Thursday, August 31, 2023

मॉनसून की चिंता


मॉनसून के बारे में जो सूचनाएं आ रही हैं वे बहुत उत्साहित करने वाली नहीं हैं। भारत के लिए मॉनसून बहुत अहम है क्योंकि उसकी सालाना बारिश में मॉनसूनी बारिश का योगदान 70 फीसदी है। मॉनसूनी बारिश में अगर ज्यादा कमी हुई तो खरीफ की फसल का उत्पादन तो प्रभावित होगा ही, साथ ही रबी की फसल पर भी असर होगा।

 खबरों के मुताबिक इस वर्ष आठ साल की सबसे कम बारिश होने वाली है। इन दिनों सूखे का जो सिलसिला चल रहा है उसके चलते अगस्त में बारिश में रिकॉर्ड कमी आई है और यह सिलसिला आगे भी जारी रहने की आशंका है। जानकारी के मुताबिक अल नीनो प्रभाव मजबूत हो रहा है और माना जा रहा है कि दिसंबर तक उसका प्रभाव जारी रहेगा। बिजनेस स्टैंडर्ड की पूरी संपादकीय टिप्पणी पढ़ें यहाँ

चीन सदा-सर्वदा विकासशील!

दक्षिण अफ्रीका में हाल ही में संपन्न ब्रिक्स देशों की शिखर बैठक से इतर चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने जोर देकर कहा कि उनका देश ‘विकासशील देशों के समूह का सदस्य था, है और हमेशा रहेगा।’ इस बात की संभावना कम है कि शी चीन की भविष्य की वृद्धि को लेकर कोई आशंका व्यक्त कर रहे थे और ऐसा कुछ कह रहे थे कि उनका देश मध्य आय के जाल में उलझा रहेगा। यदि वह ऐसा नहीं कह रहे थे तो फिर उनके इस वक्तव्य की व्याख्या किस प्रकार की जाए?

Wednesday, August 30, 2023

लद्दाख के गतिरोध को खत्म करने में चीनी आनाकानी


भारत और चीन के बीच पिछले तीन साल से चले आ रहे गतिरोध को तोड़ने की कोशिश में पिछले हफ्ते हुई दो बड़ी गतिविधियों के बावजूद समाधान दिखाई पड़ नहीं रहा है. जोहानेसबर्ग में ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन के हाशिए पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच संवाद ने उम्मीदों को जगाया था, पर लगता नहीं कि समाधान होगा.

कहना मुश्किल है कि अब सितंबर में दिल्ली में 9-10 सितंबर को होने वाले जी-20 के शिखर सम्मेलन के हाशिए पर दोनों नेताओं की मुलाकात होगी भी या नहीं. दोनों नेता उसके पहले 5 से 7 सितंबर तक जकार्ता में होने वाले आसियान शिखर सम्मेलन में भी शामिल होने वाले हैं. वैश्विक घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में भी दोनों देशों के बीच का तनाव कम होता दिखाई नहीं पड़ रहा है.  

चीनी आनाकानी 

भारत की ओर से लगातार कहा जा रहा है कि जबतक सीमा पर शांति और स्थिरता नहीं होगी, दोनों देशों के रिश्तों में स्थिरता नहीं आ सकेगी. दूसरी तरफ 1977 के बाद से लगातार चीनी दृष्टिकोण रहा है कि किसी एक कारण से पूरे रिश्तों पर असर नहीं पड़ना चाहिए.

Tuesday, August 29, 2023

गठबंधन ‘इंडिया’ की मुंबई बैठक के मुद्दे


हाल में बने नए राजनीतिक गठबंधन इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस) की इस हफ्ते मुंबई में होने वाली तीसरी बैठक एक तरफ इसके राजनीतिक विचार को स्पष्ट करने और संगठनात्मक आधार को मजबूत करने का काम करेगी, वहीं इसके अंतर्विरोध भी खुलेंगे। 31 अगस्त और 1 सितंबर को दो दिन चलने वाली इस महाबैठक में गठबंधन के लोगो को लॉन्च करने की योजना भी है। गठबंधन के नाम के बाद इस गतिविधि का महत्व प्रचारात्मक ज्यादा है। ज्यादा बड़ा काम अभी तक नेपथ्य में ही है। वह है उस गणित की रूपरेखा, जिसपर यह गठबंधन खड़ा होने वाला है।

दो महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी इस बैठक में मिलेंगे। क्या यह गठबंधन राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में एक होकर उतरेगा या यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव के लिए बन रहा है? दूसरे चुनाव में अलग-अलग चुनाव-चिह्नों के साथ इसकी एकरूपता किस प्रकार से व्यक्त होगी? कुछ पहेलियाँ और हैं। मसलन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के रिश्ते। क्या आम आदमी पार्टी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में उतरेगी? अकेले या कांग्रेस के सहयोगी दल के रूप में? क्या लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी गुजरात में उसे सीटें देगी? ऐसे ही सवाल बंगाल की राजनीति को लेकर हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी खुद पहेली बनी हुई है।

Monday, August 28, 2023

दुनिया ने माना भारत को ‘स्पेस-पावर’

 


चंद्रयान अभियान-2

चंद्रयान-3 की सफलता ने देश-विदेश में करोड़ों भारतीयों को खुशी का मौका दिया है। इतिहास में ऐसे अवसर कभी-कभी आते हैं, जब इस तरह करोड़ों भावनाएं एकाकार होती हैं। इस अभियान का एक लाभ यह भी होगा कि कभी भविष्य में हम चाँद पर बस्तियाँ बसाना चाहेंगे, तो इसमें बहुत मदद मिलेगी। उसके पहले सुदूर अंतरिक्ष के अध्ययन के लिए चंद्रमा पर प्रयोगशालाओं की स्थापना की जा सकती है। भारत ने इसमें पहल ले ली है, जो भविष्य में फलदायी होगी।

प्रतिष्ठा की मनोकामना, प्रतियोगिता को बढ़ाती है। लंबे समय तक भारत की छवि पोंगापंथी, गरीब, पिछड़े और अराजक देश के रूप में रही या बनाई गई, पर अब उसमें तेजी से बदलाव आ रहा है। दुनिया ने भारत को स्पेस-पावर के रूप में स्वीकार कर लिया है। हालांकि रूस और अमेरिका पाँच दशक पहले चंद्रमा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, फिर भी भारत की यह उपलब्धि बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के संसाधनों को देखते हुए हमारी उपलब्धि हल्की नहीं है।

