देश की राजनीति में को लेकर चिंता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने हैं। पहला है, इमर्जेंसी के दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में चला अभियान। और दूसरे हैं साक्षी महाराज जैसे बीजेपी के भड़काऊ नेताओं के बयान, जो ‘बढ़ती मुसलिम आबादी’ को देश की बड़ी समस्या मानते हैं। आबादी हमारी राजनीति में कभी गंभीर मुद्दा नहीं बनी। बढ़ती आबादी एक समस्या के रूप में किसी कोने में दर्ज जरूर है, पर उसपर ध्यान किसी का नहीं है। वस्तुतः ‘आबादी’ समस्या नहीं दृष्टिकोण है।
आबादी की रफ्तार को रोकना हमारी समस्या है। दुनिया के कई इलाकों में रफ्तार बढ़ाने की समस्या है। हमें अपनी आबादी के हिसाब से योजनाएं बनाने की जरूरत है। नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन वगैरह-वगैरह। दुर्भाग्य से हम इस तरीके से दखने के आदी नहीं हैं। इस चुनाव में ही नहीं किसी भी चुनाव में हम आबादी और उससे जुड़े सवालों पर विचार नहीं करते। इस बार के चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर ध्यान दें, तो आप इस सवाल को अनुपस्थित पाएंगे।
बढ़ती आबादी
लोकसभा-चुनाव के ठीक पहले यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड-2019 रिपोर्ट जारी हुई है, जिसके मुताबिक पिछले नौ साल में भारत की जनसंख्या चीन के मुकाबले दुगनी रफ्तार से बढ़ी है। 2010 से 2019 के बीच भारत में 1.2% की सालाना दर से जनसंख्या बढ़ी है। जबकि इस दौरान चीन की जनसंख्या वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत ही रही। रिपोर्ट के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या 136 करोड़ जबकि चीन की 142 करोड़। एक दशक के भीतर हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। अनुमान है कि 2050 में भारत की जनसंख्या 1.69 अरब होगी और चीन की 1.31 अरब।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से हम चीन से आगे जरूर हैं, पर क्या हमारा लोकतंत्र अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को समझता है? भारत की वर्तमान जनसंख्या 1.36 अरब है, जो 1994 में 94.22 करोड़ और 1969 में 54.15 करोड़ थी। यह तेज गति दरिद्रता की निशानी है। पर हमारी 27 फीसदी जनसंख्या 0-14 वर्ष और 10-24 वर्ष की आयु वर्ग में है, 67 फीसदी 15-64 आयु वर्ग की है। छह फीसदी 65 वर्ष और उससे अधिक आयु की है। युवाओं और किशोरों की संख्या के लिहाज से हम धनी हैं, पर तभी जब उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का इंतजाम हो। देश और समाज की ताकत उसके सदस्यों से बनती है। ये युवा हमें दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बना सकते हैं, बशर्ते वे खुद ताकतवर हों।