बीजेपी और कांग्रेस तमाम मुद्दों पर एक दूसरे के विरोधी हैं, पर विदेशी चंदे को लेकर एक दूसरे से सहमत हैं. ये दोनों पार्टियाँ विदेशी चंदा लेती हैं, जो कानूनन उन्हें नहीं लेना चाहिए. इसी तरह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने के मामले में भी दोनों दलों की राय एक है. हाल की कुछ घटनाएं चेतावनी दे रहीं हैं कि चुनावी चंदे की व्यवस्था को पारदर्शी बनाने का समय आ गया है.
भारत की चुनाव व्यवस्था दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी व्यवस्था है. जिस व्यवस्था की बुनियाद में ही काला धन हो उससे सकारात्मक बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? दो साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने विदेशी कम्पनी वेदांता से चुनावी चंदा लेने के लिए दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को दोषी पाया था. 28 मार्च, 2014 को अदालत ने फ़ैसले पर अमल के लिए चुनाव आयोग को छह महीने की वक़्त दिया.
अदालत ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से कहा था कि इन पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई हो. कार्रवाई नहीं हुई. बीजेपी और कांग्रेस ने हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी. यह मामला अभी अदालत में है. अलबत्ता इसबार के बजट में वित्त विधेयक के साथ नत्थी एक व्यवस्था से विदेशी चंदा लेने का उपाय सरकार ने खोज लिया.
सरकार ने विदेशी सहायता (नियमन) कानून-2010 (एफसीआरए) में पिछली तारीख से एक बदलाव किया है जिससे विदेशी चंदे की परिभाषा बदल गई. अब किसी भारतीय कंपनी में 50 प्रतिशत से अधिक पैसा लगाने वाली कंपनी विदेशी नहीं मानी जाएगी. एफसीआरए पहली बार 1976 में लागू किया गया था. सन 2010 में इसे और स्पष्ट किया गया, जिसके अनुसार राजनीतिक पार्टियां और उनके पदाधिकारी विदेशी चंदा नहीं ले सकते.
भारत में राजनीतिक पार्टियों को इनकम टैक्स से पूरी तरह छूट है. उन्हें केवल 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. कम्पनियाँ पार्टियों को सीधे चुनावी चंदा न दें, इसके लिए चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था शुरू की गई है. जनवरी 2013 में केंद्र सरकार ने आयकर कानून में परिवर्तन करके चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया. कम्पनी एक्ट की धारा 8 के अनुसार ये ट्रस्ट गैर-लाभकारी उपक्रम हैं. इनमें दान देने वाली कम्पनियों को आयकर में छूट मिलती है.
काले धन और भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है राजनीतिक चंदा. खासतौर से विदेश से आने वाला पैसा. आमतौर पर बड़े उद्योग घराने लाइसेंस, कोटा और बैंक लोन के बदले पार्टियों को दान देते हैं. पार्टियों को चंदा कई तरीके से मिलता है. पर असली दान सफेद पैसे में नहीं होता. ज्यादातर पैसा विदेशी टैक्स हेवन से आता है जिनका जिक्र हमने हाल में पनाना पेपर्स में पढ़ा. यह पैसा भारत से बाहर जाता है और फिर देश में निवेश के रूप में वापस आता है. इसी पैसे का एक भाग राजनीतिक दलों के पास चंदे के रूप में भी आता है. इस मायाजाल को राजनीतिक दल जानते और समझते हैं, पर वे इसे पारदर्शी बनाना नहीं चाहते. आपसी विरोधों के बावजूद वे एक दूसरे के हितों की रक्षा भी करते हैं.
सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे. सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है, पर पार्टियाँ इसे मानने को तैयार नहीं हैं.
काजल की कोठरी में चिराग जलाने की कोशिशें फिर भी जारी हैं. पिछले साल एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने जानकारी दी कि देश के पाँच राष्ट्रीय दलों की 80 फ़ीसदी आय ‘अज्ञात स्रोतों’ से आ रही है. यह जानकारी चुनाव आयोग को जमा किए गए पाँच पार्टियों के इनकम टैक्स रिटर्न के आधार पर है. राजनीतिक दलों को आयकर क़ानून-1961 की धारा 13-ए के तहत पूरी छूट हासिल है. उन्हें सिर्फ़ 20 हजार रुपए से ज्यादा चंदा देने वालों का हिसाब रखना होता है. मज़े की बात है पार्टियों की 75 से 80 फ़ीसदी कमाई बीस हज़ार से नीचे के चंदे की है. बड़ा चंदा भी छोटी रक़म के कूपनों के रूप में दिया जाता है.
इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए नागरिक संगठन कोशिश करते रहे हैं. इस कमाई का विवरण हासिल करने के लिए जब आरटीआई के तहत अर्जी दी गई तो पार्टियों ने कहा, ''हम सार्वजनिक प्रतिष्ठान नहीं हैं.'' तब केंद्रीय सूचना आयुक्त से इस बारे में जानकारी ली गई. अंततः 3 जून 2013 को सूचना आयोग की फुल बेंच ने छह राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने का फ़ैसला सुनाया. मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा कि चूंकि सभी छह राष्ट्रीय दल सरकार से सस्ती ज़मीन सहित कई अन्य सुविधाएं प्राप्त करते हैं, इसलिए ये सार्वजनिक प्राधिकार हैं. तब अनुमान था कि दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को सरकार तक़रीबन 255 करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है.
हमारे लोकतंत्र का सबसे खराब पहलू है काले धन की वह विशाल गठरी जिसे ज्यादातर पार्टियाँ खोल कर बैठती हैं. काले धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास तमाम रास्ते हैं. सबसे खुली छूट तो पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है. बेहतर हो कि न केवल इस मामले में बल्कि पार्टियों के चंदे को लेकर तार्किक परिणति तक पहुँचा जाए. सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए पार्टियों के प्रत्याशी करोड़ों के दाँव लगाते हैं?
जीतकर आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े कानून शामिल हैं. अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे पीछे रखते हैं. पर सुधार उन्हें ही करने हैं. वोटर, चुनाव आयोग और अदालतों के दबाव में उन्हें ऐसा करना होगा. कॉरपोरेट हाउस उन्हें चंदा दें, पर उसका विवरण जनता के सामने होना चाहिए. यह भी किया जा सकता है कि फंडिंग चुनाव आयोग के पास हो, जो राजनीतिक दलों में उस राशि का वितरण करे. यह विषय हमारी निगाहों से हटना नहीं चाहिए.
भारत की चुनाव व्यवस्था दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी व्यवस्था है. जिस व्यवस्था की बुनियाद में ही काला धन हो उससे सकारात्मक बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? दो साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने विदेशी कम्पनी वेदांता से चुनावी चंदा लेने के लिए दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी को दोषी पाया था. 28 मार्च, 2014 को अदालत ने फ़ैसले पर अमल के लिए चुनाव आयोग को छह महीने की वक़्त दिया.
अदालत ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से कहा था कि इन पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई हो. कार्रवाई नहीं हुई. बीजेपी और कांग्रेस ने हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी. यह मामला अभी अदालत में है. अलबत्ता इसबार के बजट में वित्त विधेयक के साथ नत्थी एक व्यवस्था से विदेशी चंदा लेने का उपाय सरकार ने खोज लिया.
सरकार ने विदेशी सहायता (नियमन) कानून-2010 (एफसीआरए) में पिछली तारीख से एक बदलाव किया है जिससे विदेशी चंदे की परिभाषा बदल गई. अब किसी भारतीय कंपनी में 50 प्रतिशत से अधिक पैसा लगाने वाली कंपनी विदेशी नहीं मानी जाएगी. एफसीआरए पहली बार 1976 में लागू किया गया था. सन 2010 में इसे और स्पष्ट किया गया, जिसके अनुसार राजनीतिक पार्टियां और उनके पदाधिकारी विदेशी चंदा नहीं ले सकते.
भारत में राजनीतिक पार्टियों को इनकम टैक्स से पूरी तरह छूट है. उन्हें केवल 20 हज़ार रुपये से अधिक के चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. कम्पनियाँ पार्टियों को सीधे चुनावी चंदा न दें, इसके लिए चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था शुरू की गई है. जनवरी 2013 में केंद्र सरकार ने आयकर कानून में परिवर्तन करके चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया. कम्पनी एक्ट की धारा 8 के अनुसार ये ट्रस्ट गैर-लाभकारी उपक्रम हैं. इनमें दान देने वाली कम्पनियों को आयकर में छूट मिलती है.
