Saturday, March 31, 2018

कांग्रेस है कहाँ, एकता-चिंतन के केन्द्र में या परिधि में?


बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की राजनीति ने बीजेपी और शेष के फॉर्मूले को मंजूर कर लिया है?

इस मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है।  

ममता-सोनिया संवाद

बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं, उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?

Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।

Tuesday, March 20, 2018

माफ़ियों के बाद अब ‘आप’ का क्या होगा?

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आम आदमी पार्टी का जन्म पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2012 में हुआ था. लगता था कि शहरी युवा वर्ग राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए उठ खड़ा हुआ है. वह भारतीय लोकतंत्र को नई परिभाषा देगा.
सारी उम्मीदें अब टूटती नज़र आ रही हैं.
संभव है कि अरविंद केजरीवाल माफी-प्रकरण के कारण फंसे धर्म-संकट से बाहर निकल आएं. पार्टी को क़ानूनी माफियां आसानी से मिल जाएंगी, पर नैतिक और राजनीतिक माफियां इतनी आसानी से नहीं मिलेंगी.
क्या वे राजनीति के उसी घोड़े पर सवार हो पाएंगे जो उन्हें यहां तक लेकर आया है? अब उनकी यात्रा की दिशा क्या होगी? वे किस मुँह से जनता के बीच जाएंगे?
ख़ूबसूरत मौका खोया
दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला था.
 उसने धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने इस मौक़े को हाथ से निकल जाने दिया.
उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा था कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती थी.
ज़ाहिर है कि केजरीवाल अब बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े आरोप नहीं लगाएंगे. लगाएँ भी तो विश्वास कोई नहीं करेगा.
उन्होंने अपना भरोसा खोया है. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अब यह है कि वह अपनी राजनीति को किस दिशा में मोड़ेगी.
चंद मुट्ठियों में क़ैद और विचारधारा-विहीन इस पार्टी का भविष्य अंधेरे की तरफ़ बढ़ रहा है.
समर्थकों से धोखा
केजरीवाल की बात छोड़ दें, पार्टी के तमाम कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्होंने इस किस्म की राजनीति के कारण मार खाई है, कष्ट सहे हैं.
बहुतों पर मुक़दमे दायर हुए हैं या किसी दूसरे तरीक़े से अपमानित होना पड़ा. वे फिर भी अपने नेतृत्व को सही समझते रहे. धोखा उनके साथ हुआ.
संदेश यह जा रहा है कि अब उन्हें बीच भँवर में छोड़कर केजरीवाल अपने लिए आराम का माहौल बनाना चाहते हैं. क्यों?
बात केवल केजरीवाल की नहीं है. उनकी समूची राजनीति का सवाल है. ऐसा क्यों हो कि वे चुपके से माफी मांग कर निकले लें और बाकी लोग मार खाते रहें?



फिर से खड़ी होती कांग्रेस

कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन दो बातों से महत्वपूर्ण रहा। पार्टी में लम्बे अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इस अधिवेशन में राहुल गांधी की अध्यक्षता की पुष्टि हुई। दूसरे यह ऐसे दौर में हुआ है, जब पार्टी लड़खड़ाई हुई है। अब कयास हैं कि पार्टी निकट या सुदूर भविष्य में किस रास्ते पर जाएगी। अध्यक्ष पद की सर्वसम्मति से पुष्टि के अलावा अधिवेशन के अंतिम दिन राज्यों से आए प्रतिनिधियों और एआईसीसी के सदस्यों ने फैसला किया कि कांग्रेस कार्यसमिति के मनोनयन का पूरा अधिकार अध्यक्ष को सौंप दिया जाए। अटकलें यह भी थीं कि शायद राहुल गांधी कार्यसमिति के आधे सदस्यों का चुनाव करा लें। ऐसा हुआ नहीं और एक दीर्घ परम्परा कायम रही। बहरहाल इस महाधिवेशन के साथ कांग्रेस ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। इतना नजर आता है कि कांग्रेस नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय आपदा साबित करेगी और पहले के मुकाबले और ज्यादा वामपंथी जुमलों का इस्तेमाल करेगी। पार्टी की अगली कतार में अब नौजवानों की एक नई पीढ़ी नजर आएगी।  

Monday, March 19, 2018

क्षेत्रीय क्षत्रपों में हलचल

तेलुगु देशम पार्टी ने अपने चार साल पुराने गठबंधन को खत्म करके एनडीए से अलग होने का फैसला अचानक ही नहीं किया होगा। पार्टी ने बहुत तेजी से मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला भी कर लिया। आंध्र की ही वाईएसआर कांग्रेस ने इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसके नोटिस को स्पीकर स्वीकार नहीं किया। सब जानते हैं कि सरकार गिरने वाली नहीं है, पर अचानक इस प्रस्ताव को समर्थन मिलने लगा है। इसके साथ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और वामपंथी पार्टियाँ नजर आ रहीं हैं। याद करें, पिछले लोकसभा चुनाव के पहले आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राजनीतिक कारणों से खबरों में रहते थे।

