पांच राज्यों के
चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा
कि बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने कहीं यह भी कहा कि गांधी परिवार की
वंशज प्रियंका गांधी के राजनीति में आने से कांग्रेसजन को बेहद खुशी होगी। उनमें
जननेता के तौर पर उभरने की क्षमता है। अखबारों में उनका यह बयान भी छपा है कि ये
चुनाव परिणाम पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता को परिलक्षित नहीं करते। तीनों
बातें अंतर्विरोधी हैं। तीनों को एकसाथ मिलाकर पढ़ें तो लगता है कि पार्टी के
अंतर्विरोधों के खुलने की घड़ी आ रही है। नए और पुराने नेतृत्व का टकराव नजर आने
लगा है। समय रहते इसे सँभाला नहीं गया तो असंतोष खुलकर सामने आएगा।
गुरुवार को चुनाव का ट्रेंड आने के थोड़ी देर बाद ही राहुल
गांधी के दफ्तर ने ट्वीट किया, ‘हम विनम्रता के साथ जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं। चुनाव जीतने वाले दलों
को मेरी शुभकामनाएं।’ एक और ट्वीट में उन्होंने कहा, ‘पार्टी लोगों का भरोसा
जीतने तक कड़ी मेहनत करती रहेगी।’ सोनिया गांधी ने भी आत्म-निरीक्षण की बात कही है। इस औपचारिक सदाशयता को किनारे रखते हुए सवाल पूछें कि
पार्टी के सामने विकल्प क्या हैं? वह ऐसा क्या कर सकती है, जिससे उसकी वापसी हो?
दक्षिण में पार्टी ने केरल खोकर
पुदुच्चेरी हासिल किया है। सबसे बड़ी हार असम और केरल में हुई है। बंगाल में
वाममोर्चे के साथ गठबंधन ने बजाय मदद करने के नुकसान पहुँचाया। अब यह तो देखना ही
होगा कि ये फैसले किसने किए और क्यों किए। पार्टी के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने
परिणाम आने के बाद दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘आत्ममंथन का समय गुजर गया, अब कुछ करने का समय है...नजर
आने वाले बदलाव होने चाहिए।...अब वक्त है कि कुछ निष्कर्ष निकाले जाएं और कार्रवाई
की जाए।’
यह बात शशि थरूर तक सीमित नहीं है। दिग्विजय सिंह इन परिणामों को विफलता नहीं मानते हैं तो
सर्जरी की जरूरत क्यों है? वे प्रियंका को लाने की बात क्यों कर रहे हैं? क्या वर्तमान नेतृत्व में कोई कमी है? पर लगता है कि उनके मन में कहीं
कसक है। उन्होंने कहा कि सन 2014 की पराजय के बाद राहुल गांधी ने पार्टी के सीनियर
नेताओं से कहा था कि वे अपनी रिपोर्ट बनाकर दें कि अब आगे क्या किया जाए। रिपोर्ट
देने की आखिरी तारीख थी 20 फरवरी 2015। आज मई 2016 हो गया सबको कार्रवाई का इंतजार
है। कार्रवाई सोनिया और राहुल को करनी है। पर इसके पहले राहुल को पार्टी का
कार्यभार पूरी तरह देने की जरूरत है। कांग्रेस महासमिति में बदलाव भी होना चाहिए।
पार्टी के सीनियर लीडर मानते हैं कि असम में हार को टाला जा सकता था। हिमंत
विश्व सरमा को बाहर जाने से रोकना चाहिए था। पार्टी सूत्रों का कहना है कि अहमद
पटेल और दिग्विजय सिंह चाहते थे कि असम में गोगोई को हटाकर हिमंत विश्व सरमा को
उनकी जगह लाया जाए। पर राहुल गांधी ने बात नहीं मानी। तरुण गोगोई अपने बेटे को
बढ़ावा देना चाहते थे। बोडो हमारे साथ थे, उन्हें भी बीजेपी के पाले में जाने दिया
गया। इसी तरह केरल में ऊमन चैंडी और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वीएम सुधीरन के बीच
मतभेद सुलगाए नहीं जा सके। इन विषयों पर खुलकर बात नहीं हुई।
पिछले दो साल में कांग्रेस को हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और
जम्मू-कश्मीर में हार का मुँह देखना पड़ा है। इस दौरान उसे अकेली जीत अरुणाचल में
मिली थी, जहाँ पार्टी में हुई बगावत के बाद वह सरकार भी हाथ से गई। यह कहानी
उत्तराखंड में भी दोहराई गई, पर बीजेपी की केन्द्रीय सरकार की उतावली और नादानी के
कारण वह बगावत विफल हो गई, पर वह अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँची है। अब कांग्रेस
के पास कर्नाटक ही बड़ा राज्य बचा है। शेष हैं उत्तराखंड, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय,
मिजोरम और पुदुच्चेरी का केन्द्र शासित क्षेत्र। इसलिए इन चुनाव
परिणामों का बड़ा संदेश कांग्रेस के नाम है।
केरल में पराजय के पीछे स्वाभाविक ‘एंटी इनकम्बैंसी’ है। प्रदेश के मुख्यमंत्री ऊमन चैंडी और कुछ मंत्रियों पर
भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। पार्टी को वाममोर्चे ने हराया है जो बंगाल में
उसका सहयोगी दल है। ‘बंगाल में दोस्ती और केरल में
कुश्ती’ की रणनीति कांग्रेसी रणनीति के
दोषों को उजागर करती है। ये चुनाव परिणाम अगले साल होने वाले चुनावों को और उनके
परिणाम उनके बाद होने वाले चुनावों को प्रभावित करेंगे। अंततः यह कहानी 2019 के
लोकसभा चुनाव पर खत्म होगी?