तकनीकी कौशल

बेशक हम गरीब हैं, पर हमारे लोगों ने तकनीकी कौशल का प्रदर्शन किया है। भारतीय इंजीनियरों, डॉक्टरों और अंतरिक्ष-विज्ञानियों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक ने दुनिया में अपनी श्रेष्ठता साबित की है। चंद्रयान की इस सफलता के चार दिन पहले ही रूस को चंद्रमा पर निराशा का सामना करना पड़ा। भारत ने जिस तकनीक और किफायत से इस उपलब्धि को हासिल किया, उसपर गौर करने की जरूरत है। किफायती हाई-टेक के क्षेत्र में भारत ने अपने झंडे गाड़े हैं।

चंद्रयान-2 की विफलता से हासिल अनुभव का इसरो ने फायदा उठाया और उन सारी गलतियों को दूर कर दिया, जो पिछली बार हुई थीं। उन्नत चंद्रयान-3 लैंडर को आकार देने के लिए 21 उप-प्रणालियों को बदला गया। ऐसी व्यवस्था की गई कि यदि किसी एक पुर्जे या प्रक्रिया में खराबी आ जाए, तो दूसरा उसकी जगह काम संभाल लेगा। लैंडिंग की प्रक्रिया को मिनटों और सेकंडों के छोटे-छोटे कालखंडों में बाँटकर इस तरह से संयोजित किया गया कि अभियान के विफल होने की संभावना ही नहीं बची।

Sunday, August 27, 2023

चंद्रमा पर हमारे प्रतिनिधि विक्रम और प्रज्ञान

 


चंद्रयान अभियान-1

चंद्रमा की सतह पर चंद्रयान-3 की सॉफ्ट लैंडिंग के बाद अब कुछ सवाल खड़े होते हैं। पहला सवाल है कि लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान अब अगले कुछ दिनों तक क्या काम करेंगे? वे कब तक चंद्रमा पर रहेंगे और कितने समय तक सक्रिय रहेंगे?  चंद्रयान-3 का चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना महत्वपूर्ण क्यों है? अभी तक किसी देश ने वहाँ अपना यान क्यों नहीं उतारा? भारत ने अपना यान उतारने का फैसला क्यों किया?  दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आने वाले कुछ समय में भारत की अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़ी परियोजनाएं क्या हैं? तीसरा सवाल है कि इस अभियान से वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक और राजनयिक क्षेत्र में भारत के रुतबे और रसूख पर क्या फर्क पड़ने वाला है?

ये तीन अलग विषय हैं, पर चंद्रयान-3 के कारण एक-दूसरे से जुड़े हैं। सबसे पहले चंद्रयान-3 की संरचना पर ध्यान दें। चंद्रयान का जब प्रक्षेपण किया गया था, तब रॉकेट पर चंद्रयान-3 दो भागों में उससे जुड़ा हुआ था। एक था प्रोपल्शन मॉड्यूल और दूसरा, दूसरा लैंडर विक्रम। लैंडर विक्रम के भीतर रखा गया था रोवर प्रज्ञान, जो सॉफ्ट लैंडिंग के बाद बाहर निकल कर अब चंद्रमा की सतह पर भ्रमण कर रहा है।

प्रणोदन (प्रोपल्शन) मॉड्यूल 100 किमी चंद्र कक्षा तक लैंडर और रोवर विन्यास को लेकर गया और वहाँ से वह अलग हो गया। पर उसका काम इतना ही नहीं था। चंद्र कक्षा से पृथ्वी के वर्णक्रमीय और ध्रुवीय मीट्रिक मापों का अध्ययन करने के लिए उसमें स्पेक्ट्रो-पोलरिमेट्री ऑफ हैबिटेबल प्लेनेट अर्थ (एसएचएपीई) नीतभार (पेलोड) है। इससे वह चंद्रमा की कक्षा में परावर्तित प्रकाश के जरिए पृथ्वी का अध्ययन करेगा।

चंद्रयान-3 ने खोले संभावनाओं के द्वार


चंद्रयान-3 की सफलता ने देश-विदेश में करोड़ों भारतीयों को खुशी का मौका दिया है। इतिहास में ऐसे अवसर कभी-कभी आते हैं, जब इस तरह करोड़ों भावनाएं एकाकार होती हैं। दुनिया ने भारत को स्पेस-पावर के रूप में स्वीकार कर लिया है। हालांकि रूस और अमेरिका पाँच दशक पहले चंद्रमा पर विजय प्राप्त कर चुके हैं, फिर भी भारत की यह उपलब्धि बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के संसाधनों को देखते हुए हमारी उपलब्धि हल्की नहीं है। चंद्रयान की इस सफलता के चार दिन पहले ही रूस को चंद्रमा पर निराशा का सामना करना पड़ा। भारत ने जिस तकनीक और किफायत से इस उपलब्धि को हासिल किया, उसपर गौर करने की जरूरत है। किफायती हाई-टेक के क्षेत्र में भारत ने अपने झंडे गाड़े हैं। चंद्रयान-2 की विफलता से हासिल अनुभव का इसरो ने फायदा उठाया और उन सारी गलतियों को दूर कर दिया, जो पिछली बार हुई थीं। उन्नत चंद्रयान-3 लैंडर को आकार देने के लिए 21 उप-प्रणालियों को बदला गया। ऐसी व्यवस्था की गई कि यदि किसी एक पुर्जे या प्रक्रिया में खराबी आ जाए, तो दूसरा उसकी जगह काम संभाल लेगा। लैंडिंग की प्रक्रिया को मिनटों और सेकंडों के छोटे-छोटे कालखंडों में बाँटकर इस तरह से संयोजित किया गया कि अभियान के विफल होने की संभावना ही नहीं बची।

14 दिन का कार्यक्रम

चंद्रयान-3 के तीन बड़े लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए चंद्रयान के पास 14 दिन का समय है। पहला, चंद्र सतह पर सुरक्षित और सॉफ्ट लैंडिंग की क्षमता प्रदर्शित करना। दूसरा, रोवर प्रज्ञान का चंद्रमा की सतह पर भ्रमण और तीसरा वैज्ञानिक प्रयोगों को पूरा करना। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए लैंडर व रोवर में सात पेलोड लगे हैं। विक्रम और प्रज्ञान दोनों ही सौर ऊर्जा से संचालित हैं। जिस इलाके में ये उतरे हैं, वहाँ सूरज की रोशनी तिरछी पड़ती है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए इनमें लंबवत यानी खड़े सोलर पैनल लगे हैं। भविष्य में चंद्रमा को डीप स्पेस स्टेशन के तौर पर इस्तेमाल करने के लिहाज से 14 दिन के ये प्रयोग अहम साबित होंगे। इन क्रेटरों में इंसान भविष्य में टेलिस्कोप लगाकर सुदूर अंतरिक्ष का अध्ययन कर सकता है। यहाँ से बहुमूल्य खनिजों को हासिल किया जा सकता है। 

