सन 2014 की
ऐतिहासिक पराजय के दो साल अगले हफ्ते पूरे होने जा रहे हैं। इन दो साल में पार्टी
ढलान पर उतरती ही गई है। गुजरे दो साल में एक भी घटना ऐसी नहीं हुई, जिससे पार्टी
की पराजित आँखों में रोशनी दिखाई पड़ी हो। पिछले दो साल में हुए चुनावों
में उसे कहीं सफलता नहीं मिली। बिहार विधानसभा में उसकी स्थिति बेहतर जरूर हुई है,
पर दूसरों के सहारे। उसके पीछे कांग्रेस की रणनीति नहीं थी। फिलहाल अकेले दम पर
जीतने की कोई योजना उसके पास नहीं है। अब वह उत्तर भारत में गठबंधनों के सहारे वैतरणी पार करना चाहती है।
पिछले हफ्ते भाजपा की नादानी से उत्तराखंड में पार्टी को जीवन दान जरूर मिला
है। कहना मुश्किल है कि पार्टी इसका लाभ ले पाएगी या नहीं। उत्तराखंड में फरवरी
2017 में चुनाव होंगे, पर क्या पार्टी उससे पहले ही विधानसभा भंग करने का जोखिम
उठाएगी? शायद इस घटनाक्रम से हरीश रावत के प्रति वोटर के मन में हमदर्दी पैदा हुई हो।
पर क्या वहाँ पार्टी का संगठन एकताबद्ध है? पार्टी को इस संकट से छुटकारा जरूर मिल गया, पर सच
यह है कि राज्य में 10 विधायकों ने पार्टी नेतृत्व से बगावत की थी। इनकी संख्या एक
तिहाई के आसपास थी। इसके लिए पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व जिम्मेदार है।
बहरहाल इस राहत
का कुछ लाभ उसे अपने आप मिलेगा। दूसरे राज्यों में शुरू हो रही बगावत में फौरी तौर
पर विराम लग सकता है। उत्तराखंड विधानसभा में बसपा ने कांग्रेस के पक्ष में वोट
देकर इस सम्भावना को भी बढ़ाया है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में दोनों पार्टियाँ
चुनाव पूर्व या चुनाव के बाद गठजोड़ कर सकती हैं। शक्ति परीक्षण में जीतने के बाद
हरीश रावत ने कहा कि हम भाजपा को हराने के लिए एक साथ आ भी सकते हैं। पर लगता नहीं
कि ऐसा होगा।
मायावती ने साफ
कहा है कि यूपी का चुनाव हम अकेले लड़ेंगे। बसपा पर नजर रखने वाले जानते हैं कि वह
चुनाव पूर्व गठबंधनों पर यकीन नहीं करती। सन 1996 में केवल एक बार उसका कांग्रेस
के साथ गठबंधन हुआ था, जिसे सफलता नहीं मिली। दोनों पार्टियों की सामाजिक संरचना
मेल नहीं खाती। मायावती ने उत्तराखंड में कांग्रेस को केवल इसलिए बचाया, क्योंकि वह
भाजपा का साथ देने की तोहमत मोल लेना नहीं चाहतीं। यूपी में उनका वोट भाजपा विरोधी
है। व्यक्तिगत रूप से मुलायम सिंह विरोधी होने के बावजूद मायावती का निशाना भाजपा ही
रहेगी।
उत्तराखंड में
जीवनदान के बावजूद आने वाला हफ़्ता कांग्रेस को कुछ खराब खबरें दे सकता है। जिन
पाँच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम 19 मई को आएंगे उनमें से असम और केरल में उसकी
सरकारें हैं, जिनकी हार का खतरा सिर पर मंडरा रहा है। पार्टी ने बंगाल में वाम
मोर्चे के साथ जाकर जुआ खेला है, जिसमें सफलता का मतलब है कुछ सम्मानजनक सीटें
मिलना। अभी तक लगता है कि बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की वापसी होगी। पर खुदा न
खास्ता वाम मोर्चा और कांग्रेस-गठबंधन को सफलता मिल गई तो क्या होगा? क्या कांग्रेस वाम मोर्चा के साथ
सरकार बनाएगी? या बाहर रहकर समर्थन
देगी जैसाकि 2004 में यूपीए-1 को वाम मोर्चा ने दिया था?
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा
विधानसभाओं के चुनाव होंगे। कांग्रेस को पंजाब में कुछ उम्मीद हो सकती है। पर
सफलता तभी मानी जाएगी, जब वहाँ उसकी सरकार बने। राजनीतिक प्रभाव के लिहाज से उत्तर
प्रदेश और गुजरात के चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे। 2017 में राष्ट्रपति और उप
राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होंगे। इन चुनावों से कांग्रेस के रसूख का पता लगेगा।
राज्यसभा में कांग्रेस
की बढ़त धीरे-धीरे कम होती जाएगी। अभी तक कांग्रेसी राजनीति का बड़ा सहारा यह सदन है।
सन 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले 2018 में जिन राज्यों के चुनाव होंगे, वे माहौल बनाएंगे। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है। कर्नाटक
में प्रतिष्ठा की लड़ाई होगी। कांग्रेस को सफलता का संदेश देना है तो इन राज्यों
पर अभी से ध्यान देना होगा।
फिलहाल अगस्ता
वेस्टलैंड मामले को लेकर बीजेपी ने कांग्रेस को अर्दब में ले लिया है। राष्ट्रीय
राजनीति के खाते में कांग्रेस के नाम इतने घोटाले हैं कि हर रोज एक आंदोलन खड़ा हो
सकता है। पार्टी ‘परिवार’ की छाया है। जिससे न तो वह बच सकती है और न उसके तले खड़े
होकर शांति से जी सकती है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी कार्यसमिति की बैठक
में कहा गया था कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ आईं हैं और उसका
पुनरोदय हुआ है। वह ‘बाउंसबैक’ करेगी। पर अभी तक कार्यसमिति की प्रतिज्ञा सच होती
दिखाई नहीं पड़ती है। पिछले दो साल में उसने ऐसा क्या किया, जिससे लगे कि उसकी
वापसी होगी? या अगले तीन साल में वह ऐसा क्या करेगी, जिससे उसका संकल्प
पूरा हो?
