कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी
ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री
बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका
पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है।
वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की
वापसी पार्टी में संभव नहीं है। पर क्या कोई वापसी चाहता है?
उससे बड़ा सवाल है कि भाजपा किस तरह से ‘पार्टी विद अ डिफरेंस’ नज़र आना चाहती है। उसके पास नया क्या है, जिसके सहारे वोटर का मन जीतना चाहती
है? और उसके पास कौन ऐसा नेता है जो उसे चुनाव जिता सकता है?
भाजपा अभी तक कर्नाटक, यूपी और बिहार की मनोदशा से बाहर नहीं
आ पाई है। उसके भीतर कहा जा रहा है कि सन 2008 में जब कर्नाटक में सरकार बन रही थी
तब बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं को शामिल कराने का दबाव तो केन्द्रीय नेताओं
ने डाला। क्या वे उनकी पृष्ठभूमि नहीं जानते थे? आडवाणी
जी कहते हैं कि हमने भ्रष्टाचार में मामले में समझौता नहीं किया, पर क्या उन्होंने
रेड्डी बंधुओं के बारे में अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी?
यह सिर्फ
संयोग नहीं है कि पिछले साल जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र
मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा भी आए थे। पार्टी की भीतरी कलह कुछ नहीं केवल राष्ट्रीय
स्तर पर नेतृत्व का झगड़ा है। और इस वक्त यह झगड़ा नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी की शक्ल
ले चुका है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज
की करारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें कुछ कड़वे सवाल हैं। सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष
पद से फौरन हटा दिया गया, पर क्या सवाल खत्म हो गए?