Saturday, August 26, 2023

घातक है संसदीय-विमर्श की गुणवत्ता का ह्रास

संसद के मॉनसून-सत्र के समापन के आखिरी दिन गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 पेश करके देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी बदलाव लाने का दावा किया है। गृहमंत्री ने इस सिलसिले में तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। इन कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दिया जाता है। मामूली हेरफेर के साथ ये कानून आजतक चले आ रहे हैं। सरकार का दावा है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना करेंगे। हालांकि इन्हें तैयार करने के पहले विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली है, फिर भी इनके न्यायिक, सामाजिक और सामाजिक प्रभावों पर व्यापक विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। इन्हें पेश करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया। संसदीय समिति में इसके विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। उसके बाद इन्हें विधि आयोग के पास विचारार्थ भी भेजा जाएगा।

यह विमर्श घूम-फिरकर संसद में आएगा, इसलिए राजनीतिक दलों के बीच सबसे पहले इस विषय पर ईमानदार चर्चा की ज़रूरत है। पंचायत राज, सूचना के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़े कानूनों पर इस तरह की बहस हुई भी थी। ऐसी बहसों को यथासंभव राजनीति से बचाने की ज़रूरत होती है। किसी खास सामुदायिक वर्ग पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल करते समय उसकी ज़रूरत भी होगी। सरकार को भी आलोचना से भागने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि कानूनों में रह गई छोटी सी त्रुटि को दूर करने के लिए फिर से एक लंबी प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है। पर सवाल दूसरे हैं। इन कानूनों पर विचार कब और कैसे होगा?

Wednesday, August 23, 2023

पाकिस्तान में राजनीतिक-संशय और बढ़ता कट्टरपंथ


पाकिस्तानी राजनीति चुनाव की ओर बढ़ चली है. चुनाव-संचालन के लिए नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति हो गई है और तैयारियाँ चल रही हैं. अब सवाल है कि क्या वहाँ स्थिर असैनिक-सरकार और लोकतंत्र सफलता के साथ चलेगा?  कार्यवाहक सरकार बनते ही जो सबसे पहली घटना हुई है, उससे अंदेशा कम होने के बजाय बढ़ा है.

गत 9 अगस्त को भंग होने के पहले संसद ने कई कानूनों, उनमें संशोधनों और निर्णयों को पास किया था. इनमें आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और आर्मी एक्ट (संशोधन) भी था. ये दोनों कानून लागू हो चुके हैं और अब अचानक राष्ट्रपति डॉ आरिफ़ अल्वी ने कहा है कि मैंने इन दोनों पर दस्तख़त ही नहीं किए हैं.

कानून बने

दूसरी तरफ कार्यवाहक क़ानून मंत्री ने कहा है कि ये दोनों बिल अब क़ानून की शक्ल ले चुके हैं और इनको नोटिफाई भी कर दिया गया है. इतनी बड़ी विसंगति कैसे संभव है?  सोशल मीडिया जारी बयान में आरिफ़ अल्वी ने कहा है, मैं अल्लाह को गवाह मानकर कहता हूं कि मैंने दोनों पर दस्तख़त नहीं किए. मैं इन क़ानूनों से सहमत नहीं था.

हैरत इस बात की है कि देश के राष्ट्रपति को नहीं पता कि इन कानूनों को नोटिफाई कर दिया गया है. और अब वे ट्विटर के माध्यम से बता रहे हैं कि मैंने दस्तखत नहीं किए हैं. ऐसा लगता है कि कोई शक्ति पूरी व्यवस्था को अपारदर्शी बनाकर रखना चाहती है. अखबार डॉन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि डॉन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि जब भी हमने राष्ट्रपति कार्यालय से पता करने का प्रयास किया, किसी ने स्पष्ट नहीं किया कि कितने विधेयकों पर दस्तखत कर दिए गए हैं.  

Tuesday, August 22, 2023

आपराधिक-न्याय पर गंभीर विमर्श का मौका

मॉनसून सत्र के आखिरी दिन गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 पेश करके आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी बदलाव लाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाने का दावा जरूर किया है, पर इस दावे पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। गृहमंत्री ने तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलावों की बात कही गई है। इन कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को जाता है। उनकी व्यापक और दूरदृष्टि की काफी तारीफ की जाती है।

सरकार का दावा है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना करेंगे। इसीलिए इनके नाम अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में हैं। नए नाम हैं भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023। इस दृष्टि से देखें, तो संकल्प सिद्धांततः अच्छा है, फिर भी इन्हें पास करने में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए।

Sunday, August 20, 2023

न्याय-प्रणाली पर व्यापक विचार का मौका


मॉनसून सत्र के आखिरी दिन 11 अगस्त को गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 पेश करके देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी बदलाव लाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। एक महत्वपूर्ण और स्मरणीय सुधार माना जा रहा है। गृहमंत्री ने इस सिलसिले में तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। इन कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने बहुत दूरदृष्टि के साथ यह काम किया था। सरकार का दावा है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना करेंगे। इसीलिए इनके नाम अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में हैं। नए नाम हैं भारतीय न्याय संहिता-2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023। 

इस दृष्टि से देखें, तो संकल्प सिद्धांततः अच्छा है, फिर भी इन्हें पास करने में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। इनका हमारे जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। हालांकि इन्हें तैयार करने के पहले विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली है, फिर भी इनके न्यायिक, सामाजिक और सामाजिक प्रभावों पर व्यापक विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। इन्हें पेश करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया। संसदीय समिति में इसके विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। उसके बाद इन्हें विधि आयोग के पास विचारार्थ भी भेजा जाएगा।

