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Monday, October 30, 2023

दिल्ली ‘शराब-नीति कांड’ से जुड़ी गिरफ्तारियों की नीति और राजनीति


दिल्ली के शराब घोटाला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी मनीष सिसोदिया की जमानत पर रिहाई को स्वीकार नहीं किया है। इस मामले की वजह से आम आदमी पार्टी को भविष्य के चुनावों में विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। अदालत ने कहा, हम बेल के आवेदन को खारिज कर रहे हैं, लेकिन स्पष्ट करते हैं कि अभियोजन पक्ष ने आश्वासन दिया है कि मुकदमा छह से आठ महीने के भीतर समाप्त हो जाएगा। तीन महीने के भीतर यदि केस लापरवाही से या धीमी गति से आगे बढ़ा, तो सिसोदिया जमानत के लिए आवेदन करने के हकदार होंगे।

सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी के पीठ ने यह फैसला सुनाया। पीठ ने दोनों याचिकाओं पर 17 अक्टूबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। अदालत ने 17 अक्टूबर को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) से कहा था कि अगर दिल्ली आबकारी नीति में बदलाव के लिए कथित तौर पर दी गई रिश्वत ‘अपराध से आय' का हिस्सा नहीं है, तो संघीय एजेंसी के लिए सिसोदिया के खिलाफ धन शोधन का आरोप साबित करना कठिन होगा।

सीबीआई ने आबकारी नीति 'घोटाले' में कथित भूमिका को लेकर सिसोदिया को 26 फरवरी को गिरफ्तार किया था। वे तब से हिरासत में हैं। इसके बाद सिसोदिया ने 28 फरवरी को दिल्ली मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। ईडी ने सीबीआई की प्राथमिकी पर मनी लाउंडरिंग (धन शोधन) मामले में 9 मार्च को तिहाड़ जेल में पूछताछ के बाद सिसोदिया को गिरफ्तार कर लिया था।

Tuesday, May 23, 2023

विरोधी-एकता की पहली परीक्षा: दिल्ली-अध्यादेश को कानून बनने से क्या रोक पाएंगे विरोधी दल?


कर्नाटक में बीजेपी को परास्त करने के बाद कांग्रेस पार्टी और दूसरे विरोधी दल भविष्य की रणनीति बना रहे हैं। इस सिलसिले में मुलाकातों का सिलसिला चल रहा है। कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि शीघ्र ही बड़ी संख्या में गैर-बीजेपी दल इस विषय पर विमर्श के लिए एकसाथ मिलकर बैठेंगे। यह बात सोमवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी से मुलाकात के बाद कही गई।

कांग्रेस ने इस बात का संकेत भी किया है कि दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण के लिए लाए गए अध्यादेश के स्थान पर जब संसद में विधेयक पेश होगा, तब पार्टी की दृष्टिकोण क्या होगा, इस विषय पर भी विरोधी दलों के नेताओं से बातचीत की जाएगी। अलबत्ता उसकी तरफ से यह भी कहा गया कि पार्टी ने अभी तक इस विषय पर कोई फैसला नहीं किया है। पार्टी के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने सोमवार को इस आशय का ट्वीट किया। साथ ही बैठक के बाद उन्होंने संवाददाताओं को बताया कि इस सिलसिले में विरोधी दलों के नेताओं की बैठक के स्थान और तारीख की घोषणा एक-दो दिन में कर दी जाएगी।

नीतीश कुमार चाहते हैं कि यह बैठक पटना में हो, पर कांग्रेस के सूत्रों ने कहा कि दूसरे सभी नेताओं की सुविधा को देखते हुए फैसला किया जाएगा। कुछ नेता विदेश-यात्रा पर जाने वाले हैं। मसलन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन सिंगापुर और जापान की नौ दिन की यात्रा पर जा रहे हैं। सोनिया गांधी भी विदेश जा रही हैं। स्टैनफर्ड विवि के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए राहुल गांधी भी 28 मई को अमेरिका जा रहे हैं।

