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Sunday, October 8, 2023

जातियों का मसला, समस्या या समाधान


बिहार में जातियों की जनगणना के नतीजे आने के बाद देश में जातिगत-आरक्षण की बहस फिर से तेज होने जा रहा है, जिसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। सर्वेक्षण का फायदा गरीब, पिछड़ों और दलितों को मिले या नहीं मिले, पर इसका राजनीतिक लाभ सभी दल लेना चाहेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर जाति-जनगणना की माँग और शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण की 50 फीसदी की कानूनी सीमा पर फिर से विचार करने की माँग जोर पकड़ेगी। न्यायपालिका से कहा जाएगा कि आरक्षण पर लगी कैप को हटाया जाए। हिंदुओं के व्यापक आधार तैयार करने की मनोकामना से प्रेरित भारतीय जनता पार्टी और ओबीसी, दलितों और दूसरे सामाजिक वर्गों के हितों की रक्षा के लिए गठित राजनीतिक समूहों के टकराव का एक नया अध्याय अब शुरू होगा। 

यह टकराव पूरी तरह नकारात्मक नहीं है। इसके सकारात्मक पहलू भी हैं। यह जानकारी भी जरूरी है कि हमारी सामाजिक-संरचना वास्तव में है क्या। सर्वेक्षण से पता चला है कि बिहार की 13 करोड़ आबादी के 63 फीसदी हिस्से का ताल्लुक अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की श्रेणियों में शामिल की गई जातियों से है। इसमें लोगों के सामाजिक-आर्थिक विवरण भी दर्ज किए गए हैं, लेकिन वे अभी सामने नहीं आए हैं। उधर गत 31 जुलाई को रोहिणी आयोग ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। हालांकि उसकी सिफारिशों को सार्वजनिक नहीं किया गया है, पर उसके निहितार्थ महत्वपूर्ण होंगे। जो स्थिति अगड़ों की थी, वह अब पिछड़ों में अगड़ों की होगी। इससे एक नई राजनीति जन्म लेगी। बिहार का डेटा उसकी तरफ इशारा कर रहा है।  

Monday, June 19, 2023

लोकसभा चुनाव से पहले फिर छिड़ेगी आरक्षण की बहस

लोकसभा चुनाव आने के पहले देश में जाति के आधार पर आरक्षण की बहस एकबार फिर से छिड़ने की संभावना है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने दावा किया था कि हम आरक्षण का प्रतिशत 50 फीसदी से ज्यादा करेंगे। कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया,  ‘जितनी आबादी, उतना हक। वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशी राम के नारे का ही एक रूप हैजिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जातीय आधार पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक रखी है, उसे खत्म करना चाहिए। 

इसके पहले रायपुर में हुए पार्टी महाधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव पास भी किया गया था। कर्नाटक चुनाव के ठीक पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने 3 अप्रेल को सामाजिक न्याय का नया मोर्चा बनाने की घोषणा की थी, जिसके पीछे विरोधी दलों की एकता कायम करना था। साथ ही इस एकता के पीछे ओबीसी तथा दलित जातियों के हितों के कार्य को आगे बढ़ाना था। बिहार की जातिगत जनगणना भी इसी का एक हिस्सा थी।

ओबीसी राजनीति का यह आग्रह केवल विरोधी दलों की ओर से ही नहीं है, बल्कि अब भारतीय जनता पार्टी भी इसमें पूरी ताकत से शामिल है। अगले साल चुनाव के ठीक पहले अयोध्या में राम मंदिर का एक हिस्सा जनता के लिए खोल दिया जाएगा। राम मंदिर का ओबीसी राजनीति से टकराव नहीं है, क्योंकि ओबीसी जातियाँ प्रायः मंदिर निर्माण के साथ रही हैं। बिहार में इस समय नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की राजनीति के समांतर बीजेपी की सोशल इंजीनियरी भी चल रही है।