काले धन और भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है राजनीतिक चंदा. खासतौर से विदेश से आने वाला पैसा. आमतौर पर बड़े उद्योग घराने लाइसेंस, कोटा और बैंक लोन के बदले पार्टियों को दान देते हैं. पार्टियों को चंदा कई तरीके से मिलता है. पर असली दान सफेद पैसे में नहीं होता. ज्यादातर पैसा विदेशी टैक्स हेवन से आता है जिनका जिक्र हमने हाल में पनाना पेपर्स में पढ़ा. यह पैसा भारत से बाहर जाता है और फिर देश में निवेश के रूप में वापस आता है. इसी पैसे का एक भाग राजनीतिक दलों के पास चंदे के रूप में भी आता है. इस मायाजाल को राजनीतिक दल जानते और समझते हैं, पर वे इसे पारदर्शी बनाना नहीं चाहते. आपसी विरोधों के बावजूद वे एक दूसरे के हितों की रक्षा भी करते हैं.
सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने छह राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे. सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है, पर पार्टियाँ इसे मानने को तैयार नहीं हैं.
काजल की कोठरी में चिराग जलाने की कोशिशें फिर भी जारी हैं. पिछले साल एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने जानकारी दी कि देश के पाँच राष्ट्रीय दलों की 80 फ़ीसदी आय ‘अज्ञात स्रोतों’ से आ रही है. यह जानकारी चुनाव आयोग को जमा किए गए पाँच पार्टियों के इनकम टैक्स रिटर्न के आधार पर है. राजनीतिक दलों को आयकर क़ानून-1961 की धारा 13-ए के तहत पूरी छूट हासिल है. उन्हें सिर्फ़ 20 हजार रुपए से ज्यादा चंदा देने वालों का हिसाब रखना होता है. मज़े की बात है पार्टियों की 75 से 80 फ़ीसदी कमाई बीस हज़ार से नीचे के चंदे की है. बड़ा चंदा भी छोटी रक़म के कूपनों के रूप में दिया जाता है.
इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए नागरिक संगठन कोशिश करते रहे हैं. इस कमाई का विवरण हासिल करने के लिए जब आरटीआई के तहत अर्जी दी गई तो पार्टियों ने कहा, ''हम सार्वजनिक प्रतिष्ठान नहीं हैं.'' तब केंद्रीय सूचना आयुक्त से इस बारे में जानकारी ली गई. अंततः 3 जून 2013 को सूचना आयोग की फुल बेंच ने छह राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने का फ़ैसला सुनाया. मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा कि चूंकि सभी छह राष्ट्रीय दल सरकार से सस्ती ज़मीन सहित कई अन्य सुविधाएं प्राप्त करते हैं, इसलिए ये सार्वजनिक प्राधिकार हैं. तब अनुमान था कि दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को सरकार तक़रीबन 255 करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है.
हमारे लोकतंत्र का सबसे खराब पहलू है काले धन की वह विशाल गठरी जिसे ज्यादातर पार्टियाँ खोल कर बैठती हैं. काले धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास तमाम रास्ते हैं. सबसे खुली छूट तो पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है. बेहतर हो कि न केवल इस मामले में बल्कि पार्टियों के चंदे को लेकर तार्किक परिणति तक पहुँचा जाए. सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए पार्टियों के प्रत्याशी करोड़ों के दाँव लगाते हैं?
जीतकर आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े कानून शामिल हैं. अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे पीछे रखते हैं. पर सुधार उन्हें ही करने हैं. वोटर, चुनाव आयोग और अदालतों के दबाव में उन्हें ऐसा करना होगा. कॉरपोरेट हाउस उन्हें चंदा दें, पर उसका विवरण जनता के सामने होना चाहिए. यह भी किया जा सकता है कि फंडिंग चुनाव आयोग के पास हो, जो राजनीतिक दलों में उस राशि का वितरण करे. यह विषय हमारी निगाहों से हटना नहीं चाहिए.
इस मामले में सभी राजनीतिक दलों के विचार समान हैं क्योंकि काला धन इनके आय स्रोतों से बड़ा स्रोत है , यहाँ तक कि कल की आम आदमी पार्टी भी इस विषय पर उनके साथ है , हालाँकि केजरी पहले सार्वजनिक मंचों से इसकी निंदा किया करते थे पर इन पालतू महाराज की पार्टी भी पिछले चुनाव में एक ऐसे ही घपले में थी ,
ReplyDeleteअब जब कानून निर्माण करने वालों का स्रोत ही काल धन है तो क्योंकर कानून बनाएंगे वे तो केवल वापिस लाने , रोक लगाने का ढोंग करेंगे , ऐसे में न्यायपालिका भी क्या कर लेगी आखिर उसकी भी सीमा है