फेक न्यूज़ वैश्विक-समस्या है, केवल भारत की समस्या नहीं। इसे रोकने या बचने के समाधान वैश्विक और राष्ट्रीय-स्तर पर निकलेंगे। चूंकि यह एक ऐसी तकनीक से जुड़ी समस्या है, जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है, इसलिए भविष्य में इसके नए-नए रूप देखने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। इसका असर जीवन के सभी क्षेत्रों में है। भारत में हमें राजनीति और खासतौर से चुनाव के दौरान इसका असर देखने को मिलता है, इसलिए हमारा ध्यान उधार ज्यादा है। पर गलत जानकारियाँ, गलतफहमियाँ और दुष्प्रचार जैसी नकारात्मक गतिविधियाँ जीवन के हरेक क्षेत्र में संभव हैं। गलत जानकारियाँ देकर ठगी और अपराध भी इसके दायरे से बाहर नहीं हैं। भावनात्मक शोषण, मानसिक दोहन, गिरोहबंदी जैसी गतिविधियों के लिए भी विरूपित सूचनाओं का इस्तेमाल होता है। इन सब बातों के अलावा राष्ट्रीय-सुरक्षा के लिए खतरनाक ‘हाइब्रिड वॉर’ का एक महत्वपूर्ण हथियार है सूचना।
तमाम बातें हो जाती हैं, पर उनके बारे में निष्कर्ष नहीं निकल पाते हैं। मसलन मीडिया हाउस द वायर और सोशल मीडिया कंपनी मेटा के बीच का विवाद सुलझा नहीं। इसमें दो राय नहीं कि फेक न्यूज़ पर रोक लगाई जानी चाहिए, पर कैसे? क्या होती है फेक न्यूज़ और उसपर रोक कौन लगाएगा? चूंकि सार्वजनिक कार्य-व्यवहार का नियमन शासन करता है, इसलिए पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। पर यह नियमन प्राइवेसी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों से भी मेल खाने वाला होना चाहिए, इसलिए कुछ जटिलताएं पेश आ रही हैं। सच को घुमा-फिराकर पेश करना भी एक मायने में झूठ है और इस लिहाज से हम अपने मीडिया पर नज़र डालें तो समझ में आने लगता है कि बड़ी संख्या में राजनेता और मीडियाकर्मी जानबूझकर या अनजाने में अर्ध-सत्य को फैलाते हैं। इस नई तकनीक ने ‘नरो वा कुंजरो वा’ की स्थिति पैदा कर रखी हैं।