रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर का कहना है कि अगस्ता-वेस्टलैंड मामला बोफोर्स जैसा
साबित नहीं होगा। जैसा बोफोर्स प्रसंग में नहीं हो सका वैसा हम इस मामले में
करेंगे। उनके अनुसार पूर्व वायुसेना प्रमुख एसपी त्यागी और गौतम खेतान ‘छोटे नाम’
हैं। उन्होंने तो बहती गंगा में हाथ धोया। हम पता लगा रहे हैं कि इस गंगा का स्रोत
कहाँ है। क्या वास्तव में यह पता लगाया जा सकता है कि पैसा किसके पास गया? क्या बीजेपी ने इस मामले को उठाने
के पहले इस बात का गणित लगाया है कि इस मामले का अंत कहाँ है? घूम-फिरकर यह मामला
फुस्स साबित हुआ तो क्या होगा? क्या सरकार गांधी परिवार पर हाथ डालकर गलती करेगी? क्या सारी बातें सिर्फ माहौल बनाने के लिए की जा रही
हैं? ये महत्वपूर्ण सवाल हैं और इनका जवाब समय ही देगा। पर यह तय है कि यह मामला
लम्बे समय तक राजनीति में कोलाहल मचाता रहेगा।
रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर किस आधार पर कह रहे हैं कि यह मामला बोफोर्स जैसा
साबित नहीं होगा? यह कैसे पता लगेगा कि
पैसा किसके पास गया? यह छिपी बात नहीं है
कि भारत में बड़े राजनीतिक भुगतान नकद होते हैं। राजनीतिक रकम के बैंक ट्रांसफर
नहीं होते। आज भी सैकड़ों करोड़ रुपए इसी तरह लिए-दिए जाते हैं। सम्भव है कि
प्रवर्तन निदेशालय बैंक के मार्फत पैसा पाने वालों के नाम का पता लगा ले। पर उसके
बाद क्या? उसके बाद उन
व्यक्तियों के बयान महत्वपूर्ण होंगे, जिनके पास पैसा आया है। शायद वहीं से नकदी
के हस्तांतरण प्रमाण भी मिलें। क्या ऐसा हो पाएगा? बहरहाल इतना तय है कि यह मामला अब अगले तीन साल
जिन्दा रहेगा। सन 2019 के चुनाव का एक मुद्दा यह भी होगा। और उसके पहले के
विधानसभा चुनावों में भी यह मुद्दा बना रहेगा। कांग्रेस के लिए यह चिंता की बात
है।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय उसका धीरे-धीरे होता क्षय है। गुरुवार
और शुक्रवार को रक्षामंत्री ने संसद में परोक्ष रूप में इस मामले की जिम्मेदारी
कांग्रेस पर डाली। उसके पहले राज्यसभा में सुब्रह्मण्यम स्वामी काफी कुछ कह चुके
थे। इसका मतलब है कि भारतीय जनता पार्टी ने पूरी तैयारी के साथ कांग्रेस को घेर
लेने का फैसला किया है। उधर तमिलनाडु की क चुनाव रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने सोनिया गांधी पर तकरीबन सीधा हमला बोला। उनका कहना था, मैंने
भ्रष्टाचारियों के स्क्रू टाइट करने शुरू किए हैं, इसलिए वे मुझपर हमले कर रहे
हैं।
कांग्रेस ने ऐलान किया है कि वह सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए कोई भी ‘कुर्बानी’ देने को तैयार है। ‘कुर्बानी’ माने क्या? क्या कांग्रेस को लगता है कि बारूद की रस्सी सुलगते-सुलगते घर के करीब पहुँच
रही है? शुक्रवार को कांग्रेस ने ‘लोकतंत्र बचाओ’ अभियान छेड़ा है। जंतर
मंतर से संसद तक आयोजित रैली के दौरान कुछ
कार्यकर्ताओं के हाथों में ऐसे पोस्टर और बैनर थे, जिनमें सोनिया और राहुल के बीच
रॉबर्ट वाड्रा की तस्वीर थी। इसका मतलब है कि रॉबर्ट वाड्रा अब सक्रिय राजनीति में
आएंगे।
इसका दूसरा मतलब यह भी है कि कांग्रेस को अंदेशा है कि वाड्रा को घेरा जाएगा,
जिसकी पेशबंदी कर ली गई है। यानी अब बीजेपी रॉबर्ट वाड्रा को घेरा जाएगा तो उस बात
को भी ‘लोकतंत्र पर हमला’ माना जाएगा। हालांकि कांग्रेस के
किसी प्रवक्ता ने इस बात की सफाई में कहा कि कांग्रेस में लोकतंत्र है और कोई भी
कार्यकर्ता अपनी मर्जी से इस प्रकार को पोस्टर ला सकता है। कांग्रेस के भीतर राहुल
गांधी के प्रति विशेष आस्था रखने वाले या ‘प्रियंका लाओ’ की माँग करने वाले नेता भी है, पर क्या ऐसे पोस्टर
हाईकमान की मर्जी के बगैर लग सकते हैं? या क्या हाईकमान की नजर इन बातों पर नहीं पड़ेगी?