Sunday, April 23, 2023

जातीय-जनगणना: प्रतिगामी या प्रगतिगामी


भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व के जवाब में विरोधी दलों ने सामाजिक न्याय के लिए एकताबद्ध होने का निश्चय किया है। गत 3 अप्रेल को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने विरोधी दलों की बैठक इसी इरादे से बुलाई थी। हाल में कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया,  ‘जितनी आबादी, उतना हक। वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशी राम के नारे का ही एक रूप है, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जातीय आधार पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक रखी है, उसे खत्म करना चाहिए। इसके पहले रायपुर में हुए पार्टी महाधिवेशन में इस आशय का एक प्रस्ताव पास भी किया गया है। ज़ाहिर है कि पार्टी ने मंडल-राजनीति का वरण करके आगे बढ़ने का निश्चय किया है। पार्टी की जिन दलों के साथ गठबंधन की बातें चल रही हैं, उनमें से ज्यादातर मंडल-समर्थक हैं। इन पार्टियों की माँग है कि देश में जाति-आधारित जनगणना होनी चाहिए। बिहार सरकार ने इस मामले में पहल की है, जहाँ इन दिनों जातीय आधार पर जनगणना चल रही है, जो मई में पूरी होगी। इसके अलावा 2011 में हुए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्टों को सार्वजनिक करने की माँग भी की गई है। केंद्र सरकार इन दोनों बातों के लिए तैयार नहीं है। जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है। 2021 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा, 'साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं। इससे जो आंकड़े हासिल हुए थे वे गलतियों से भरे और अनुपयोगी थे।'

सामाजिक अंतर्विरोध

विशेषज्ञ मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना देर सवेर होनी ही है। इस सवाल को राजनीति से अलग रखकर देखना भी मुश्किल है। राज्य सरकारें कई तरह की अपेक्षाओं के साथ जातिगत जनगणना करा रही हैं। जब उनकी राजनीतिक अपेक्षाएं सही नहीं उतरती हैं, तब जनगणना से मिले आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। बिहार से पहले कर्नाटक में भी जातिगत जनगणना हुई थी, पर उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इसी तरह की एक जनगणना नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में भी हो चुकी है। दुनिया के तमाम देश ‘एफर्मेटिव एक्शन’ के महत्व को स्वीकार करते हैं। ये कार्यक्रम केवल शिक्षा से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें किफायती आवास, स्वास्थ्य और कारोबार से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में ऐसे सकारात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनके अच्छे परिणाम भी आए हैं। सामाजिक शोध बताते हैं कि अमेरिका में गोरों की तुलना में कम अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले अश्वेतों ने कालांतर में अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में बेहतर स्थान पाया। भारत के संदर्भ में अर्थशास्त्री विक्टोरिया नैटकोवस्का, अमर्त्य लाहिड़ी और सौरभ बी पॉल ने 1983 से 2005 तक पाँच राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आँकड़ों विश्लेषण से साबित किया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के प्रदर्शन में सुधार हुआ है।

Tuesday, February 12, 2019

गुर्जर आंदोलन और आरक्षण का दर्शन


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//12022019//12022019-md-hr-10.pdf
राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर समुदाय के लोग फिर से आंदोलन की राह पर निकल पड़े हैं। राजस्थान सरकार असहाय नजर आ रही है। सांविधानिक सीमा के कारण वह कोई फैसला कर पाने की स्थिति में नहीं है। आरक्षण के बारे में अब नए सिरे से विचार करने का समय आ गया है। सन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए।
अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। पिछले 13 वर्ष में गुर्जर आंदोलनों में 72 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है। मई 2008 में भरतपुर की हिंसा में 15 व्यक्तियों की एक स्थान पर ही मौत हुई थी। स्थिति पर नियंत्रण के लिए सेना बुलानी पड़ा। राजस्थान के गुर्जर स्वयं को अनुसूचित जनजाति वर्ग में रखना चाहते थे, जैसाकि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में है। मीणा समुदाय ने गुर्जरों को इस आरक्षण में शामिल करने का विरोध किया, क्योंकि यदि गुर्जरों को शामिल किया गया तो उनका कोटा कम हो जाएगा। गुर्जर बाद में अति पिछड़ा वर्ग में आरक्षण के लिए तैयार हो गए। पर कानूनी कारणों से उन्हें केवल एक फीसदी आरक्षण मिल पाया है।
केंद्र सरकार ने जबसे आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की है और उसके लिए संविधान संशोधन भी किया है, उनकी माँग फिर से खड़ी हो गई है। चुनाव करीब हैं। आंदोलन का असर चुनाव पर पड़ने की उम्मीद भी है, शायद इसी वजह से वह फिर से भड़कता नजर आ रहा है। गुर्जरों की आबादी राजस्थान में सात फीसदी है। उनके आंदोलन की शुरूआत अपने लिए पाँच फीसदी आरक्षण की माँग से हुई थी। आंदोलन की शुरूआत सन 2006 में भरतपुर और दौसा में महापंचायतों से हुई थी।