बुनियादी सवाल

यह समझने की जरूरत है कि इन विधेयकों को लाने का उद्देश्य क्या है? क्या कोई अघोषित उद्देश्य भी है? यह व्यवस्था क्या आपराधिक-न्याय प्रणाली के दोषों को दूर करके उसका ओवरहॉल कर सकती है? क्या केवल कानूनी बदलाव से यह ओवरहॉल संभव है? मतलब न्याय-प्रणाली और पुलिस-व्यवस्था में सुधार किए बगैर यह ओवरहॉल हो पाएगा? न्याय-प्रणाली और पुलिस-व्यवस्था में सुधार कौन और कैसे करेगा? अभी तक वह क्यों नहीं हो पाया है? ऐसे तमाम सवाल अब खड़े होंगे। सरसरी निगाह से भी देखें, तो ये तीनों विधेयक वर्तमान व्यवस्था में कुछ बदलावों का सुझाव दे रहे हैं, बुनियादी व्यवस्था-परिवर्तन इनसे भले न हो, फिर भी यह साहसिक-निर्णय है। इन कानूनों को अपनी तार्किक-परिणति तक पहुँचने के लिए देश की राजनीतिक और सामाजिक संरचना से होकर भी गुजरना होगा। विरोधी-राजनीति ने कुछ दूसरे सवाल उठाने के अलावा यह भी कहा है कि इन कानूनों को गुपचुपतरीके से लाया गया है वगैरह। क्या ऐसा है? सबसे पहले इस आरोप की जाँच करें।

तैयारी और पृष्ठभूमि

विधेयक पेश करते समय गृहमंत्री ने कहा कि सरकार ने पिछले चार साल में इस विषय पर काफी विचार-विमर्श किया है। सरकार ने 2019 में राज्यपालों, उप राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत की थी। 2020 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों, बार कौंसिलों और विधि विश्वविद्यालयों को इस विमर्श में शामिल किया गया। 2021 में सांसदों और आईपीएस अधिकारियों को पत्र भेजे गए। हमें 18 राज्यों, छह केंद्र शासित प्रदेशों, सुप्रीम कोर्ट और 16 हाईकोर्टों, पाँच ज्यूडीशियल अकादमियों, 142 सांसदों, 270 विधायकों और नागरिकों के सुझाव प्राप्त भी हुए हैं। ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) को राज्यों तथा केंद्र के सुरक्षा बलों में नियुक्त आईपीएस अधिकारियों के सुझाव मिले हैं। इसके बाद नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने विचार किया, जिसकी 58 औपचारिक और 100 अनौपचारिक बैठकें इस विषय पर हुईं। इसके पहले भी विधि आयोग देश की आपराधिक न्याय-व्यवस्था में सुधार के बारे में विचार करता रहा और सुझाव देता रहा है। 

इसके अलावा बेज़बरुआ समिति, विश्वनाथन समिति, मलिमथ समिति, माधव मेनन समिति ने भी सुझाव दिए हैं। संसद की स्थायी समिति ने 2005 में अपनी 111वीं, 2006 में 128वीं और 2010 में 146वीं रिपोर्टों में भी इस आशय के सुझाव दिए हैं। मई 2020 में महामारी के दौरान इस विषय पर सुझाव देने के लिए नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञ समिति ने भी सुझाव दिए। इन सबको शामिल करते हुए भारत दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1898, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को समाप्त करते हुए उनके स्थान पर तीन नए कानूनों का प्रस्ताव किया है।

Thursday, August 17, 2023

चंद्रयान और उसके बहाने कुछ यादें

 


चंद्रयान-3 को लेकर एक पोस्ट मैंने फेसबुक पर बुधवार 16 अगस्त को लगाई तो मेरे मित्र संजय श्रीवास्तव ने लिखा कि चंद्रयान-1 ने चंद्रयान-3 के मुकाबले कम समय लगाया, ऐसा क्यों?  साइंस का मेरा ज्ञान सीमित है, जिज्ञासा ज्यादा है। इधर-उधर से पढ़कर मैं जो जान पाता हूँ, उसे ही शेयर करता हूँ। चंद्रयान पर आने से पहले मैं एक निजी अनुभव से शुरुआत करूँगा।

सत्तर के दशक में जब मैंने सबसे पहले लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करना शुरू किया, तब पहले दिन ही मुझे चीफ सब एडिटर वीरेंद्र सिंह के साथ लगा दिया गया। मेरी राय में वीरेंद्र सिंह निश्चित रूप से अपने दौर के सबसे काबिल पत्रकारों में से एक थे। कई कारणों से उनकी प्रतिभा को सामने आने का मौका मिला नहीं। अलबत्ता जो लोग पुराने जमाने की नवनीत में पुस्तक सार पढ़ते रहे हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दूँ कि बड़ी संख्या में पुस्तक सार वीरेंद्र सिंह ने लिखे थे।

मुझे सबसे पहले मिड शिफ्ट में काम करने का मौका मिला, जिसमें तीन से रात के नौ बजे तक काम होता था। वीरेंद्र सिंह ने मुझे स्पेस से जुड़ी पीटीआई की एक खबर पकड़ा दी। खबर काफी लंबी थी और मैंने पूरी खबर बना दी। वह खबर अखबार के आखिरी पेज पर टॉप बॉक्स के रूप में छपी। अपने लिखे अक्षर पहली बार खबर के रूप में देखकर जो खुशी मिलती है, वह खासतौर से पत्रकार दोस्तों को बताने की जरूरत नहीं।

बहरहाल अंतरिक्ष से मेरी दोस्ती की वह शुरुआत थी। मुझे पहली बार यह भी समझ में आया कि हिंदी की पत्रकारिता, मुकाबले अंग्रेजी की पत्रकारिता के, ज्यादा चुनौती भरी क्यों है। नीचे इस आलेख में आप एपोजी और पेरिजी कक्षाओं का जिक्र पढ़ेंगे। मैं अंग्रेजी का पत्रकार होता, तो कॉपी को अपर लोअर (अंग्रेजी के पत्रकार जानते हैं कि यह क्या है) करके छुट्टी कर लेता, पर मुझे एपोजी और पेरिजी को समझना पड़ा। और वह इंटरनेट का ज़माना नहीं था। बहरहाल।

हल्का और भारी पेलोड

संजय के सवाल के सिलसिले में जो जानकारी मैं हासिल कर पाया हूँ, उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि ऐसा कई कारणों से हो सकता है। चंद्रयान-1 का पेलोड बहुत हल्का था। वह इंपैक्टर था। उसे तो चंद्रमा से टकराना भर था। चंद्रयान-2 उसकी तुलना में काफी भारी थी और चंद्रयान-3 और ज्यादा भारी है। ऐसे में पृथ्वी और चंद्रमा की कक्षा में दायरा बढ़ाने और घटाने की प्रक्रिया चलती है, जिसमें काफी सावधानी बरतनी होती है। चंद्रयान-1 को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करने के बाद दायरा छोटा करने में समय लगा। चंद्रयान-2 अंतिम कुछ सेकंडों में अपनी स्पीड को काबू में नहीं रख पाया।

भारत-पाकिस्तान एकसाथ ‘15 अगस्त’ क्यों नहीं मनाते?