अगले साल हिमाचल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव
होंगे। असम में मिली हार इन सभी राज्यों में कांग्रेस को परेशान करेगी। पिछले साल
पार्टी ने कांग्रेस ने जेडीयू और आरजेडी के साथ महागठबंधन का रास्ता चुना था। पर
असम में एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन के लिए पार्टी तैयार नहीं हुई। बंगाल और असम में
मुस्लिम वोट महत्वपूर्ण था। यह वोट उत्तर प्रदेश में भी महत्वपूर्ण होगा। पर वहाँ
कांग्रेस को कोई प्रभावशाली दोस्त अभी तक नहीं मिला है। यूपी में इस वोट पर मुलायम
सिंह का कब्जा है। पार्टी यदि असम और बंगाल में सफल होती तभी उत्तर प्रदेश पर असर पड़ता, भले ही वह केरल में हार जाती। दिक्कत
यह है कि पार्टी को मुस्लिम वोट चाहिए, मुस्लिम परस्त पार्टी की छवि नहीं चाहिए। उसे
बीजेपी का विरोध करना है, पर हिन्दू विरोधी छवि नहीं चाहिए।
राहुल गांधी ने 2014 में पार्टी के
महासचिवों से कहा था कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी
छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है। पचास के दशक में जब हिन्दू
कोड बिल पास हुए थे तबसे कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं। पर
कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई। साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन
भी उसे हिन्दू विरोधी साबित नहीं कर सका।
अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम के
धर्मांतरण के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी छवि हिन्दू-मुखी बनाने का बाकायदा प्रयास
किया। उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि आंदोलन का रुख अपनी और
मोड़ने की कोशिश भी की। अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास कराने के कार्यक्रम
कांग्रेस सरकार के इशारे पर ही हुए थे। लोकसभा चुनाव के बाद एके एंटनी ने केरल में
पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के
प्रति झुकाव रखने वाली अपनी छवि को सुधारना होगा। कैसे सुधारेंगे ऐसी छवि?
पार्टी में सुनवाई नहीं होती। यह
शिकायत पंजाब और यूपी के कार्यकर्ताओं को भी है। पंजाब में अकाली दल की बदनामी
बढ़ती जा रही है, पर कांग्रेस उसका लाभ
उठाने की स्थिति में नहीं है। अगले साल राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के चुनाव
भी होंगे। राष्ट्रपति के चुनाव में विधानसभा सदस्यों के वोट भी होते हैं। राज्यों
में पराजय का मतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में पार्टी की भूमिका नहीं रहेगी। कुल
मिलाकर कांग्रेस की हैसियत तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी-जेडीयू, अद्रमुक, बसपा, सपा और
बीजद के बराबर की हो गई। उन दलों का किसी इलाके में तो प्रभुत्व है। कांग्रेस के
बारे में नहीं कहा जा सकता कि वह कहाँ की पार्टी है। लोकसभा चुनाव के पहले 2018
में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में चुनाव होंगे। इन चारों राज्यों में उसका आधार है।
यहाँ वह चाहे तो कुछ सफलता मिल सकती है।
पिछले साल के अंतिम दिनों में अरुणाचल में पार्टी के भीतर बगावत की खबरें आने
के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व बेफिक्र रहा। वहाँ के बागी विधायक करीब तीन हफ्ते तक
दिल्ली में पड़े रहे, ताकि राहुल गांधी से उनकी मुलाकात
हो जाए। मुलाकात नहीं हुई और बगावत अपनी तार्किक परिणति तक पहुँची और अरुणाचल कांग्रेस
के हाथ से गया। उत्तराखंड में बगावत हुई और दस विधायक बीजेपी के साथ चले गए। मणिपुर
में पार्टी के 48 में से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह के खिलाफ
बगावत का झंडा बुलंद कर रखा है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ
बगावत का माहौल है। और हिमाचल में भी वीरभद्र सिंह सरकार के खिलाफ करीब दो दर्जन
विधायक विद्रोह का बिगुल बजा रहे हैं।
हिमाचल विधानसभा के चुनाव अगले साल होने हैं, पर बीजेपी नेता प्रेम कुमार धूमल
का कहना है,''हिमाचल प्रदेश में नई सरकार 2017
नहीं, 2016 में ही बनेगी।'' भाजपा के अनुसार कांग्रेस को अपने भीतर झाँकना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है? पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु
त्रिवेदी ने कहीं कहा कि कांग्रेस इस बात पर विचार करे कि अरुणाचल में कालिको पुल
जैसा पुराना नेता उसका साथ क्यों छोड़ गया। क्या वजह है कि उत्तराखंड के एक पूर्व
मुख्यमंत्री ने बगावत कर दी है? यह सब बीजेपी के कारण नहीं है। क्या बीजेपी की वजह से अर्जुन सिंह, बाबू
जगजीवन राम, शरद पवार और नीलम संजीव रेड्डी जैसे नेता कांग्रेस छोड़कर गए थे?
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