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Sunday, September 24, 2023

स्त्री-सशक्तिकरण की दिशा में एक कदम


नारी शक्ति वंदन विधेयक और उसके छह अनुच्छेद गुरुवार को राज्यसभा से भी पास हो गए। जैसी सर्वानुमति इसे मिली है, वैसी बहुत कम कानूनों को संसद में मिली है।  1996 से 2008 तक संसद में चार बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए, पर राजनीतिक दलों ने उन्हें पास होने नहीं दिया। 2010 में यह राज्यसभा से पास जरूर हुआ, फिर भी कुछ नहीं हुआ। ऐसे दौर में जब एक-एक विषय पर राय बँटी हुई है, यह आमराय अपूर्व है। पर इसे लागू करने के साथ दो बड़ी शर्तें जुड़ी हैं। जनगणना और परिसीमन। इस वजह से आगामी चुनाव में यह लागू नहीं होगा, पर चुनाव का एक मुद्दा जरूर बनेगा, जहाँ सभी पार्टियाँ इसका श्रेय लेंगी। 

इसकी सबसे बड़ी वजह है, महिला वोट। महिला पहले वोट बैंक नहीं हुआ करती थीं। 2014 के चुनाव के बाद से वे वोट बैंक बनती नज़र आने लगी हैं। केवल शहरी ही नहीं ग्रामीण महिलाएं भी वोट बैंक बन रही हैं। ज़रूरी नहीं है कि इसका श्रेय किसी एक पार्टी या नेता को मिले। सबसे बड़ी वजह है पिछले दो दशक में भारतीय स्त्रियों की बढ़ती जागरूकता और सामाजिक जीवन में उनकी भूमिका। राजनीति इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाएगी।   

रोका किसने?

इस विधेयक को लेकर इतनी जबर्दस्त सर्वानुमति है, तो इसे फौरन लागू करने से रोका किसने है?  कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खरगे ने राज्यसभा में कहा, जब सरकार नोटबंदी जैसा फैसला तुरत लागू करा सकती है, तब इतने महत्वपूर्ण विधेयक की याद साढ़े नौ साल बाद क्यों आई? बात तो बहुत मार्के की कही है। पर जब दस साल तक कांग्रेस की सरकार थी, तब उन्हें किसने रोका था?  सोनिया गांधी ने लोकसभा में सवाल किया, मैं एक सवाल पूछना चाहती हूं। भारतीय महिलाएं पिछले 13 साल से इस राजनीतिक ज़िम्मेदारी का इंतज़ार कर रही हैं। अब उन्हें कुछ और साल इंतज़ार करने के लिए कहा जा रहा है। कितने साल? दो साल, चार साल, छह साल, या आठ साल? 

संसद में इसबार हुई बहस के दौरान कुछ सदस्यों ने जनगणना और सीटों के परिसीमन की व्यवस्थाओं में संशोधन के लिए प्रस्ताव रखे, पर वे ध्वनिमत से इसलिए नामंजूर हो गए, क्योंकि किसी ने उनपर मतदान कराने की माँग नहीं की। सीधा अर्थ है कि ज्यादातर सदस्य मानते हैं कि जब सीटें बढ़ जाएंगी, तब महिलाओं को उन बढ़ी सीटों में अपना हिस्सा मिल जाएगा। कांग्रेस ने भी मत विभाजन की माँग नहीं की। जब आप दिल्ली-सेवा विधेयक पर मतदान की माँग कर सकते हैं, तो इस विधेयक को फौरन लागू कराने के लिए मत-विभाजन की माँग क्यों नहीं कर पाए? खुशी की बात है कि मंडलवादी पार्टियों ने इसे स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने ओबीसी कोटा की माँग की, जबकि इसके पहले वह इसके लिए तैयार नहीं थी।

Wednesday, March 13, 2019

स्त्रियों को टिकट देने में हिचक क्यों?

http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//13032019//13032019-md-hr-10.pdf
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने घोषणा की है कि हम एक तिहाई सीटें महिला प्रत्याशियों को देंगे। प्रगतिशील दृष्टि से यह घोषणा क्रांतिकारी है और उससे देश के दूसरे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा कि वे भी अपने प्रत्याशियों के चयन में महिला प्रत्याशियों को वरीयता दें। उधर ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। दोनों घोषणाएं उत्साहवर्धक हैं, पर दोनों लोकसभा के लिए हैं। ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी हैं, पर उसमें टिकट वितरण का यही फॉर्मूला नहीं होगा। बंगाल में अभी चुनाव नहीं हैं, इसलिए कहना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की रणनीति क्या होगी। बहरहाल दोनों घोषणाएं सही दिशा में बड़ा कदम हैं। 
सत्रहवें लोकसभा चुनाव में देश के 90 करोड़ मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलेगा, इनमें से करीब आधी महिला मतदाता हैं। पर व्यावहारिक राजनीति इस आधार पर नहीं चलती। आने दीजिए पार्टियों की सूचियाँ, जिनमें पहलवानों की भरमार होगी। राजनीति की सफलता का सूत्र है विनेबिलिटीयानी जीतने का भरोसा। यह राजनीति पैसे और डंडे के जोर पर चलती है। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भूमिका इसबार के चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी आज भी कम है। कमोबेश दुनियाभर की राजनीति पुरुषवादी है, पर हमारी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है। सामान्यतः संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10 फीसदी से ऊपर नहीं जाती।

Friday, March 8, 2019

राजनीति के दरवाजे से बाहर क्यों हैं स्त्रियाँ?

http://inextepaper.jagran.com/2059095/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/08-03-19#page/14/1
बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत के तकनीकी-आर्थिक रूपांतरण के समांतर सबसे बड़ी परिघटना है सामाजिक जीवन में लड़कियों की बढ़ती भागीदारी. सत्तर के दशक तक भारतीय महिलाएं घरों तक सीमित थीं, आज वे जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद हैं. युवा स्त्रियाँ आधुनिकीकरण और सामाजिक रूपांतरण में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहीं हैं. भूमिका बढ़ने के साथ उनसे जुड़े सवाल भी खड़े हुए हैं. पिछले साल जब मी-टू आंदोलन ने भारत में प्रवेश किया था, तब काफी स्त्रियों ने अपने जीवन के ढके-छिपे पहलुओं को उजागर किया. न जाने कितने तथ्य अभी छिपे हुए हैं.

यत्र नार्यस्तु...के देश में स्त्रियों के जीवन की जमीन बहुत कठोर है. उन्हें अपनी जगह बनाने में जबर्दस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी वे इनका मुकाबला करते हुए आगे बढ़ रहीं हैं. दिसम्बर, 2012 में दिल्ली रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा गुस्सा एकबारगी सामने आया. यह केवल स्त्रियों का गुस्सा नहीं था, पूरे समाज की नाराजगी थी. उस आंदोलन की अनुगूँज शहरों, कस्बों, गाँवों और गली-मोहल्लों तक में सुनाई पड़ी थी. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ.