चीन के साथ पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के दो साल और 13 दौर की बातचीत के बाद भी कोई मामला जस का तस है। समाधान आसान नहीं लगता। चीन पर महाशक्ति बनने का नशा सवार है और भारत उसकी धौंसपट्टी में आएगा नहीं। चीन विस्तारवादी आक्रामक रणनीति पर चल रहा है, दूसरी तरफ वह घिरता भी जा रहा है, क्योंकि उसके मित्रों की संख्या सीमित है। तीन-चार दशक की तेज आर्थिक प्रगति के कारण उसके पास अच्छी पूँजी है, पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है। वास्तविक-युद्ध से वह घबराता है।
हाल में तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनसे चीन की भारत
से जुड़ी रणनीति पर रोशनी पड़ती है। अरुणाचल प्रदेश की 15 जगहों के चीन ने नए
नामों की घोषणा की है। दूसरे नए साल पर चीनी सेना का एक ध्वजारोहण, जिसके बारे में
दावा किया गया है कि वह गलवान घाटी में किया गया था। तीसरे पैंगोंग त्सो पर चीनी सेना ने एक पुल बनाना शुरू
किया है, जिसके बन जाने पर आवागमन में आसानी होगी।
मानसिक-प्रचार
इन तीनों में केवल पुल का सामरिक महत्व है। शेष
दो बातें मानसिक-प्रचार का हिस्सा हैं, जिनका कोई मतलब नहीं है। चीनी प्रचार-तंत्र
भारत की आंतरिक राजनीति का लाभ उठाता है। गलवान के कथित ध्वजारोहण की खबर मिलते ही
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया-‘गलवान पर हमारा तिरंगा ही अच्छा लगता है। चीन को जवाब देना होगा।
मोदी जी, चुप्पी तोड़ो!’ इस
ट्वीट के बाद कुछ और लोगों ने ट्वीट किए, यह जाने बगैर कि यह ध्वजारोहण कहाँ हुआ
था और इसका वीडियो जारी करने के पीछे चीन का उद्देश्य क्या है।
चीन हमारे अंतर्विरोधों से खेलता है और हमारे लोग उसकी इच्छा पूरी करते हैं। सामान्यतः रक्षा और विदेश-नीति को राजनीति का विषय बनाना अनुचित है, पर राजनीति समय के साथ बदल चुकी है। भारत-चीन विवाद यों भी बहुत जटिल हैं। 1962 के पहले और बाद की स्थिति को लेकर तमाम बातें अस्पष्ट हैं। ऐसे मसले यूपीए के दौर में उठते रहे हैं। पूर्व विदेश सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष श्याम सरन ने सन 2013 में कहा था कि चीन ने 640 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है। सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया और तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने संसद में इसकी सफाई दे दी। श्याम शरण ने भी अपनी बात वापस ले ली, पर यह सवाल तो बना ही रहा कि किस गलतफहमी में उन्होंने कब्जे की बात कही थी।