बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम
एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य
न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से
पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी
नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही
है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या
देश की राजनीति ने ‘बीजेपी और शेष’ के फॉर्मूले को मंजूर
कर लिया है?
इस मुहिम के केन्द्र
में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग
से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने
के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं
की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा
कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने
वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक
संकट की ओर इशारा कर रहा है।
ममता-सोनिया संवाद
बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया
गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का
महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक
ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं,
उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी
कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता
बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट
में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?