Saturday, January 12, 2019

गेमचेंजर भले न हो, नैरेटिव चेंजर तो है

आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने वाला संविधान संशोधन विधेयक संसद में जितनी तेजी से पास हुआ, उसकी कल्पना तीन दिन पहले किसी को नहीं थी। कांग्रेस समेत दूसरे विरोधी दलों ने इस आरक्षण को लेकर सरकार की आलोचना की, पर इसे पास करने में मदद भी की। यह विधेयक कुछ उसी अंदाज में पास हुआ, जैसे अगस्त 2013 में खाद्य सुरक्षा विधेयक पास हुआ था। लेफ्ट से राइट तक के पक्षियों-विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो। आलोचना की भी तो ईर्ष्या भाव से, जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल। तकरीबन हरेक दल ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए।
तकरीबन वैसा ही यह 124 वाँ संविधान संशोधन ‘चुनाव आरक्षण विधेयक’ साबित हुआ। भारतीय राजनीति किस कदर गरीबों की हितैषी है, इसका पता ऐसे मौकों पर लगता है। चुनाव करीब हों, तो खासतौर से। राज्यसभा में जब यह विधेयक पास हो रहा था केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विरोधियों पर तंज मारा, आप इसे लाने के समय पर सवाल उठा रहे हैं, तो मैं बता दूं कि क्रिकेट में छक्‍का स्‍लॉग ओवर में लगता है। आपको इसी पर परेशानी है तो ये पहला छक्‍का नहीं है। और भी छक्‍के आने वाले हैं।
क्या कहानी बदलेगी?
इस छक्केबाजी से क्या राजनीति की कहानी बदलेगी? क्या बीजेपी की आस्तीन में कुछ और नाटकीय घोषणाएं छिपी हैं? सच यह है कि भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा विधेयक 2014 के चुनाव में कांग्रेस को कुछ दे नहीं पाए, बल्कि पार्टी को इतिहास की सबसे बड़ी हार हाथ लगी। कांग्रेस उस दौर में विलेन और मोदी नए नैरेटिव के नायक बनकर उभरे थे। पर इसबार कहानी बदली हुई है। इसीलिए सवाल है कि मोदी सरकार के वायदों पर जनता भरोसा करेगी भी या नहीं?  पार्टी की राजनीतिक दिशा का संकेत इस आरक्षण विधेयक से जरूर मिला है। पर रविशंकर प्रसाद ने जिन शेष छक्कों की बात कही है, उन्हें लेकर अभी कयास हैं।

Friday, January 11, 2019

क्या आरक्षण बीजेपी की नैया पार लगाएगा?

http://epaper.navodayatimes.in/1976127/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/10/1
मोदी सरकार ने चुनाव के ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव पास करके राजनीतिक धमाका किया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों अजा-जजा एक्ट में संशोधन के कारण यह वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। एक नया दल सपाक्स खड़ा हो गया। वोट फॉर नोटा का नारा दिया गया। आंदोलन की गूँज उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में भी सुनी गई। सवाल है कि क्या सरकार का यह फैसला इसी रोष को कम करने लिए है या कुछ और है? सरकार इस बहाने क्या आरक्षण पर बहस को शुरू करना चाहती है? लाख टके का सवाल यह है कि क्या इससे भाजपा के पक्ष में लहरें पैदा होंगी?

