कुछ तो कहती हैं
जनता की खामोशियाँ
राष्ट्रगीत में भला कौन
वह/ भारत भाग्य
विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने
जिसका/ गुन हरचरना गाता
है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरही/ पगड़ी छत्र चँवर के साथ/ तोप छुड़ाकर ढोल
बजाकर/ जय-जय कौन कराता
है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं/ नंगे-बूचे नरकंकाल/ सिंहासन पर बैठा,उनके/ तमगे कौन लगाता
है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।
हमारे तीन राष्ट्रीय
त्योहार हैं।15 अगस्त है जन-जन की आज़ादी का दिन। ‘गणतंत्र’ का दिन है 26 जनवरी। गण पर हावी तंत्र। देश का
मन गांधी के सपने देखता है, सो 2 अक्तूबर चरखा कातने का दिन है। मन को भुलाने का
दिन। जन और मन की जिम्मेदारी थी कि वह गण को नियंत्रण में रखे। पर जन खामोश रहा और
मन राजघाट में सो गया। व्यवस्था ने उसके नाम से गली-चौराहों के नाम रख दिए, म्यूजियम
बना दिए और पाठ्य पुस्तकों पर उसकी सूक्तियाँ छाप दीं। इन्हीं सूक्तियों को हमने
गीतों में ढाल दिया है। फटा सुथन्ना पहनने वाला हरचरना और उसकी संतानें सालहों-साल
राष्ट्रगान बजते ही सीधे खड़े हो जाते हैं। रघुवीर सहाय की ऊपर लिखी कविता हर साल स्वतंत्रता दिवस पर ताज़ा रहती
है, जैसे अभी लिखी गई हो। सबसे महत्वपूर्ण है इसका आखिरी सवाल। वह जन-गण-मन
अधिनायक कौन है, जिसका बाजा हमारा डरा हुआ मन रोज बजाता है?
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने
जॉर्ज पंचम के लिए कविता लिखी या भारतीय जन-गण के लिए लिखी इस बहस को फिर से ताज़ा
करने का इरादा नहीं है। दिलचस्पी हरचरना के हसीन सपनों में है। उसे 1947 में ही बता
दिया गया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। 67 साल गुजर गए हरचरना के नाती-पोते
इंतज़ार कर रहे हैं। दशकों पहले काका हाथरसी ने लिखा, ‘जन-गण-मन के देवता, अब तो आँखें खोल/ महँगाई से हो गया, जीवन डांवांडोल/ जीवन डांवांडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालू/ कलाकंद के भाव बिक रहे बैंगन-आलू।’ काका को भी जन-गण-मन
के किसी देवता से शिकायत थी। काका ने जब यह लिखा तब टमाटर आठ रुपए किलो मिलते थे।
अब अस्सी में मिल जाएं तो अच्छे भाग्य समझिए।