पाकिस्तान की स्वतंत्रता की पहली वर्षगाँठ पर जारी डाक टिकट, जिसमें स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त बताया गया है। 

भारत और पाकिस्तान के टाइम-ज़ोन अलग-अलग हैं. स्वाभाविक है, दोनों की भौगोलिक स्थितियाँ अलग हैं, इसलिए टाइम-ज़ोनभी अलग हैं, पर दोनों के स्वतंत्रता दिवस अलग क्यों हैं?  एक दिन आगे-पीछे क्यों मनाए जाते हैं, जबकि दोनों ने एक ही दिन स्वतंत्र देश के रूप में जन्म लिया था? इसके पीछे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की खुद को भारत से अलग नज़र आने की चाहत है.

पाकिस्तान में एक तबका खुद को भारत से अलग साबित करने पर ज़ोर देता है. उन्हें लगता है कि हम भारत के साथ एकता को स्वीकार कर लेंगे, तो इससे हमारे अलग अस्तित्व के सामने खतरा पैदा हो जाएगा. उनकी कोशिश होती हैं कि देश के इतिहास को भी केवल इस्लामी इतिहास के रूप में पेश किया जाए. सरकारी पाठ्य-पुस्तकों में इतिहास का काफी काट-छाँटकर विवरण दिया जाता है.

बेशक, यह न तो पूरे देश की राय है और न संज़ीदा लेखक, विचारक ऐसा मानते हैं, पर एक तबका ऐसा ज़रूर है, जो भारत से अलग नज़र आने के लिए कुछ भी करने को आतुर रहता है. इस इलाके में एकता से जुड़े जो सुझाव आते हैं, उनमें दक्षिण एशिया महासंघ बनाने, एक-दूसरे के यहाँ आवागमन आसान करने, वीज़ा की अनिवार्यता खत्म करने और कलाकारों, खिलाड़ियों तथा सांस्कृतिक-सामाजिक कर्मियों के आने-जाने की सलाह दी जाती है.

1857 की वर्षगाँठ

इन सलाहों पर अमल कौन और कब करेगा, इसका पता नहीं, अलबत्ता 14 और 15 अगस्त के फर्क से पता लगता है कि किसी को न बातों पर आपत्ति है. 2006-07 में जब भारत में 1857 की क्रांति की 150वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी, तब एक प्रस्ताव था कि भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों मिलकर इसे मनाएं, क्योंकि ये तीनों देश उस संग्राम के गवाह हैं.

जनवरी 2004 में दक्षेस देशों के इस्लामाबाद में हुए 12वें शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुझाव दिया था कि क्यों न हम 2007 में 1857 की 150वीं वर्षगाँठ तीनों देश मिलकर मनाएं. पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रवक्ता मसूद खान से जब यह सवाल पूछा गया, तब उन्होंने कहा, इसका जवाब है नहीं. उसके अगले दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़फरुल्ला खां जमाली ने कहा, देखते हैं विचार करेंगे. वैसे पाकिस्तान 1857 को दूसरी निगाह से देखता है.

बहरहाल दोनों देशों के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हमारा सवाल बनता है कि हम मिलकर एक ही दिन अपना स्वतंत्रता-दिवस क्यों नहीं मनाते? इसके जवाब में अजब-गजब बातें कही जाती हैं.

एक दिन पहले शपथ

भारत 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, तो पाकिस्तान भी उसी दिन आज़ाद हुए. भ्रम केवल इस बात से है कि पाकिस्तान की संविधान सभा में गवर्नर जनरल और वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन का भाषण और उसके बाद का रात्रिभोज 14 अगस्त को हुआ था.

चूंकि भारत ने अपना कार्यक्रम मध्यरात्रि से रखा था, इसलिए यह सम्भव नहीं था कि वे कराची और दिल्ली में एक ही समय पर उपस्थित हो पाते. किसी ने ऐसा सोचा होता, तो शायद दोनों देशों की सीमा पर 14-15 की मध्यरात्रि को एक ऐसा समारोह कर लिया जाता, जिसमें दोनों देशों का जन्म एकसाथ होता.

शायद इस वजह से 14 अगस्त की तारीख को चुना गया, पर 14 अगस्त को पाकिस्तान बना ही नहीं था. शपथ दिलाने से पाकिस्तान बन नहीं गया, वह 15 को ही बना. तब पाकिस्तान ने 15 अगस्त को ही स्वतंत्रता दिवस मनाया और कई साल तक 15 को मनाया.

Wednesday, August 16, 2023

चंद्रयान-3 और लूना-25 की रेस

एक हफ्ते बाद संभवतः 23 अगस्त को चंद्रयान-3 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग होगी। इसके एक या दो दिन पहले रूसी मिशन लूना-25 चंद्रमा पर उतर चुका होगा। चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण 14 जुलाई को हुआ था, जबकि रूसी मिशन का प्रक्षेपण 10 अगस्त को हुआ। आपके मन में सवाल होगा कि फिर भी रूसी यान भारतीय यान से पहले क्यों पहुँचेगा? चंद्रयान-3 चंद्रमा की सतह पर तभी उतरेगा, जब वहाँ की भोर शुरू होगी। चूंकि रूसी लैंडर भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा, इसलिए संभवतः रूस इस बात का श्रेय लेना चाहता है कि दक्षिणी ध्रुव पर उतने वाला पहला यान रूसी हो। दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक किसी देश का यान नहीं उतरा है।

चंद्रमा का एक दिन धरती के 14 दिन के बराबर होता है। चंद्रयान-3 केवल 14 दिन काम करने के लिए बनाया गया है, जबकि रूसी यान करीब एक साल काम करेगा। लूना-25 जिस जगह उतरेगा वहाँ भोर दो दिन पहले होगी। भोर का महत्व इसलिए है, क्योंकि चंद्रमा की रात बेहद ठंडी होती है। वहाँ दिन का तापमान 140 डिग्री से ऊपर होता है और रात का माइनस 180 से भी नीचे।

खुशहाली की राहों में हम होंगे कामयाब


आज़ादी के सपने-09

कई साल से देश में एक कहावत चल रही है, सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान.’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती है. यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन है कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं. दूसरी तरफ एक सचाई की स्वीकृति भी थी. 