Tuesday, August 29, 2017

आरक्षण पर एक और बहस का आगाज़

केंद्र सरकार ने ओबीसी की केंद्रीय सूची में उप-श्रेणियाँ (सब-कैटेगरी) निर्धारित करने के लिए एक आयोग बनाने का फैसला किया है। प्रत्यक्ष रूप में इसका उद्देश्य यह है कि आरक्षण का लाभ ज़रूरतमंदों को मिले। ओबीसी आरक्षण का लाभ कुछ खास जातियों को ज्यादा मिल रहा है और कुछ को एकदम कम। यानी सम्पूर्ण ओबीसी को एक ही श्रेणी या वर्ग में रखने के अंतर्विरोध अब सामने आने लगे हैं। अब आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था भी एक नई बहस को जन्म देगी। आयोग यह बताएगा कि ओबीसी के 27 फीसदी कोटा को किस तरीके से सब-कोटा में विभाजित किया जाएगा।

सिद्धांततः सम्पूर्ण ओबीसी में उन जातियों को खोजने की जरूरत है, जिन्हें सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का लाभ कमतर मिला है। इसके साथ यह भी देखने की जरूरत है कि मंडल आयोग ने भले ही ओबीसी को जातीय दायरे में सीमित कर दिया था, सांविधानिक परिभाषा में यह पिछड़ा वर्ग (क्लास) है, जाति (कास्ट) नहीं।

Saturday, January 21, 2017

अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहेगा संघ

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने आरक्षण के बारे में जो कहा है, वह संघ के परंपरागत विचार के विपरीत नहीं है. संघ लंबे अरसे से कहता रहा है कि आरक्षण अनंतकाल तक नहीं चलेगा. संविधान-निर्माताओं की जो मंशा थी हम उसे ही दोहरा रहे हैं.
इस वक्त सवाल केवल यह है कि मनमोहन वैद्य ने इन बातों को कहने के पहले उत्तर प्रदेश के चुनावों के बारे में सोचा था या नहीं. अमूमन संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी बगैर सोचे-समझे बातें नहीं करते और जो बात कहते हैं वह नपे-तुले शब्दों में होती है. ऐसे बयान देकर वे अपनी उपस्थिति को रेखांकित करने का मौका खोते नहीं हैं.

Wednesday, March 2, 2016

क्या हो सकते हैं पिछड़ेपन के नए आधार?

पिछले साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी  कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता।
आजाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने सामाजिक अंतर्विरोधों को दुरुस्त करने की है। दुनिया के तमाम देश ‘एफर्मेटिव एक्शन’ के महत्व को स्वीकार करते हैं। ये कार्यक्रम केवल शिक्षा से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें किफायती आवास, स्वास्थ्य और कारोबार से जुड़े कार्यक्रम शामिल हैं। अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में ऐसे सकारात्मक कार्यक्रम चल रहे हैं। इनके अच्छे परिणाम भी आए हैं।

Sunday, September 27, 2015

आरक्षण पर बहस का पिटारा फिर खुला

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के बारे में जो राय व्यक्त की है उसका उद्देश्य यदि इस अवधारणा के राजनीतिक दुरुपयोग पर प्रहार करना है तो इससे ज्यादा गलत समय कोई और नहीं हो सकता था। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने फौरन ही अपने आप को इस बयान से अलग कर लिया है, पर राजनीतिक स्तर पर जो नुकसान होना था, वह हो चुका। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी स्पष्ट किया है कि इस बयान का लक्ष्य मौजूदा आरक्षण नीति पर टिप्पणी करना नहीं है। पर उन्होंने जिस बात की ओर इशारा किया था उसका निहितार्थ फौरन सामने है। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने फौरन ट्वीट किया, ‘तुम आरक्षण खत्म करने की कहते हो,हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे। माई का दूध पिया है तो खत्म करके दिखाओ। किसकी कितनी ताकत है पता लग जाएगा।’
लालू यादव ने आबादी के अनुपात में आरक्षण का संकेत देकर इस बहस की भावी दिशा को भी निर्धारित कर दिया है। एक दशक पहले चली ओबीसी आरक्षण पर राष्ट्रीय बहस में हमारे पास कोई जनगणना के जातीय आँकड़े नहीं थे। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं। इसके बाद नेशनल सैंपल सर्वे से पता लगा कि करीब 41 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में हैं। ओबीसी आरक्षण को जातीय आधार पर स्वीकार कर लेने के बाद यह स्वाभाविक माँग होगी कि यदि अजा-जजा आरक्षण जनसंख्या के आधार पर है तो फिर यही नियम ओबीसी पर लागू होना चाहिए। बिहार चुनाव में जो होगा सो होगा। मोहन भागवत चाहें या न चाहें, जातीय जनगणना के आँकड़े सामने आने के बाद बहस यों भी आगे बढ़ेगी। 