क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं

बीजेपी की राजनीति का पहला निशाना कांग्रेस है और कांग्रेस का पहला निशाना बीजेपी है. दोनों पार्टियों के निशान पर क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि दोनों की दिलचस्पी क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ की है. इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों की दिलचस्पी राष्ट्रीय दलों को पीछे धकेलकर केन्द्र की राजनीति में प्रवेश करने की है. देश में क्षेत्रीय राजनीति का उदय 1967 में कांग्रेस की पराजय के साथ हुआ था. इस परिघटना के तीन दशक बाद जबतक बीजेपी का उदय नहीं हुआ, राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ कांग्रेस थी. सन 2004 तक एनडीए और उसके बाद यूपीए और फिर एनडीए सरकार के बनने से ऐसा लगा कि राष्ट्रीय जनाधार वाले दो दल हमारे बीच हैं. पर, अब कांग्रेस के निरंतर पराभव से अंदेशा पैदा होने लगा है कि उसकी राष्ट्रीय पहचान कायम रह भी पाएगी या नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी इलाके की राजनीति विराजती है, जो राष्ट्रीय राजनीति की धुरी है. दोनों राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है.

हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो दो बातें नजर आ रहीं है. एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. दूसरे दक्षिणी राज्यों समेत देश के दूसरे इलाकों की राजनीति केन्द्र की तरफ बढ़ रही है. तेलुगु देशम ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल बजाकर केवल आंध्र के आर्थिक सवाल को ही नहीं उठाया है, बल्कि चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी उजागर किया है. इस अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरेगी नहीं, पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को सामने आने का मौका जरूर मिला है.

Sunday, March 18, 2018

अपने ही बुने जाले में फंसते जा रहे हैं केजरीवाल

कार्टून साभार सतीश आचार्य
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
17 मार्च 2018


सिर्फ़ चार साल की सक्रिय राजनीति में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो गए हैं. और ऐसे दर्ज़ हुए हैं कि उन पर चुटकुले लिखे जा रहे हैं.


उनका ज़िक्र होने पर ऐसे मकड़े की तस्वीर उभरती है, जो अपने बुने जाले में लगातार उलझता जा रहा है.
इस पार्टी ने जिन ऊँचे आदर्शों और विचारों का जाला बुनकर राजनीति के शिखर पर जाने की सोची थी, वे झूठे साबित हुए. अब पूरा लाव-लश्कर किसी भी वक़्त टूटने की नौबत है. जैसे-जैसे पार्टी और उसके नेताओं की रीति-नीति के अंतर्विरोध खुल रहे हैं, उलझनें बढ़ती जा रही हैं.


ठोकर पर ठोकर
केजरीवाल के पुराने साथियों में से काफ़ी साथ छोड़कर चले गए या उनके ही शब्दों में 'पिछवाड़े लात लगाकर' निकाल दिए गए. अब वे ट्वीट करके मज़ा ले रहे हैं, 'हम उस शख़्स पर क्या थूकें जो ख़ुद थूक कर चाटने में माहिर है!'

अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से केजरीवाल की माफ़ी के बाद पार्टी की पंजाब यूनिट में टूट की नौबत है. दिल्ली में पहले से गदर मचा पड़ा है. 20 विधायकों के सदस्यता-प्रसंग की तार्किक परिणति सामने है. उसका मामला चल ही रहा था कि माफ़ीनामे ने घेर लिया है.

मज़ाक बनी राजनीति
सोशल मीडिया पर केजरीवाल का मज़ाक बन रहा है. किसी ने लगे हाथ एक गेम तैयार कर दिया है. पार्टी के अंतर्विरोध उसके सामने आ रहे हैं. पिछले दो-तीन साल की धुआँधार राजनीति का परिणाम है कि पार्टी पर मानहानि के दर्जनों मुक़दमे दायर हो चुके हैं. ये मुक़दमे देश के अलग-अलग इलाक़ों में दायर किए गए हैं.


पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अदालतों में पड़े मुक़दमों को सहमति से ख़त्म करने का फ़ैसला पार्टी की क़ानूनी टीम के साथ मिलकर किया गया है, क्योंकि इन मुक़दमों की वजह से साधनों और समय की बर्बादी हो रही है. हमारे पास यों भी साधन कम हैं.

माफियाँ ही माफियाँ
बताते हैं कि जिस तरह मजीठिया मामले को सुलझाया गया है, पार्टी उसी तरह अरुण जेटली, नितिन गडकरी और शीला दीक्षित जैसे मामलों को भी सुलझाना चाहती है. यानी माफ़ीनामों की लाइन लगेगी. पिछले साल बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना से भी एक मामले में माफ़ी माँगी गई थी.


