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Wednesday, July 28, 2021

आर्थिक सुधार यानी मजबूरी का नाम…

भारत में आर्थिक सुधारों को आप चार जगहों पर आसानी से देख सकते हैं। सॉफ्टवेयर, ऑटोमोबाइल उद्योग और तीसरे हैल्थकेयर के क्षेत्र में। जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा सप्लायर भारत है। ‘हैल्थ टूरिज्म’ का महत्वपूर्ण पड़ाव। चौथे यानी ‘जैम’ के प्रभाव को देखने के लिए ग्रामीण इलाकों में जाना होगा। जनधन, आधार और मोबाइल की त्रिशक्ति का ‘जैम’ एक चौथा काम कर रहा है, जिसे डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) कहते हैं। स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्किल इंडिया, मेक इन इंडिया जैसे शब्द उदारीकरण की देन हैं।   

विडंबना है कि हमने आर्थिक-सुधार किए नहीं, समय ने मजबूर किया। इन्हें ऐसी अल्पसंख्यक-सरकार ने शुरू किया, जिसके प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद संसद-सदस्य नहीं थे। फिर भी वह जबर्दस्त शुरूआत थी। उसके बाद पहले 100 दिन में जैसा बदलाव आया, वैसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। आर्थिक-सुधारों को लेकर या तो आमराय नहीं है या उनके महत्व को राजनीतिक-दल समझ नहीं पाए हैं।  

बड़ी देर कर दी मेहरबान

हमने जब यह रास्ता पकड़ा, उसके सौ साल पहले जापान ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला था। चीन ने सत्तर के दशक में इसकी शुरूआत की थी। दक्षिण कोरिया और मलेशिया जैसे देशों ने भी हमसे पहले अपनी अर्थव्यवस्थाओं को खोल लिया था। भारत ने जब यह फैसला किया, देश असाधारण राजकोषीय घाटे और भुगतान संकट में था। सरकार यूनियन बैंक ऑफ स्विट्ज़रलैंड और बैंक ऑफ इंग्लैंड में 67 टन सोना गिरवी रख चुकी थी।  

जनवरी 1991 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था, जो जून आते-आते इसका आधा रह गया। आयात भुगतान के लिए तकरीबन तीन सप्ताह की मुद्रा हमारे पास थी। ऊपर से राजनीतिक अस्थिरता थी। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की अल्पमत सरकार कांग्रेस के सहयोग पर टिकी थी। फौरी तौर पर हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा और सोना गिरवी रखना पड़ा। अगले अठारह साल में कहानी बदल गई। 1991 में सोना गिरवी रखने वाले देश ने नवम्बर 2009 में उल्टे आईएमएफ से 200 टन सोना खरीदा।