नीतीश कुमार ने कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात करने के एक दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात की थी। उन्होंने अध्यादेश प्रकरण पर केजरीवाल का समर्थन किया था। नीतीश कुमार ने इस बात पर जोर दिया था कि सभी दलों को एकसाथ मिलकर संविधान के बदलने की केंद्र सरकार की कोशिश का विरोध करना चाहिए। नीतीश के साथ जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह भी थे। बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इस बैठक में शामिल नहीं हो पाए, क्योंकि वे अस्वस्थ थे।

Sunday, December 11, 2022

चुनाव परिणामों में छिपे हैं 2024 के संकेत


गुजरात, हिमाचल प्रदेश विधानसभा और दिल्ली नगर महापालिका के चुनाव परिणामों ने इसमें शामिल तीन पार्टियों को किसी न किसी रूप में दिलासा दी है, पर फौरी तौर पर इनका राष्ट्रीय राजनीति पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। फिर भी कुछ संकेत खोजे जा सकते हैं। इन चुनावों के साथ तीन सवाल जुड़े थे। पहला यह कि नरेंद्र मोदी का जादू कितना बरकरार है। दूसरे, क्या कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में है? और तीसरे क्या केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुकाबले विरोधी दलों के नेता बनकर उभरेंगे? बेशक बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों ने किसी न किसी रूप में अपनी सफलता का दावा किया है, पर बीजेपी और आम आदमी पार्टी की सफलताएं कांग्रेस की तुलना में भारी हैं। वोट प्रतिशत को देखें, तो सबसे सफल पार्टी बीजेपी रही है और उसके बाद आम आदमी पार्टी। कुल राजनीति के लिहाज से देखें, तो कुछ दीर्घकालीन सवाल बनते हैं कि बीजेपी कब तक मोदी के मैजिक के सहारे चलेगी? पार्टी ने उत्तराधिकार की क्या व्यवस्था की है? भारतीय राजनीति में नेता का महत्व क्या हमेशा रहेगा? पार्टी संगठन, वैचारिक आधार और कार्यक्रमों का क्यों महत्व नहीं?  

मोदी का जादू

हिमाचल में पराजय के बावजूद गुजरात में बीजेपी की जीत ने मोदी के जादू की पुष्टि की है। फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो उनका मुकाबला कर सके। गुजरात का चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी कार्यकर्ताओं और आम जनता को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, युवा भाजपा की विकास की राजनीति चाहते हैं। वे न जातिवाद के बहकावे में आते हैं न परिवारवाद के। युवाओं का दिल सिर्फ़ विज़न और विकास से जीता जा सकता है।… मैं बड़े-बड़े एक्सपर्ट को  याद दिलाना चाहता हूं कि गुजरात के इस चुनाव में भाजपा का आह्वान था विकसित गुजरात से विकसित भारत का निर्माण। यह वक्तव्य  2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है। इस साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के फौरन बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात की रुख किया था। उनकी विशेषता है एक जीत से दूसरे रणक्षेत्र की ओर देखना।

ऐतिहासिक जीत

गुजरात में लगातार सातवीं बार बीजेपी सत्ता में आई है, और रिकॉर्डतोड़ विजय के साथ आई है। इससे पहले 1985 में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थीं। बीजेपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2002 में 127 सीटों का था। उसने जिस तरह से एंटी-इनकंबैंसी की परिभाषा को बदला है, वह विस्मयकारी है। उसका मत प्रतिशत बढ़ कर 52.5 फीसदी हो गया है। राज्यसभा में गुजरात से बीजेपी के आठ और कांग्रेस के तीन सांसद हैं। अब इस जीत से 2026 के मध्य तक यहां की सभी 11 राज्यसभा सीटें इसके खाते में होंगी। अप्रैल 2024 में दो सीटों पर बीजेपी अपने और उम्मीदवार भेज सकेगी, वहीं जून 2026 में आख़िरी बची तीसरी सीट पर भी उसके प्रतिनिधि राज्यसभा में होंगे। यह जीत विजेता के रूप में मोदी की पहचान को और मज़बूत करेगी।