कांग्रेस की सबसे बड़ी
चुनौती नेतृत्व को लेकर है। सन 2009 के बाद से लगातार यह सवाल उठाया जा रहा है कि
राहुल गांधी कब पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेंगे। वास्तव में वह नेता हैं, पर
नहीं भी हैं। राहुल गांधी को
औपचारिक रूप से अबतक पार्टी का अध्यक्ष बन जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ।
नेतृत्व का अनिश्चय दूसरे असमंजसों को जन्म देता है। पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता
समय-असमय अपने असंतोष को जाहिर करते रहे हैं। अरुणाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, हिमाचल
और कर्नाटक से बगावत की खबरें इसी दुविधा को बताती हैं।
सन 2014 के पहले तक कांग्रेस निर्णायक रूप से सबसे बड़ी पार्टी थी। लोकसभा
चुनाव के एक साल पहले तक कोई नहीं कह सकता था कि बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ लोकसभा
में आएगी। वह जीती तो उसकी एक वजह नरेन्द्र मोदी का ऊर्जावान नेतृत्व था, तो दूसरी
वजह थी कांग्रेस का ‘शून्य’ नेतृत्व।
पार्टी ने अपने नेतृत्व को लेकर विचार किया ही नहीं। जनवरी 2013 में पार्टी ने
जयपुर चिंतन शिविर की योजना बनाई तो लगा कि शायद पार्टी आत्ममंथन करने वाली है। पर
ऐसा हुआ नहीं। पिछले पाँच दशकों में कांग्रेस का वह चौथा चिंतन शिविर था। इसके
पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे।
सन 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर
खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की
राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 के शिमला शिविर गठबंधन राजनीति के मुहावरों
को स्वीकार करने के लिए था। सन 2014 की हार के बाद कांग्रेस ने अपने बाउंस बैक की
प्रतिज्ञा तो की, पर आत्ममंथन नहीं किया। किया भी होगा तो ‘क्लोज सर्किल’ में। इसमें बड़े स्तर पर कार्यकर्ता की भागीदारी नहीं थी। एके एंटनी ने कोई
रिपोर्ट दी थी, जो कहीं पड़ी होगी।
फिलहाल उसने भाजपा-विरोधी
राजनीति को एक मंच पर लाने की कोशिश की है। इसकी शुरूआत नवम्बर 2014 में जवाहर लाल
नेहरू की सवा सौवीं जयंती के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के रूप में की गई थी। वह
भाजपा-विरोधी धुरी बनाने के प्रयास में है। इस धुरी में वामदल और जनता परिवार से जुड़े दल भी
हैं। बिहार के पिछले चुनाव में वह जेडीयू और आरजेडी के साथ उतरी थी। उस सौदे में
कांग्रेस को आंशिक लाभ ही मिला। अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी वह गठबंधन
के साथ उतरेगी। पर यह गठबंधन व्यापक स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चा नहीं होगा। इस
तरह भाजपा-विरोधी वोट बिखरा ही रहेगा।
भारतीय जनता पार्टी के एकांगी राष्ट्रवाद के मुकाबले देश को बहुल-भारत की छतरी
चाहिए। कांग्रेस यह छतरी देने में नाकामयाब हो रही है। धीरे-धीरे उसकी उपस्थिति
राज्यों में कम होती जा रही है। तकरीबन दस राज्यों से लोकसभा में उसका कोई
प्रतिनिधि नहीं है। पार्टी छोटे दलों से तालमेल करने को मजबूर हो रही है। अगले तीन
साल उसकी परीक्षा के हैं।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 15 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteअभी तो यह छेद भरने सम्भव नहीं लग रहे , एक बात समझ के बाहर है कि बार बार नेतृत्व के बारे में सवाल उठाये जा रहे हैं ,अगर राहुल को कमान सौंप भी दी जाती , (जो लगभग अभी नुंके ही पास है) तो क्या हो जाता ? क्या राहुल सोनिया से ज्यादा प्रतिभावान हैं ?मुझे तो यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अभी भी चार लोगों को कोटरी सोनिया को चला रही है , और राहुल के आने के बाद भी यही होगा , सोनिया से पहले राजीव के समय भी यही हाल था , असल में तो गांधी परिवार एक नाम है और कुछ लोग ही कांग्रेस पार्टी को चलाते हैं बस इतना है कि वे उस मुखिया के विश्वासपात्र बन जाएँ फिर वे ही थिंक टैंक के रूप में हैं काम करते हैं , राहुल के आने के बाद यह थिंक टैंक बदल जायेगा तब उस के निर्णय और भी उलट पुलट वाले हो सकते हैं जैसे पिछले कुछ चुनावों में देखे जा चुके हैं ,
ReplyDeleteमूलतः कांग्रेस की छवि घोटालों व भ्र्स्टाचार ने डुबोई है , और उस विषय पर कांग्रेस कुछ मानने व सुनने को तैयार नहीं है इसलिए यह बंटाधार तो होना ही है
यह भी कड़वा सच है कि राहुल में नेतृत्व की कोई कोई प्रतिभा नहीं है , इस लिए जो भी आशा है वह महज आशा ही है , उस से कुछ भी नहीं