केजरीवाल ने उस माफ़ीनामे में कहा था कि एक सहयोगी के बहकावे में आकर उन्होंने आरोप लगाए थे. पार्टी सूत्रों के अनुसार हाल में एक बैठक में इस पर काफ़ी देर तक विचार हुआ कि मुक़दमों में वक़्त बर्बाद करने के बजाय उसे काम करने में लगाया जाए.


सौरभ भारद्वाज ने पार्टी के फ़ैसले का ज़िक्र किया है, पर पार्टी के भीतरी स्रोत बता रहे हैं कि माफ़ीनामे का फ़ैसला केजरीवाल के स्तर पर किया गया है.

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Saturday, March 17, 2018

कांग्रेस अपनी ताकत तो साबित करे


पूर्वोत्तर में सफलता से भाजपा के भीतर जो जोश पैदा हुआ था, वह उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन लोकसभा उपचुनावों में हार से ठंडा पड़ गया होगा। पर इन परिणामों से कोई नई बात साबित नहीं हुई। विपक्षी एकता का यह टेम्पलेट 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में तैयार हुआ था। उत्तर प्रदेश के लिए यह नई बात थी, क्योंकि 1993 के बाद पहली बार सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। संदेश साफ है कि यूपी में दोनों या कांग्रेस को भी जोड़ लें, तो तीनों मिलकर बीजेपी को हरा सकते हैं। पर इस फॉर्मूले को निर्णायक मान लेना जल्दबाजी होगी। बेशक 2019 के चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश में विरोधी दलों की एकता को रोशनी मिली है, पर संदेह के कारण भी मौजूद हैं।  

बिहार में 2015 की सफलता राजद और जेडीयू की एकता का परिणाम थी। उसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका नहीं थी। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हाशिए की पार्टी है। सफलता मिली भी तो सपा-बसपा एकता की बदौलत। इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका है? कांग्रेस को इस बात से संतोष हो सकता है कि इस एकता ने उसके मुख्य शत्रु को परास्त कराने में भूमिका निभाई। पर राजनीति में सबके हित अलग-अलग होते हैं। पहला सवाल है कि गोरखपुर-फूलपुर विजय से कांग्रेस को क्या हासिल हुआ या हासिल होगा? दूसरा यह कि क्या उत्तर प्रदेश के सामाजिक गठजोड़ की बिना पर क्या कांग्रेस राष्ट्रीय गठजोड़ खड़ा कर सकती है? इसके उलट सवाल यह भी है कि क्या वह सपा-बसपा और राजद की पिछलग्गू बनकर नहीं रह जाएगी?

कांग्रेसी नेतृत्व में विपक्ष?

बिहार की अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट राष्ट्रीय जनता दल की रही है। इस जीत से लालू और तेजस्वी यादव की बिहार में लोकप्रियता का अनुमान लगाना मुश्किल है। महत्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी की पराजय। इससे योगी आदित्यनाथ को ठेस लगी है। लोकसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है। जिस रोज ये परिणाम आए उसके पहले दिन दिल्ली में कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के रात्रि भोज में 20 विरोधी दलों की शिरकत का सांकेतिक महत्व भी है। कांग्रेस का कोशिश है कि सोनिया गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नेता के रूप में प्रदर्शित किया जाए।

Monday, March 12, 2018

पूर्वोत्तर की जीत से बढ़ा बीजेपी का दबदबा

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनाव में बीजेपी को आशातीत सफलता मिली है। उसका उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है, पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए इसमें एक संदेश भी छिपा है। उनका मजबूत आधार छिना है। खासतौर से वाममोर्चे के अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। बीजेपी ने तकरीबन शून्य से शुरूआत करके अपनी मजबूत स्थिति बनाई है। कांग्रेस और वामपंथ के पास जनाधार था। वह क्यों छिना? उन्हें जनता के बीच जाकर उसकी आकांक्षाओं और अपनी खामियों को समझना चाहिए। बीजेपी हिन्दुत्व वादी पार्टी है। वह ऐसे इलाके में सफल हो गई, जहाँ के वोटरों में बड़ी संख्या अल्पसंख्यकों और जनजातियों की थी।  

पूर्वोत्तर के राज्यों का उस तरह का राजनीतिक महत्व नहीं है, जैसा उत्तर प्रदेश या बिहार का है। यहाँ के सातों राज्यों से कुल जमा लोकसभा की 24 सीटें हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 14 सीटें असम की हैं। इन सात के अलावा सिक्किम को भी शामिल कर लें तो इन आठ राज्यों में कुल 25 सीटें हैं। बावजूद इसके इस इलाके का प्रतीकात्मक महत्व है। यह इलाका बीजेपी को उत्तर भारत की पार्टी के बजाय सारे भारत की पार्टी साबित करने का काम करता है।

