धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के
बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक प्रतिक्रिया इस फैसले के स्वागत
में है और दूसरी इसके विरोध में। अंग्रेजी के कुछ अखबारों और चैनलों को देखने से
लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। एक अखबार ने शीर्षक दिया है ‘इंडिपेंडेंस डे-2’
यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इसके विपरीत शुद्धतावादियों की प्रतिक्रिया
निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने ‘पापाचार’
को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया है कि ठीक है कि समलैंगिकता को
आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को
स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर
यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक
सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी
जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की
मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का
मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में
इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना
चाहिए। हकीकत को सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाना चाहिए।
व्यावहारिक सच यह है कि देर-सबेर यह फैसला होना ही था। पिछले
साल हमारी सुप्रीम कोर्ट ने ‘प्राइवेसी’ को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। उस निर्णय की यह
तार्किक परिणति है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद पूरा समाज समलैंगिक हो जाएगा।
अंततः यह समाज पर निर्भर करेगा कि वह किस रास्ते पर जाना चाहता है। समाज की मुख्य धारा इसे स्वीकार नहीं करेगी, पर कोई इस रास्ते पर जाता है, तो उसे
प्रताड़ित भी नहीं करेगी। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी
पुरुष, स्त्री
या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस
अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना
पड़ेगा। इतनी भारी सजा के बोझ से वे लोग अब बाहर आ जाएंगे, जो इसके दबाव में थे। पर यह बहस जारी रहेगी कि समलैंगिकता प्राकृतिक गतिविधि है या नहीं।