हताश होकर हम अपना मजाक उड़ाते हैं. पर हम विचलित हैं, हारे नहीं हैं. सच यह है कि भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए 76 साल काफी नहीं होते. खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका हो.

मदर इंडिया

फिल्म ‘मदर इंडिया’ की रिलीज के कई दशक बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है.

चैनल का कहना था कि हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं.

1957 में रिलीज़ हुई महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं. स्वतंत्रता के ठीक दस साल बाद बनी इस फिल्म की कहानी के परिवेश और पृष्ठभूमि में काफी बदलाव आ चुका है. यह फिल्म बदहाली की नहीं, बदहाली से लड़ने की कहानी है.

भारतीय गाँवों की तस्वीर काफी बदल चुकी है या बदल रही है, फिर भी यह फिल्म आज भी पसंद की जाती है. टीवी चैनलों को ट्यून करें, तो आज भी यह कहीं दिखाई जा रही होगी. मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो ‘मदर इंडिया’ देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म साबित होगी.  

इक्कीसवीं सदी में विदेश-नीति की बदलती दिशा


आज़ादी के सपने-08

भारत को आज़ादी ऐसे वक्त पर मिली, जब दुनिया दो खेमों में बँटी हुई थी. दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. यह चुनौती आज भी है. ज्यादातर बुनियादी नीतियों पर पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की छाप थी, जो 17 वर्ष, यानी सबसे लंबी अवधि तक, विदेशमंत्री रहे.

राजनीतिक-दृष्टि से उनका वामपंथी रुझान था. साम्राज्यवादउपनिवेशवाद और फासीवाद के वे विरोधी थे. उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक-दृष्टि में रूमानियत इतनी ज्यादा थी कि कुछ मामलों में राष्ट्रीय-हितों की अनदेखी कर गए. किसी भी देश की विदेश-नीति उसके हितों पर आधारित होती है. भारतीय परिस्थितियाँ और उसके हित गुट-निरपेक्ष रहने में ही थे. बावजूद इसके नेहरू की नीतियों को लेकर कुछ सवाल हैं.

चीन से दोस्ती

कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण और तिब्बत पर चीनी हमले के समय की उनकी नीतियों को लेकर देश के भीतर भी असहमतियाँ थीं. तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और नेहरू जी के बीच के पत्र-व्यवहार से यह बात ज़ाहिर होती है. उन्होंने चीन को दोस्त बनाए रखने की कोशिश की ताकि उसके साथ संघर्ष को टाला जा सके, पर वे उसमें सफल नहीं हुए.

तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारत का दूतावास हुआ करता था. उसका स्तर 1952 में घटाकर कौंसुलर जनरल का कर दिया गया. 1962 की लड़ाई के बाद वह भी बंद कर दिया गया. कुछ साल पहले भारत ने ल्हासा में अपना दफ्तर फिर से खोलने की अनुमति माँगी, तो चीन ने इनकार कर दिया.

1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण जरूर दी, पर एक-चीन नीति यानी तिब्बत पर चीन के अधिकार को मानते रहे.  आज भी यह भारत की नीति है. तिब्बत को हम स्वायत्त-क्षेत्र मानते थे. चीन भी उसे स्वायत्त-क्षेत्र मानता है, पर उसकी स्वायत्तता की परीक्षा करने का अधिकार हमारे पास नहीं है.

सुरक्षा-परिषद की सदस्यता

पचास के दशक में अमेरिका की ओर से एक अनौपचारिक प्रस्ताव आया था कि भारत को चीन के स्थान पर संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी कुर्सी दी जा सकती है. नेहरू जी ने उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि चीन की कीमत पर हम सदस्य बनना नहीं चाहेंगे.

उसके कुछ समय पहले ही चीन में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली थी, जबकि संरा में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक की ताइपेह स्थित कुओमिंतांग सरकार कर रही थी. नेहरू जी ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता भी दी और उसे ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन भी किया.

Tuesday, August 15, 2023

आंतरिक और वाह्य-सुरक्षा की चुनौतियाँ


 आज़ादी के सपने-07

आज़ादी के बाद से भारत को एकता और अखंडता की बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. एक नव-स्वतंत्र देश के लिए इनसे निबटना बेहद मुश्किल काम था. पिछले 76 साल में भारतीय सेना को एक के बाद मुश्किल अभियानों का सामना करना पड़ा है. उसने चार बड़ी लड़ाइयाँ पाकिस्तान के साथ और एक बड़ी लडाई चीन के साथ लड़ी हैं. पिछले तीन दशक से वह जम्मू-कश्मीर में एक छद्म-युद्ध का सामना कर रही है.

सीमा पर लड़े गए युद्धों के मुकाबले देश के भीतर लड़े गए युद्ध और भी मुश्किल हैं. शुरुआती वर्षों में पूर्वोत्तर के अलगाववादी आंदोलनों ने हमारी ऊर्जा को उलझाए रखा. सत्तर के दशक से नक्सलपंथी आंदोलन ने देश के कई हिस्सों को घेर लिया, जो आज भी जारी है. अस्सी के दशक में पाकिस्तानी शह पर खालिस्तानी आंदोलन शुरू हुआ, जिसे बार-बार भड़काने की कोशिशें हुईं.

धमाके और हिंसा

कश्मीर में सीधे 1947 और 1965 की घुसपैठों में नाकाम होने के बाद पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मुजाहिदीन की मदद से नब्बे के दशक में एक और हिंसक आंदोलन खड़ा किया. उस आंदोलन के अलावा देश के मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, वाराणसी और कोयंबत्तूर जैसे अनेक शहरों में बम धमाके हुए. दिल्ली में लाल किले और संसद भवन पर हमले किए गए.

इन हिंसक गतिविधियों के पीछे भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता और हमारे मनोबल को तोड़ने का इरादा था. ऐसी कोशिशें आज भी जारी हैं. अब इसमें सायबर हमले भी शामिल हो गए हैं. यह हाइब्रिड वॉर है. इससे लड़ने और राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए नई टेक्नोलॉजी और रणनीतियों की जरूरत है.