मत-प्रतिशत में सुधार

एमसीडी में भाजपा की पराजय हुई है, पर उसका मत प्रतिशत सुधरा है। उसे इस बार 39.09 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि 2017 में 36.08 प्रतिशत मिले थे। इस चुनाव से आंशिक निष्कर्ष ही निकाले जा सकते हैं। नगरपालिका के काफी मसले स्थानीय होते हैं। लोकसभा चुनाव के मसले राष्ट्रीय होते हैं। यह बात हम 2014 और 2015 के लोकसभा और 2015 और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में देख चुके हैं। दिल्ली विधानसभा और दिल्ली से लोकसभा सदस्यों की संरचना को देखें, तो अभी तक कहानी एकदम उलट है। 2024 की बातें तभी की जा सकेंगी, पर एक बात स्पष्ट है कि दिल्ली नगरपालिका और विधानसभा में बीजेपी के कोर-वोटर का प्रतिशत बढ़ा है। एमसीडी के चुनाव में फीका मत-प्रतिशत बता रहा है कि बीजेपी के कोर-वोटर की दिलचस्पी स्थानीय मसलों में उतनी नहीं है, जितनी आम आदमी पार्टी के वोटर की है। बीजेपी ने गुजरात और दिल्ली में अपना मत-प्रतिशत बढ़ाया है। हिमाचल में उसका मत प्रतिशत कम हुआ है, पर इस चुनाव में भी वह कांग्रेस के एकदम करीब रही है। भाजपा और कांग्रेस दोनों का मत-प्रतिशत करीब-करीब बराबर है। हिमाचल की परंपरा है कि वहाँ सत्ताधारी दल की वापसी नहीं होती है। बीजेपी की आंतरिक फूट का भी इसमें योगदान रहा होगा। कांग्रेस की जीत का आं​शिक श्रेय पुरानी पेंशन योजना को वापस लाने के वादे को भी दिया जा सकता है। हिमाचल में यह बड़ा मुद्दा था।

Friday, October 28, 2022

नोटों पर लक्ष्मी-गणेश का सुझाव

इंडोनेशिया का करेंसी नोट

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो
सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।

बेशक प्रतीकात्मकता का लाभ बीजेपी को मिला है, पर राजनीति के भीतर आए बदलाव के पीछे बड़े सामाजिक कारण हैं, जिन्हें कांग्रेस और देश के वामपंथी दल अब तक समझ नहीं पाए हैं। अब लगता है कि केजरीवाल जैसे राजनेता भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

करेंसी पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने का सांस्कृतिक महत्व जरूर है। जैसे इंडोनेशिया में है, जो मुस्लिम देश है। भारतीय संविधान की मूल प्रति पर रामकथा और हिंदू-संस्कृति से जुड़े चित्र लगे हैं। इनसे धर्मनिरपेक्षता की भावना को चोट नहीं लगती है।

केवल केसरिया रंग की प्रतीकात्मकता काम करने लगेगी, तो केजरीवाल सिर से पैर तक केसरिया रंग का कनस्तर अपने ऊपर उड़ेल लेंगे, पर उसका असर नहीं होगा। ऐसी बातें करके और उनसे देश की समृद्धि को जोड़कर एक तरफ वे अपनी आर्थिक समझ को व्यक्त कर रहे हैं, वहीं भारतीय-संस्कृति को समझने में भूल कर रहे हैं। हिंदू समाज संस्कृतिनिष्ठ है, पर पोंगापंथी और विज्ञान-विरोधी नहीं।

