बहरहाल आप अपनी राय बनाएं उससे पहले इस बात की पृष्ठभूमि तक भी आपको जाना चाहिए।

Tuesday, May 15, 2012

पाठ्य पुस्तकों में कार्टून क्या गलत हैं?


कार्टून विवाद हालांकि एक या दो रोज की खबर बनकर रह गया। इसकी बारीकियों पर जाने की कोशिश ज्यादा लोगों ने नहीं की। मुझे इधर-उधर जो भी पढ़ने को मिल रहा है उसके आधार पर कुछ बिन्दु उभरते हैं जो इस प्रकार हैं:-

  • दलित राजनीति से जुड़े एक मामूली से संगठन ने इस सवाल को उठाया। महाराष्ट्र के इस संगठन को इसके बहाने  अपने आप को आगे लाने का मौका नज़र आया। सुहास पालसीकर के घर पर तोड़फोड़ के पीछे भी इस संगठन की मंशा अपने को बढ़ाने की है। 
  • संसद में यह सवाल उठने के पहले मानव संसाधन मंत्री के साथ कुछ सांसदों ने चर्चा की थी। कार्टून को हटाने का फैसला भी हो गया। 
  • यह भी समझ में आता है कि सांसदों का एक ग्रुप बड़े दबाव समूह के रूप में उभर कर आया है। सरकार और विपक्ष से जुड़े बहुसंख्यक सांसद राजनीति लेकर जनता के बढ़ते रोष से परेशान हैं। अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान यह रोष मुखर होकर सामने आया। 
  • सरकार केवल आम्बेडकर वाले कार्टून को ही नहीं हटा रही है बल्कि किसी भी प्रकार के कार्टून को पाठ्य पुस्तकों से हटाना चाहती है। 
  • सवाल यह है कि क्या किशोर मन को राजनीति की बारीकियाँ समझ में नहीं आएंगी। या उसे यह सब नही बताया जाना चाहिए। उसके मन में क्या राजनीति के प्रति अनादर का भाव है? 

Wednesday, November 3, 2010

मीडिया और राष्ट्र-राज्य


इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के मानवाधिकारवादी ल्यू श्याओबो को देने की घोषणा की गई है। इसे लेकर चीन सरकार ने गहरी नाराज़गी ज़ाहिर की है। चीन के साथ अपनी मैत्री को साबित करने के लिए पाकिस्तान ने भी इस पुरस्कार पर हैरत और परेशानी का इज़हार किया है। नोबेल शांति पुरस्कार पर आमतौर पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ा रहता है, पर वह पश्चिम का सम्मानित पुरस्कार है। यह भी सच है कि मानवाधिकारों को लेकर जो दिलचस्पी पश्चिमी देशों में है, वह हमारे जैसे पूर्वी देशों में नहीं है। 

एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं की जो रपटें पाकिस्तान, चीन या अफ्रीकी देशों के खिलाफ जाती हैं हम उनपर विस्तार से चर्चा करते हैं, पर जब हमारी व्यवस्था का जिक्र होता है तो हम उसे पश्चिमी भेदभाव के रूप में देखते हैं। यह भी विडंबना है कि इन दिनों मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ज़रूरत एक ओर धुर वामपंथी कार्यकर्ता महसूस कर रहे हैं वहीं कश्मीर के गिलानी जैसे नेता महसूस करते हैं, जिनकी लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बारे में एक जैसी धारणा नहीं है। पर हम इस अधिकार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। यह अधिकार है तो इसे व्यावहारिक रूप से लागू भी होना चाहिए। 

अरुंधती रॉय ने कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा। ऐसा उन्होंने पहली बार नहीं कहा। वे इसके पहले भी यह बात कह चुकी हैं। महत्वपूर्ण था उनका दिल्ली की एक सभा में ऐसा कहना। उस सभा में सैयद अली शाह गिलानी भी बोले थे। उनके अलावा पूर्वोत्तर के कुछ राजनैतिक कार्यकर्ता इस सभा में थे। देश की राजधानी में भारतीय राष्ट्र राज्य के बारे में खुलकर ऐसी चर्चा ने बड़ी संख्या में लोगों को मर्माहत किया, सदमा पहुँचाया। पहले रोज़ मीडिया में जब इसकी खबरें छपीं तब तक यह सनसनीखेज़ खबर भर थी। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने इस सभा में विचार व्यक्त करने वालों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की माँग की तब अचानक लोगों को लगा कि यह तो देशद्रोह हो गया है। 