कश्मीर-युद्ध

कश्मीर के पहले युद्ध में उतरने के कुछ ही समय में भारतीय सेना ने कश्मीर के दो-तिहाई हिस्से पर अपना नियंत्रण कर लिया. युद्ध विराम 1 अक्तूबर, 1949 को हुआ. यह मामला संयुक्त राष्ट्र में गया, जिसकी एक अलग कहानी है. अलबत्ता इस लड़ाई ने भविष्य की कुछ लड़ाइयों और भारतीय राष्ट्र-राज्य की आंतरिक-सुरक्षा से जुड़ी बहुत सी समस्याओं और युद्धों को जन्म दिया.

इस लड़ाई को जीतने के बाद 1962 में भारत ने दूसरा युद्ध चीन के साथ लड़ा. चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख और अन्य इलाकों में हमले शुरू कर दिए. इस युद्ध का अंत 20 नवंबर, 1962 को चीन की ओर से युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ.

चंद्रयान पर सवार साइंस-टेक्नोलॉजी की सफलताएं


आजादी के सपने-06

चंद्रयान-3 ने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश कर लिया है. अब वह धीरे-धीरे निकटतम कक्षा में उतरता जा रहा है और सब ठीक रहा, तो 23 या 24 अगस्त को चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट-लैंडिंग करेगा. यह अभियान अपने विज्ञान-सम्मत कार्यों के अलावा दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने का काम करेगा.

चंद्रयान-3 के अलावा भारत इस साल सूर्य के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष अभियान भेजने जा रहा है. आदित्य-एल1 भारत का पहला सौर अभियान है. यह यान सूरज पर नहीं जाएगा, बल्कि धरती से 15 लाख किलोमीटर की दूरी से सूर्य का अध्ययन करेगा. एल1 या लॉन्ग रेंज पॉइंट धरती और सूर्य के बीच वह जगह है जहां से सूरज को बग़ैर किसी ग्रहण के अवरोध के देखा जा सकता है. इसके कुछ समय बाद ही हम गगनयान मिशन के परीक्षणों की खबरें सुनेंगे. पहले मानव रहित परीक्षण होंगे और उसके बाद तीन अंतरिक्ष-यात्रियों के साथ वास्तविक उड़ान होगी.

एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है. नए राजमार्गों का दौर शुरू हो चुका है. दिल्ली-मेरठ हाईस्पीड ट्रेन के साथ एक नया दौर शुरू होगा, जिसका समापन बुलेट ट्रेनों के साथ होगा. तबतक प्रायः सभी बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलने लगेंगी. देश की ज्ञान-आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है. इसके साथ सफलताओं की एक लंबी सूची है.

‘टॉप तीन’

जनवरी 2017 में तिरुपति में 104वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत 2030 तकनीकी विकास के मामले में दुनिया के ‘टॉप तीन’ देशों में शामिल होगा. देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को ही केंद्र बनाकर चलें, तो ‘टॉप तीन’ तो ‘टॉप चार’ या ‘टॉप पाँच’ में अपने आपको शामिल कर सकते हैं, पर विज्ञान और तकनीक का विकास केवल अंतरिक्ष-कार्यक्रम तक सीमित नहीं होता.

व्यावहारिक नजरिए से अभी हम शिखर देशों में शामिल नहीं हैं. विश्व क्या एशिया में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इसरायल और सिंगापुर के विज्ञान का स्तर हमसे बेहतर नहीं तो, कमतर भी नहीं है. वैज्ञानिक अनुसंधान पर हमारे कुल खर्च से चार गुना ज्यादा चीन करता है और अमेरिका 75 गुना. फिर भी इसरो के वैज्ञानिकों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने मंगलयान और चंद्रयान जैसे कार्यक्रम बहुत कम लागत पर तैयार करके दिखाया है.

नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कही कि कल के विशेषज्ञ पैदा करने के लिए हमें आज अपने लोगों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश करना होगा. आज हमारे पास 23 आईआईटी और 31 एनआईटी हैं. तीन हजार से ज्यादा दूसरे इंजीनियरी कॉलेज, पॉलीटेक्नीक और स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग हैं. इनसे पढ़कर करीब पाँच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं.

लोकतंत्र, कानून का शासन और राष्ट्रीय-एकता


 आजादी के सपने-05

 जिस समय हम 77वें स्वतंत्रता दिवस की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के फैसले की वैधानिकता पर देश के सुप्रीमकोर्ट की संविधान-बेंच सुनवाई कर रही है. केंद्र सरकार के इस फैसले और उसके निहितार्थ को लेकर 23 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं. फैसला जो भी हो, साबित क्या होगा?

साबित होगी भारतीय लोकतंत्र और उससे जुड़ी संस्थाओं और जनमत की ताकत. हमारे लोकतंत्र के सामने नागरिकों के हितों के अलावा न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना, बहुजातीय-बहुधर्मी-बहुभाषी व्यवस्था को संरक्षण देने के साथ राष्ट्रीय-एकता और अखंडता की रक्षा करने की चुनौती भी है. इस चुनौती को पूरा करने के लिए संविधान हमारा मार्गदर्शक है.

भारतीय संविधान

हमारे पास दुनिया का सबसे विषद संविधान है. दुनिया में सांविधानिक परम्पराएं तकरीबन साढ़े तीन सौ साल पुरानी हैं. लिखित संविधान तो और भी बाद के हैं. 1787 में अमेरिकी संविधान से इसकी शुरूआत हुई. ऑस्ट्रियो हंगेरियन संघ ने 1867 में ऑस्ट्रिया में संविधान लागू किया. ब्रिटिश संविधान तो लिखा ही नहीं गया, परंपराओं से बनता चला गया.

लोकतंत्र का दबाव था कि उन्नीसवीं सदी में अनेक सम्राटों एवं राजाओं ने अपने देशों में संविधान रचना की. भारतीय संविधान की रचना के समय उसके निर्माताओं के सामने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा, लोकतंत्र, संघीय और राज्यों के कार्यक्षेत्र की स्पष्ट व्याख्या, सामाजिक न्याय और इस देश की बहुल संस्कृति की रक्षा जैसे सवाल थे.

लोकतांत्रिक-समाज

पिछले 76 साल के सांविधानिक अनुभव को देखें तो सफलता और विफलता के अनेक मंजर देखने को मिलेंगे. कभी लगता है हम लोकतंत्र से भाग रहे हैं. या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं. या लोकतंत्र हमारे लायक नहीं है. या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता. उसकी व्यावहारिक दिक्कतें हैं. वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है.