हैरत की बात है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं ने केजरीवाल की मांग का जोरदार तरीके से समर्थन शुरू कर दिया है। केजरीवाल का कहना है कि नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी के चित्र प्रकाशित करने से लोगों को दैवीय आशीर्वाद मिलेगा, जिससे वे आर्थिक लाभ हासिल कर सकेंगे। इसके पहले केजरीवाल गुजरात में जाकर कह आए हैं कि मेरे सपने में भगवान आए थे।

हिंदुत्व का लाभ

केजरीवाल ने अप्रेल 2010 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी-आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए थे। हलांकि ये नारे हिंदुत्व के नारे नहीं हैं और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इनका इस्तेमाल हुआ है, पर स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में कांग्रेस ने इन नारों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया था। केजरीवाल अलबत्ता हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल इस रूप में करना चाहते हैं, जिससे उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी नहीं माना जाए। पर इतना स्पष्ट है कि वे उस हिंदुत्व का राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि देश अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार कमजोर होने के कारण नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। ऐसे में यह जुगत काम करेगी। इस विचार पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में कहा है कि आर्थिक बहस में समझदारी जरूरी है। 

Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

Friday, April 23, 2021

मौके-बेमौके तमाशा क्यों बनते हैं केजरीवाल?

सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून, जो आज भी मौजूं है

आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पहचान अराजक मुख्यमंत्री के रूप में पहले से थी, अब उनकी विश्वसनीयता खत्म होने का खतरा पैदा होता जा रहा है। महामारी के दौर में देश के दस सबसे त्रस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों साथ पीएम मोदी की बैठक के दौरान अरविंद केजरीवाल ने जो बातें कहीं, वे टीवी चैनलों पर लाइव दिखाई गईं। यह सब अनायास ही लाइव नहीं हुआ होगा। कहीं न कहीं उनके प्रचार-तंत्र ने चैनलों के साथ मिलकर काम किया होगा।

बहरहाल उन्होंने प्रोटोकॉल को तोड़कर जो किया, उससे उन्हें बदनामी ही मिलेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके व्यवहार से नाराज हुए हैं। सम्भव है केजरीवाल को इससे कोई फर्क न पड़े, पर राजनीतिक रूप से वे विरोधी दलों के बीच भी अविश्वसनीय व्यक्ति बनते जा रहे हैं। केजरीवाल ने पीएम मोदी से कहा कि कोरोना मरीजों के लिए ऑक्सीजन की कमी होने से बहुत बड़ी त्रासदी हो सकती है। हालात से निबटने के लिए राष्ट्रीय योजना की आवश्यकता है। दिल्ली को कम ऑक्सीजन मिल रहा है। साथ ही उन्होंने एक देश एक वैक्सीन प्राइस की बात कही।

सरकारी सूत्रों के अनुसार पहली बार प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बातचीत को लाइव टीवी पर दिखाया गया। सरकारी सूत्रों का कहना है कि केजरीवाल ने पीएम-सीएम संवाद का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया। केजरीवाल ने तथ्य जानते हुए भी वैक्सीन की कीमत को लेकर झूठ फैलाया। उन्होंने ऑक्सीजन को एयरलिफ्ट करने का मुद्दा उठाया। शायद उन्हें पता नहीं था कि पहले से ही ऑक्सीजन एयरलिफ्ट की जा रही है। उनका पूरा भाषण समस्या के हल को नहीं बता रहा था, बल्कि वह राजनीति से प्रेरित और जिम्मेदारियों से भागने वाला था।

Saturday, January 30, 2021

आम आदमी पार्टी का फिर से विस्तार का इरादा

 


आम आदमी पार्टी ने घोषणा की है कि वह आने वाले समय में छह राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाग लेगी। ये राज्य हैं यूपी, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात। यह घोषणा दिल्‍ली के आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने गुरुवार 28 जनवरी को दिल्‍ली में की। दूसरी तरफ पार्टी ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं और 29 जनवरी को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत में रालोद के जयंत चौधरी के अलावा आम आदमी पार्टी के संजय सिंह भी मौजूद थे और दोनों ने सभा को संबोधित किया। इसके पहले हाथरस में एक दलित बालिका से हुए बलात्कार और हत्या के बाद भी संजय सिंह उस इलाके में गए थे।