Sunday, May 23, 2010

जाति आधारित जनगणना

भारत की जनगणना दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे सफल प्रशासनिक-सांख्यिकीय गतिविधि है। इस मामले में हम अपने इलाके में यानी दक्षिण एशिया में ही नहीं, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। पाकिस्तान में 2001 की जनगणना अभी तक नहीं हो पाई है। इसबार हमारी जनगणना में नागरिकों का रजिस्टर और पहचान संख्या बनाने की बात भी है। हमारे देश की बहुरंगी तस्वीर की झलक हमें अपनी जनगणना से मिलती है। साथ ही विकास के लिए आवश्यक सूचनाएं भी हमें मिलतीं हैं। इसबार कम से 15 पैरामीटर्स का डेटा एकत्र करने की तैयारी है। यह डेटा किस क्षेत्र का होगा, यह जानने के पहले इसबार के ज़्यादा चर्चित विषय पर बात करनी चाहिए।

हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाय़। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। सरकार लगातार कहती रही है कि जातियों को शामिल करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इधर लगभग सभी पार्टियों ने जाति धारित जनगणना का समर्थन शुरू कर दिया है। इनमें ओबीसी आधारित पार्टियाँ लीड ले रहीं हैं।

संसद के चालू सत्र के आखिरी दिन 7 मई को मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि सरकार इस मामले में कोई फैसला जल्द करेगी। हालांकि उसी रोज़ गृहमंत्री चिदम्बरम ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक  दिक्कतें हैं। फिलहाल लगता है कि जनगणना जाति आधारित होगी। इस वक्तव्य के बाद जाति आधारित जनगणना का कुछ लोगों ने विरोध किया है। उनके विचार से इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।

मुझे लगता है कि जाति आधारित जनगणना सम्भव हो तो उसे कराना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना  न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। और निकट भविष्य में वह खत्म होती लगती भी नहीं। इसके विपरीत जो लोग जाति आधारित जनगणना चाहते हैं, उनका भी कोई उद्देश्य इससे पूरा नहीं होगा। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। जनगणना के बाद लगभग यही तस्वीर सामने आएगी। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए। दरअसल जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, वे अलग हैं। संख्या उसमें बुनियादी तत्व नहीं है। दूसरी ओर जो लोग हिन्दुस्तानी लिखकर जातीय भावना को दूर करना चाहते हैं, वे हवा में सोच रहे हैं।

भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के  14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।

संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार  जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।

अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जनगणना का सवाल राजनैतिक दलों के दबाव में हुआ, पर यह पार्टियों का अधिकार था।

जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।

जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा मिलेगा। जातीय प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था अलग है। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं। उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी भी मिलेगी। अब मीडिया को और राजनैतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनैतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। आमतौर पर हर राजनैतिक दल के पास इलाके के जातीय आँकड़े होते हैं। अब ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। दूसरे बहुत सी जातीय पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।

जातीय समरसता और एकता अलग सवाल हैं। वे अपनी जगह रहेंगे। हाल में विजातीय विवाह करने पर हत्याएं होने की खबरें मिलीं हैं। इन्हें लोग जातीय ऊँच-नीच से जोड़कर देख रहे हैं। सारे मामले ऊँच-नीच के नहीं हैं। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। विजातीय होना ऊँच-नीच से नहीं जुड़ा। ब्राह्मणों के अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसा है।

 ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रितनिधित्व करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।