प्रतिष्ठित पत्रकार प्रभात डबराल ने उर्दू (यानी अरबी या फारसी) शब्दों के तलफ़्फ़ुज़ यानी उच्चारण और हिन्दी में उनकी वर्तनी को लेकर फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है, जिसे पहले पढ़ें:
बहुत पुरानी बात है..
सन अस्सी के इर्द-गिर्द की. दिल्ली के बड़े अख़बार में रिपोर्टर था लेकिन तब के
एकमात्र टीवी चैनल दूरदर्शन में हर हफ़्ते
एकाध प्रोग्राम कर लेता था. एक विदेशी टीवी न्यूज़ चैनल के दिल्ली ब्यूरो में तीन
साल काम कर चुका था इसलिए टीवी की बारीकियों की थोड़ा बहुत समझ रखता था लेकिन
हिंदी में उर्दू से आए शब्दों के उच्चारण में हाथ बहुत तंग था.
कोटद्वार से स्कूलिंग
और मसूरी से डिग्री करके आया था इसलिए नुक़्ता क्या होता है अपन को पता ही नहीं
था. सच कहूँ तो अभी भी नुक़्ता कहाँ लगाना है कहाँ नहीं ये सोच कर पसीना आ जाता
है. ख़ासकर ज पर लगने वाला नुक़्ता. हालत ये कि किसी ने सिखाया कि भाई ये बजार नहीं बाज़ार होता है तो
हम बिजली को भी बिज़ली कहने लगे..जरा को ज़रा और ज़र्रा को जर्रा कहने वाले अभी भी बहुत मिल जाते हैं…
नुक़्ते के इस आतंक के
बीच आज आकाशवाणी में काम करने वाले एक (सोशल मीडिया में मिले)मित्र प्रतुल जोशी की
इस पोस्ट पर नज़र पड़ी तो लगा शेयर करनी चाहिए…:
ज़बान के रंग, नाचीज़ लखनवी के संग
आप अगर सही तरह से अल्फ़ाज़ को पेश नहीं करते
तो यह प्रदर्शित करता है कि आप का भाषा के प्रति ज्ञान अधूरा है। आज मैं
हिंदुस्तानी ज़बान के कुछ रोचक तथ्यों की तरफ़ अपने मित्रों का ध्यान आकर्षित करना
चाहूंगा।
1. सही शब्द है यानी, प्रायः
लिखा जाता है यानि
2. शब्द है रिवाज। प्रायः लिखा/ बोला जाता है
रिवाज़। इस को याद रखने का आसान तरीक़ा है कि शब्द "रियाज़" याद रखा
जाए। जहां रिवाज में नुक़्ता नहीं लगता, रियाज़ में लगता
है।
.3. उर्दू में दो शब्द नुक़्ता लगाने से बिल्कुल दो भिन्न अर्थों को संप्रेषित करते हैं। यह हैं एजाज़ और एज़ाज़। जहां ऐजाज़ का अर्थ चमत्कार होता है, वहीं ऐज़ाज़ का अर्थ है "सम्मान"।