अरुंधती रॉय के वक्तव्य से जुड़े अनेक मसले हैं, जिनपर मीडियाकर्मी होने के नाते हमें ध्यान देना चाहिए। उन्होंने जो कहा वह देशद्रोह था या नहीं? दूसरे इस प्रकार के संवेदनशील मसलों को किस तरह रिपोर्ट किया जाय? तीसरे कभी ऐसा मौका आ पड़े जब हमें इंसानियत और राष्ट्रप्रेम के बीच चुनाव करना हो तो क्या करें? मीडिया के मार्फत हमारा समाज विचार-विमर्श भी करता है और जानकारी भी हासिल करता है, इसलिए हमारा फर्ज़ होता है कि इसके मार्फत हम पूरी कोशिश करें कि दोनों काम वस्तुगत(ऑब्जेक्टिवली) पूरे हों। हमारा कोई भी दृष्टिकोण हो दूसरे सभी दृष्टिकोणों को सामने रखें। यह बेहद मुश्किल काम है।

हमारे संविधान का अनुच्छेद 19(1) ए नागरिकों को अपनी बात कहने का अधिकार देता है। इस अधिकार पर कुछ पाबंदियाँ भी हैं। अनुच्छेद 19(2) ए में कहा गया है कि अनुच्छेद 19(1)ए के होते हुए भी भारत की एकता और अखंडता, देश की सुरक्षा, वैदेशिक रिश्तों, लोक व्यवस्था,  मानहानि, अश्लीलता आदि के मद्देनज़र इस अधिकार को नियंत्रित तथा सीमित किया जा सकता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 121ए तथा 124ए के अंतर्गत देशद्रोह दंडनीय अपराध हैं। 124ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है। इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है। मोटे तौर पर राष्ट्र-राज्य से असहमति को देशद्रोह नहीं मानना चाहिए। 

सन 1922 में अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी और शंकरलाल घेलाभाई बैंकर पर ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित तीन लेखों को लेकर आईपीसी की धारा 124 ए के तहत मुकदमा चलाया। हालांकि महात्मा गांधी और बैंकर ने शुरू में ही आरोप को स्वाकार कर लिया, इसलिए मुकदमे को आगे बढ़ाने की ज़रूरत नहीं थी, पर सरकारी एडवोकेट जनरल सर स्ट्रैंगमैन का आग्रह था कि कार्यवाही पूरी की जाय। इस मामले में गांधी जी ने इस कानून के बारे जो टिप्पणी की उसे भी पढ़ना चाहिए। इसका एक अंश इस प्रकार है- Section 124 A, under which I am happily charged, is perhaps the prince among the political sections of the Indian Penal Code designed to suppress the liberty of the citizen. Affection cannot be manufactured or regulated by law. If one has no affection for a person or system, one should be free to give the fullest expression to his disaffection, so long as he does not contemplate, promote, or incite to violence. But the section under which mere promotion of disaffection is a crime. I have studied some of the cases tried under it; I know that some of the most loved of India’s patriots have been convicted under it.

बीसवीं सदी में अभिव्यक्ति के अधिकार को लेकर काफी विचार-विमर्श हुआ। खासतौर से अमेरिका के वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक अभियानों के मद्देनज़र। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान देश-द्रोह और देश-भक्ति जैसे जुम्ले ज्यादा ज़ोरदार ढंग से उछले। बीबीसी तक पर कई बार संदेह किया गया। वियतनाम और इराक में कार्रवाई के दौरान अमेरिका में सरकार-विरोधी रैलियाँ निकलतीं रहीं। अच्छा हुआ कि अरुंधती रॉय के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई। इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत ही हुई है। कमज़ोर नहीं हुई।  