वस्तुतः समाज ही अपने लोकतंत्र को बढ़ावा देता है और लोकतंत्र से समाज का विकास होता है. संविधान का मतलब है कानून का शासन. पिछले 76 वर्षों में इन दोनों बातों की परीक्षा हुई है. हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

Monday, August 14, 2023

बड़ी चुनौती, स्वस्थ और शिक्षित नागरिक



आज़ादी के सपने-04

भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया. बावजूद इसके कि पहले दो दशक की आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी. जवाहर लाल नेहरू ने भारत में मध्यवर्ग को तैयार किया, दूसरी तरफ चीन ने बुनियादी विकास पर ध्यान दिया. समय के साथ सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया. हमें इन दोनों के बारे में सोचना चाहिए.

कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी कम से कम तीन क्षेत्रों में नागरिकों को सबल बनाने की है. वे सबल होंगे, तो उनकी भागीदारी से देश और समाज ताकतवर होता जाएगा. ये तीन क्षेत्र हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय.

सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है. नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा.

शायद यही वजह है कि उच्च और तकनीकी शिक्षा में हमारा प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर है. सत्तर के दशक में दो ग़रीब देश, आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे. इनमें से एक खेलों में ही नहीं जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे निकल गया और दूसरा काफ़ी पीछे रह गया.

इस सच को ध्यान में रखना होगा कि चीन 'रेजीमेंटेड' देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है. भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा मुश्किल है. हमारे यहाँ जो भी होगा, उसे एक लोकतांत्रिक-प्रक्रिया से गुजरना होगा. देश के अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों से विमर्श के बाद ही फैसलों को लागू किया जा सकता है.

स्वास्थ्य-चेतना

महामारी के कारण पिछले तीन साल वैश्विक स्वास्थ्य-चेतना के वर्ष थे. इस दौरान वैश्विक स्वास्थ्य-नीतियों का पर्दाफाश हुआ. भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार हमारे यहाँ बाल पोषण के संकेतक उत्साहवर्धक नहीं हैं. बच्चों की शारीरिक विकास अवरुद्धता में बड़ा सुधार नहीं है और 13 राज्यों मे आधे से ज्यादा बच्चे और महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित हैं.

2020 मे सुप्रीम कोर्ट के एक पीठ ने स्वास्थ्य को नागरिक का मौलिक अधिकार मानते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश सरकार को दिए थे. अदालत ने कहा, राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ती चिकित्सा की व्यवस्था करे. अदालत की टिप्पणी में दो बातें महत्वपूर्ण थीं. स्वास्थ्य नागरिक का मौलिक अधिकार है. दूसरे, इस अधिकार में सस्ती या ऐसी चिकित्सा शामिल है, जिसे व्यक्ति वहन कर सके.

महंगा इलाज

अदालत ने यह भी कहा कि इलाज महंगा और महंगा होता गया है और यह आम लोगों के लिए वहन करने योग्य नहीं रहा है. भले ही कोई कोविड-19 से बच गया हो, लेकिन वह आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है. इसलिए सरकारी अस्पतालों मे पूरे इंतजाम हों या निजी अस्पतालों की अधिकतम फीस तय हो. यह काम आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत शक्तियों को प्रयोग करके किया जा सकता है.

देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर 1983, 2002 और 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियाँ बनाई गई हैं. 2017 की नीति से जुड़ा कार्यक्रम है आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना. इसके अलावा ग्रामीण भारत से जुड़ी कई सामाजिक परियोजनाओं को शुरू किया गया है, जो खासतौर से वृद्धों, महिलाओं और निराश्रितों पर केंद्रित हैं.

गरीबों की अनदेखी

सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर वैश्विक रणनीति का जिक्र अस्सी के दशक में तेजी से शुरू हुआ. 1978 में यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अल्मा-अता घोषणा की थी-सन 2000 में सबके लिए स्वास्थ्य! संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1974 में अपने विशेष अधिवेशन में नई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की घोषणा और कार्यक्रम का मसौदा पास किया.

अल्मा-अता घोषणा में स्वास्थ्य को मानवाधिकार मानते हुए इस बात का वायदा किया गया था कि दुनिया की नई सामाजिक-आर्थिक संरचना में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी सरकारें लेंगी. इतनी बड़ी घोषणा के बाद अगले दो वर्षों में इस विमर्श पर कॉरपोरेट रणनीतिकारों ने विजय प्राप्त कर ली.

वोटर का भरोसा तोड़ रही है संसदीय बहस


संसद के मॉनसून-सत्र में अपने प्रदर्शन को लेकर सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष संभव है संतुष्ट हों, पर संसदीय-कर्म की दृष्टि से मॉनसून सत्र बहुत सकारात्मक संदेश छोड़कर नहीं गया। सत्र शुरू होने के पहले लगता था कि मणिपुर का मुद्दा बहुत बड़ा है, बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई वगैरह पर भी सरकार को घेरने में विपक्ष सफल होगा। पर लगता नहीं कि इसमें सफलता मिल पाई। बल्कि लगता है कि मणिपुर को लेकर पैदा हुई तपन अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। राज्यसभा में 11 अगस्त को इस विषय पर चर्चा की बात कही गई थी, पर वह भी नहीं हुई। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने अपने समापन भाषण में कहा कि सदन में मणिपुर पर चर्चा की जा सकती थी।

विपक्ष ने मणिपुर पर चर्चा कराने के बजाय प्रधानमंत्री के वक्तव्य पर जो अतिशय जोर दिया, उससे हासिल क्या हुआ? अविश्वास-प्रस्ताव का जवाब देते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, विपक्ष का पसंदीदा नारा है, मोदी तेरी कब्र खुदेगी। ये मुझे कोसते हैं, जो मेरे लिए वरदान है। 20 साल में क्या कुछ नहीं किया, पर मेरा भला ही होता गया। मैं इसे भगवान का आशीर्वाद मानता हूं कि ईश्वर ने विपक्ष को सुझाया और वे प्रस्ताव लेकर आए।

मोदी की बात का जो भी मतलब हो, पर यदि विपक्ष को अपने अविश्वास-प्रस्ताव के प्रदर्शन से संतोष है, तो अलग बात है। अन्यथा लगता है कि अतिशय मोदी-विरोध की रणनीति से मोदी को ही लाभ होगा। अविश्वास-प्रस्ताव पर बहस के दौरान राजनीति के तमाम गड़े मुर्दे उखाड़े गए और बहस का स्तर लगातार गिरता चला गया। । दोनों सदनों में शोर मणिपुर को लेकर शोर, पर बातें किन्हीं दूसरे विषयों की हुईं। आप खुद सोचिए इनका राजनीतिक लाभ किसे मिला?