क्या राहुल और सोनिया के बीच दिग्विजय सिंह, अहमद पटेल या एके एंटनी की तस्वीर
लगाई जा सकती है? जब तक मनमोहन सिंह
प्रधानमंत्री थे, तब तक उनकी तस्वीर भी लगती थी। शुक्रवार को राहुल, सोनिया के बीच
मनमोहन सिंह की तस्वीर वाले पोस्टर भी थे। पिछले साल से अब तक दो या तीन मौकों पर
सोनिया गांधी तब भी सड़क पर निकली हैं मनमोहन सिंह को उन्होंने आगे रखा है। कांग्रेस
की मनोदशा को व्यक्त करने वाले रूपकों और प्रतीकों को समझने की जरूरत भी है। हालात
बता रहे हैं कि कांग्रेस अस्तित्व रक्षा को मोड में है। वह पूरी ताकत से अभियान
छेड़ेगी। यह उसके कार्यकर्ताओं के लिए इशारा भी है।
देखना होगा कि जंतर-मंतर का संदेश जिला स्तर पर किस तरह जाता है। पर सामान्य
वोटर के मन में यह बात भी आ सकती है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण पार्टी बात
को घुमा रही है। इस वक्त जब देश में सूखे की मार है संसद के भीतर और बाहर दूसरे
मसले हावी हो रहे हैं। पार्टी सड़कों पर उतरी भी तो तब जब परिवार पर शिकंजा कसा। बहरहाल
कांग्रेस को इस हफ्ते एक बड़ी जीत उत्तराखंड में मिली है जहाँ 10 मई को शक्ति
परीक्षण होने वाला है। पर इस जीत में भविष्य के संकट भी छिपे हैं। हरीश रावत को
बहुमत का समर्थन मिले तब भी पार्टी के भीतर बगावत के कारण खत्म नहीं हो जाएंगे। और
यदि बहुमत नहीं मिला तो और बड़े संकट खड़े होंगे।
बहरहाल कांग्रेस के अलावा विपक्ष के यह दूसरे दलों की परीक्षा की घड़ी भी है।
संसद में इस मामले के प्रति वाम दलों, बसपा और सपा की प्रतिक्रिया रक्षात्मक रही
है, पर वे खुलकर कांग्रेस के खिलाफ बोलने को भी तैयार नहीं हैं। भारतीय राजनीति
में भ्रष्टाचार बहुत बड़ा मुद्दा कभी नहीं रहा। सन 1989 का चुनाव राजीव गांधी केवल
बोफोर्स के कारण नहीं हारे थे। सच यह है कि क्षेत्रीय क्षत्रपों में से ज्यादातर
इस प्रकार के आरोपों से घिरे रहे हैं। भारतीय राजनीति में सामाजिक समीकरणों की
भूमिका ज्यादा गहरी है। दिक्कत यह है कि सामाजिक समीकरणों के खेल में भी कांग्रेस कच्ची
साबित हो रही है। ऐसे में भ्रष्टाचार का आरोप एक अतिरिक्त कलंक बनकर सामने आता है।
No comments:
Post a Comment