अरुंधती रॉय के विचार-व्यक्त करने के अधिकार का समर्थन एक बात है और उनके विचारों का समर्थन दूसरी बात है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है या नहीं इस बारे में कम से कम उन्हें विशेषज्ञ नहीं माना जा सकता। कश्मीर पर कोई भी दृष्टिकोण तब तक अधूरा है, जब तक उसके सारे पहलू साफ न हों। कश्मीरी पंडित डोगरे और लद्दाख के बौद्ध गिलानी साहब के इस्लामी एजेंडा में फिट नहीं होते। कश्मीर की स्वतंत्रता एक अलग मसला है और उसे पाकिस्तान में शामिल कराने की कामना दूसरा मसला है। अरुंधती रॉय की भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में तमाम धारणाओं से सहमति और असहमति व्यक्त की जा सकती है। कश्मीर पर वे क्या चाहतीं हैं, यह बात साफ नहीं है। इस मामले में गिलानी और कश्मीर के दूसरे अलगाववादियों के बीच भी मतभेद हैं। 

मुम्बई की आदर्श हाउसिंग सोसायटी के घपले, कॉमनवैल्थ गेम्स के घोटालों और उसके पहले शेयर बाज़ार से लेकर हवाला तक के घोटालों को देखें तो हमें इस व्यवस्था में तमाम खोट नज़र आएंगे। हैरत इस बात पर है कि हमारा मीडिया इन मामलों की तह तक नहीं जाता। इसकी एक वज़ह यह है कि मीडिया का लक्ष्य बिजनेस है जन-कल्याण नहीं। राष्ट्रवाद के भावनात्मक पहलू का फायदा तो वह उठाना चाहता है, पर राष्ट्रीय कल्याण के व्यावहारिक मसलों की तफतीश नहीं करना चाहता।

इस लेख की शुरुआत मैने चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता ल्यू श्याओबो से की थी। चीन के संविधान के अनुच्छेद 35 के तहत वहाँ के नागरिकों को अभिव्यक्ति, अखबार निकालने, सभा करने, संगठन बनाने और आंदोलन करने तक की आज़ादी है। यह आज़ादी काग़ज़ी है। हमारे संविधान की आज़ादियाँ अपेक्षाकृत कम काग़ज़ी हैं, पर पूरी वे भी नहीं हैं। हमारा आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते पूरी तरह लागू होना चाहिए। इसके लिए कम से कम अपनी बात कहने का हक तो होना चाहिए। अपने देश से प्रेम इसलिए होना चाहिए कि हम इसमें रहने वाले लोगों को न्यायपूर्ण व्यवस्था देना चाहते हैं, उनकी खुशहाली चाहते हैं। देश-प्रेम और मनुष्य-मात्र से प्रेम के बीच कोई टकराव नहीं होता।    





इस पूरे मामले में व्यक्ति के अधिकार का मसला मेरे विचार से महत्वपूर्ण है। अरुंधती रॉय के समग्र राजनैतिक विचारों में कुछ बातें आकर्षित करती हैं और बहुत सी नहीं करतीं। 

गांधी जी के मुकदमे का विवरण भी नीचे पढ़ें। उसके नीचे मैने केदारनाथ बनाम बिहार राज्य वाले केस का एक लिंक भी दिया है।


  



Famous Speeches Of Gandhiji
Statement In The Great Trial Of 1922
March 18, 1922

[The historical trial of Mahatma Gandhi and Shri Shankarlal Ghelabhai Banker, editor, and printer and publisher respectively of Young India, on charges under Section 124 A of the Indian Penal Code, was held on Saturday, 18th March 1922, before Mr. C. N. Broomfield, I. C. S., District and Sessions Judge, Ahmedabad.]

Sir J. T. Strangman, Advocate-General, with Rao Bahadur Girdharlal Uttamram, Public Prosecutor of Ahmedabad, appeared for the Crown. Mr. A. C. Wild, Remembrance of Legal Affairs, was also present. Mahatma Gandhi and Shri Shankarlal Banker were undefended.