Sunday, March 11, 2018

गठबंधनों का गणित, गठजोड़ों की आहटें


राजनीतिक-बेताल फिर से डाल पर वापस चला गया है। पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम आने के साथ राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा है। इस वक्त एक बड़ा सवाल है कि लोकसभा के चुनाव कब होंगे? अब सारी निगाहें कर्नाटक के चुनाव पर हैं। वहाँ के नतीजे अगले आम-चुनाव की दशा-दिशा तट करेंगे। कांग्रेस जीती तो बीजेपी लोकसभा चुनाव जल्दी कराने पर जोर नहीं देगी, क्योंकि इससे न केवल कांग्रेस के हौसले बुलंद होंगे, बीजेपी के हौसले धराशायी हो जाएंगे।

बीजेपी की रणनीति फिलहाल निरंतर सफल होते जाने में है। इसलिए यदि बीजेपी कर्नाटक में जीत गई तो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव कराने पर जरूर विचार करेगी। वह राजस्थान और मध्य प्रदेश की एंटी इनकम्बैंसी का जोखिम नहीं उठाएगी और जीत की लहर पैदा करने की कोशिश करेगी, जिसमें हिन्दी भाषी इन तीनों राज्यों को बहा लेने की कोशिश होगी। उधर पृष्ठभूमि में चुनाव-पूर्व के गठबंधनों की गहमागहमी भी शुरू हो चुकी है। आंध्र प्रदेश में तेदेपा और बीजेपी गठबंधन का गठबंधन टूटने के बाद कुछ नए गठजोड़ों की आहट मिल रही है।  

चुनावी चिमगोइयों का दौर

लोकसभा चुनाव में एक साल से ज्यादा समय बाकी है, पर नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े सुनाई पड़ने लगे हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा का प्रवेश हो गया है। तीन राज्य पहले से उसकी झोली में हैं। सातवाँ राज्य मिजोरम है, जहाँ इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पूर्वोत्तर का केवल सांकेतिक महत्व है। तुरुप के पत्ते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्य हैं, जहाँ असली राजनीतिक घमासान होगा। इन्हीं राज्यों से ऐसे गठबंधन निकलेंगे, जो 2019 की जंग में निर्णायक साबित होंगे। आज हालात बीजेपी बनाम शेष के बन चुके हैं। पर यक्ष-प्रश्न है कि क्या शेषएकसाथ आएगा?

सब जानते हैं कि असली मुकाबला लोकसभा चुनाव में है, पर उसकी राहें विधानसभा चुनाव से ही खुलती हैं। इससे स्थानीय स्तर पर संगठन तैयार होता है और वोटर के बीच पैठ बनती है। इस लिहाज से पूर्वोत्तर पर बीजेपी का ध्वज लहराना सांकेतिक होने के साथ-साथ उपयोगी भी है। त्रिपुरा में वाममोर्चे और कांग्रेस दोनों का सफाया हो गया। इससे बीजेपी के हौसले बुलंद हुए हैं। उधर विरोधी दलों ने बीजेपी के इस विस्तार को खतरनाक मानते हुए पेशबंदी शुरू कर दी है। 

Tuesday, March 6, 2018

चिदम्बरम को घेर पाएगी सरकार?

पिछले हफ्ते जब सारे टीवी चैनल श्रीदेवी के निधन की खबरों से घिरे थे, अचानक सुबह कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी की खबर आई। इसके साथ इस आशय की खबरें भी आईं कि सरकार आर्थिक अपराधों के खिलाफ एक मजबूत कानून संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है। पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के कारण अर्दब में आई सरकार अचानक आक्रामक मुद्रा में दिखाई पड़ने लगी है। नोटबंदी के दौरान चार्टर्ड अकाउंटेंटों और बैंकों की भूमिका को लेकर काफी लानत-मलामत हुईं थी। अब दोनों तरफ से घेराबंदी चल रही है। देखना होगा कि सरकर विपक्षी घेरे में आती है या पलटवार करती है।

पी चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी के कई मायने हैं। इसे एक आपराधिक विवेचना की तार्किक परिणति, देश में सिर उठा रहे आर्थिक अपराधियों को एक चेतावनी, राजनीतिक बदले और नीरव मोदी प्रकरण की पेशबंदी के रूप में अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है। सभी बातों का कोई न कोई आधार है, पर इसका सबसे बड़ा निहितार्थ राजनीतिक है। पूर्वोत्तर के चुनाव-परिणामों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी पूरे वेग के साथ अब कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में उतरेगी, जहाँ निश्चित रूप से यह मामला बार-बार उठेगा।