Among the members of the public who were present on the occasion were : Kasturba Gandhi, Sarojini Naidu, Pandit M. M. Malaviya, Shri N. C. Kelkar, Smt. J. B. Petit, and Smt. Anasuyaben Sarabhai.

The Judge, who took his seat at 12 noon, said that there was slight mistake in the charges were then read out by the Registrar. These charges were of “bringing or attempting to excite disaffection towards His Majesty’s Government established by law in British India, and thereby committing offences punishable under Section 124 A of the Indian Penal Code,” the offences being in three articles published in Young India of September 29 and December 15 of 1921, and February 23 of 1922. The offending articles were then read out : first of them was, “Tampering with Loyalty”; and second, “The Puzzle and its Solution”, and the last was “Shaking the Manes”.

The Judge said that the law required that the charges should not be read out but explained. In this case it would not be necessary for him to say much by way of explanation. The charge in each case was that of bringing or attempting to excite into hatred or contempt or exciting or attempting to excite disaffection towards His Majesty’s Government, established by law in British India. Both the accused were charged with the three offences under Section 124 A, contained in the articles read out, written by Mahatma Gandhi and printed by Shri Banker.

The charges having been read out, the Judge called upon the accused to plead to the charges. He asked Gandhiji whether he pleaded guilty or claimed to be tried.

Gandhiji said : “I plead guilty to all the charges. I observe that the King’s name has been omitted from the charge, and it has been properly omitted.”]

The Judge asked Shri banker the same question and he too readily pleaded guilty.

The Judge wished to give his verdict immediately after Gandhiji had pleaded guilty, but Sir Strangman insisted that the procedure should be carried out in full. The Advocate-General requested the Judge to take into account “the occurrences in Bombay, Malabar and Chauri Chaura, leading to rioting and murder”. He admitted, indeed, that “in these articles you find that non-violence is insisted upon as an item of the campaign and of the creed,” but the added “of what value is it to insist on non-violence, if incessantly you preach disaffection towards the Government and hold it up as a treacherous Government, and if you openly and deliberately seek to instigate others to overthrow it?” These were the circumstances which he asked the Judge to take into account in passing sentence on the accused.

As regards Shri Banker, the second accused, the offence was lesser. He did the publication but did not write. Sir Strangman’s instructions were that Shri Banker was a man of means and he requested the court to impose a substantial fine in addition to such term of imprisonment as might be inflicted upon.

Court : Mr. Gandhi, do you wish to make any statement on the question of sentence?

Gandhiji : I would like to make a statement.

Court : Could you give me in writing to put it on record?

Gandhiji : I shall give it as soon as I finish it.

Gandhiji then made the following oral statement followed by a written statement that he read.]

Before I read this statement I would like to state that I entirely endorse the learned Advocate-General’s remarks in connection with my humble self. I think that he has made, because it is very true and I have no desire whatsoever to conceal from this court the fact that to preach disaffection towards the existing system of Government has become almost a passion with me, and the Advocate-General is entirely in the right when he says that my preaching of disaffection did not commence with my connection with Young India but that it commenced much earlier, and in the statement that I am about to read, it will be my painful duty to admit before this court that it commenced much earlier than the period stated by the Advocate-General. It is a painful duty with me but I have to discharge that duty knowing the responsibility that rests upon my shoulders, and I wish to endorse all the blame that the learned Advocate-General has thrown on my shoulders in connection with the Bombay occurrences, Madras occurrences and the Chauri Chaura occurrences. Thinking over these things deeply and sleeping over them night after night, it is impossible for me to dissociate myself from the diabolical crimes of Chauri Chaura or the mad outrages of Bombay. He is quite right when he says, that as a man of responsibility, a man having received a fair share of education, having had a fair share of experience of this world, I should have known the consequences of every one of my acts. I know them. I knew that I was playing with fire. I ran the risk and if I was set free I would still do the same. I have felt it this morning that I would have failed in my duty, if I did not say what I said here just now.

I wanted to avoid violence. Non-violence is the first article of my faith. It is also the last article of my creed. But I had to make my choice. I had either to submit to a system which I considered had done an irreparable harm to my country, or incur the risk of the mad fury of my people bursting forth when they understood the truth from my lips. I know that my people have sometimes gone mad. I am deeply sorry for it and I am, therefore, here to submit not to a light penalty but to the highest penalty. I do not ask for mercy. I do not plead any extending act. I am here, therefore, to invite and cheerfully submit to the highest penalty that can be inflicted upon me for what in law is a deliberate crime, and what appears to me to be the highest duty of a citizen. The only course open to you, the Judge, is, as I am going to say in my statement, either to resign your post, or inflict on me the severest penalty if you believe that the system and law you are assisting to administer are good for the people. I do not except that kind of conversion. But by the time I have finished with my statement you will have a glimpse of what is raging within my breast to run this maddest risk which a sane man can run.

[He then read out the written statement : ]

I owe it perhaps to the Indian public and to the public in England, to placate which this prosecution is mainly taken up, that I should explain why from a staunch loyalist and co-operator, I have become an uncompromising disaffectionist and non-co-operator. To the court too I should say why I plead guilty to the charge of promoting disaffection towards the Government established by law in India.

My public life began in 1893 in South Africa in troubled weather. My first contact with British authority in that country was not of a happy character. I discovered that as a man and an Indian, I had no rights. More correctly I discovered that I had no rights as a man because I was an Indian.

But I was not baffled. I thought that this treatment of Indians was an excrescence upon a system that was intrinsically and mainly good. I gave the Government my voluntary and hearty co-operation, criticizing it freely where I felt it was faulty but never wishing its destruction.

Consequently when the existence of the Empire was threatened in 1899 by the Boer challenge, I offered my services to it, raised a volunteer ambulance corps and served at several actions that took place for the relief of Ladysmith. Similarly in 1906, at the time of the Zulu ‘revolt’, I raised a stretcher bearer party and served till the end of the ‘rebellion’. On both the occasions I received medals and was even mentioned in dispatches. For my work in South Africa I was given by Lord Hardinge a Kaisar-i-Hind gold medal. When the war broke out in 1914 between England and Germany, I raised a volunteer ambulance cars in London, consisting of the then resident Indians in London, chiefly students. Its work was acknowledge by the authorities to be valuable. Lastly, in India when a special appeal was made at the war Conference in Delhi in 1918 by Lord Chelmsford for recruits, I struggled at the cost of my health to raise a corps in Kheda, and the response was being made when the hostilities ceased and orders were received that no more recruits were wanted. In all these efforts at service, I was actuated by the belief that it was possible by such services to gain a status of full equality in the Empire for my countrymen.

The first shock came in the shape of the Rowlatt Act-a law designed to rob the people pf all real freedom. I felt called upon to lead an intensive agitation against it. Then followed the Punjab horrors beginning with the massacre at Jallianwala Bagh and culminating in crawling orders, public flogging and other indescribable humiliations. I discovered too that the plighted word of the Prime Minister to the Mussalmans of India regarding the integrity of Turkey and the holy places of Islam was not likely to be fulfilled. But in spite of the forebodings and the grave warnings of friends, at the Amritsar Congress in 1919, I fought for co-operation and working of the Montagu-Chemlmsford reforms, hoping that the Prime Minister would redeem his promise to the Indian Mussalmans, that the Punjab wound would be healed, and that the reforms, inadequate and unsatisfactory though they were, marked a new era of hope in the life of India.

But all that hope was shattered. The Khilafat promise was not to be redeemed. The Punjab crime was whitewashed and most culprits went not only unpunished but remained in service, and some continued to draw pensions from the Indian revenue and in some cases were even rewarded. I saw too that not only did the reforms not mark a change of heart, but they were only a method of further raining India of her wealth and of prolonging her servitude.

I came reluctantly to the conclusion that the British connection had made India more helpless than she ever was before, politically and economically. A disarmed India has no power of resistance against any aggressor if she wanted to engage, in an armed conflict with him. So much is this the case that some of our best men consider that India must take generations, before she can achieve Dominion Status. She has become so poor that she has little power of resisting faminies. Before the British advent India spun and wove in her millions of cottages, just the supplement she needed for adding to her meager agricultural resources. This cottage industry, so vital for India’s existence, has been ruined by incredibly heartless and inhuman processes as described by English witness. Little do town dwellers how the semi-starved masses of India are slowly sinking to lifelessness. Little do they know that their miserable comfort represents the brokerage they get for their work they do for the foreign exploiter, that the profits and the brokerage are sucked from the masses. Little do realize that the Government established by law in British India is carried on for this exploitation of the masses. No sophistry, no jugglery in figures, can explain away the evidence that the skeletons in many villages present to the naked eye. I have no doubt whatsoever that both England and the town dweller of India will have to answer, if there is a God above, for this crime against humanity, which is perhaps unequalled in history. The law itself in this country has been used to serve the foreign exploiter. My unbiased examination of the Punjab Marital Law cases has led me to believe that at least ninety-five per cent of convictions were wholly bad. My experience of political cases in India leads me to the conclusion, in nine out of every ten, the condemned men were totally innocent. Their crime consisted in the love of their country. In ninety-nine cases out of hundred, justice has been denied to Indians as against Europeans in the courts of India. This is not an exaggerated picture. It is the experience of almost every Indian who has had anything to do with such cases. In my opinion, the administration of the law is thus prostituted, consciously or unconsciously, for the benefit of the exploiter.

The greater misfortune is that the Englishmen and their Indian associates in the administration of the country do not know that they are engaged in the crime I have attempted to describe. I am satisfied that many Englishmen and Indian officials honestly systems devised in the world, and that India is making steady, though, slow progress. They do not know, a subtle but effective system of terrorism and an organized display of force on the one hand, and the deprivation of all powers of retaliation or self-defence on the other, as emasculated the people and induced in them the habit of simulation. This awful habit has added to the ignorance and the self-deception of the administrators. Section 124 A, under which I am happily charged, is perhaps the prince among the political sections of the Indian Penal Code designed to suppress the liberty of the citizen. Affection cannot be manufactured or regulated by law. If one has no affection for a person or system, one should be free to give the fullest expression to his disaffection, so long as he does not contemplate, promote, or incite to violence. But the section under which mere promotion of disaffection is a crime. I have studied some of the cases tried under it; I know that some of the most loved of India’s patriots have been convicted under it. I consider it a privilege, therefore, to be charged under that section. I have endeavored to give in their briefest outline the reasons for my disaffection. I have no personal ill-will against any single administrator, much less can I have any disaffection towards the King’s person. But I hold it to be a virtue to be disaffected towards a Government which in its totality has done more harm to India than any previous system. India is less manly under the British rule than she ever was before. Holding such a belief, I consider it to be a sin to have affection for the system. And it has been a precious privilege for me to be able to write what I have in the various articles tendered in evidence against me.

In fact, I believe that I have rendered a service to India and England by showing in non-co-operation the way out of the unnatural state in which both are living. In my opinion, non-co-operation with evil is as much a duty as is co-operation with good. But in the past, non-co-operation has been deliberately expressed in violence to the evil-doer. I am endeavoring to show to my countrymen that violent non-co-operation only multiples evil, and that as evil can only be sustained by violence, withdrawal of support of evil requires complete abstention from violence. Non-violence implies voluntary submission to the penalty for non-co-operation with evil. I am here, therefore, to invite and submit cheerfully to the highest penalty that can be inflicted upon me for what in law is deliberate crime, and what appears to me to be the highest duty of a citizen. The only course open to you, the Judge and the assessors, is either to resign your posts and thus dissociate yourselves from evil, if you feel that the law you are called upon to administer is an evil, and that in reality I am innocent, or to inflict on me the severest penalty, if you believe that the system and the law you are assisting to administer are good for the people of this country, and that my activity is, therefore, injurious to the common weal.

Mahatma, Vol. II, (1951) pp. 129-33

This speech is from selected works of Mahatma Gandhi Volume-Six

The Voice of Truth Part-I some Famous Speech page 14 to 24

केदारनाथ बनाम बिहार राज्य

इस किताब को भी पढ़ें Freedom of speech and assembly and public order by SK Ghosh