पार्टी को किसान आंदोलन भी अपने आप को लांच करने का उपयुक्त प्लेटफॉर्म लगता है। उसने किसानों का सड़क से संसद तक समर्थन करने का ऐलान किया है। साथ ही कहा है कि आप कार्यकर्ता बिना पार्टी के झंडे और टोपी के किसानों के साथ खड़े होंगे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने धरने में किसानों के लिए दिल्ली से पानी और शौचालय की व्यवस्था कराकर हर संभव मदद का आश्वासन दिया है। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया गाजीपुर बार्डर पहुंचकर हालात का जायजा ले चुके हैं।

Friday, December 18, 2020

पुराने अंदाज में केजरीवाल

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल करीब दो साल की खामोशी के बाद फिर से अपनी पुरानी शैली में वापस आते नजर आ रहे हैं। इन दिनों दिल्ली में पंजाब से आए किसानों के समर्थन में दिए गए वक्तव्यों के अलावा गत गुरुवार 17 दिसंबर को दिल्ली विधानसभा में उनके बयानों में उनकी पुरानी राजनीति की अनुगूँज थी।

उन्होंने केंद्र सरकार को संबोधित करते हुए कहा, कोरोना काल में क्यों ऑर्डिनेंस पास किया? पहली बार राज्यसभा में बिना वोटिंग के 3 बिल को कैसे पास कर दिया गया? सीएम ने कहा कि दिल्ली विधानसभा केंद्र के कृषि कानूनों को खारिज कर रही है। केंद्र सरकार कानून वापिस ले।

कृषि कानूनों को लेकर दिल्ली विधानसभा में गुरुवार को एक दिन का विशेष सत्र बुलाया गया था। सत्र की शुरुआत होने पर मंत्री कैलाश गहलोत ने एक संकल्प पत्र पेश किया, जिसमें तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की बात कही गई। इसके बाद हर वक्ता को बोलने के लिए पांच मिनट का वक्त दिया गया। बाद में विधानसभा ने कृषि कानूनों को निरस्त करने का एक संकल्प स्वीकार कर लिया।

Tuesday, September 10, 2019

आम आदमी पार्टी की बढ़ती मुश्किलें

लोकप्रिय चेहरों के बिना केजरीवाल कितना कमाल कर पाएंगे?: नज़रिया
अलका लांबाप्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
7 सितंबर 2019
दिल्ली के चांदनी चौक से विधायक अलका लांबा ने आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस में शामिल हो गई हैं.

उन्होंने एक ट्वीट में अपने इस इस्तीफ़े की घोषणा की.

उनके इस्तीफ़े के कारण स्पष्ट हैं कि पिछले कई महीने से वो लगातार पार्टी से दूर हैं. उन्होंने राजीव गांधी के एक मसले पर भी अपनी असहमति दर्ज की थी.

उनकी बातों से यह भी समझ आता था कि वो कम से कम आम आदमी पार्टी से जुड़ी नहीं रह पाएंगी, फिर सवाल उठता है कि वो कहां जातीं, तो कांग्रेस पार्टी एक बेहतर विकल्प था, क्योंकि वो वहां से ही आई थीं.

Thursday, February 7, 2019

दिल्ली में आप-कांग्रेस और भाजपा

दिल्ली में पिछले कुछ महीनों से आम आदमी पार्टी कांग्रेस पर दबाव बना रही है कि बीजेपी को हराना है, जो हमारे साथ गठबंधन करना होगा। हाल में हरियाणा के जींद विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी रणदीप सिंह सुरजेवाला के तीसरे स्थान पर रहने के बाद अरविंद केजरीवाल ने इस बात को फिर दोहराया। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस अगर दिल्ली की सातों सीटें जीतने की गारंटी दे, तो हम सभी सीटें छोड़ने को तैयार हैं। सवाल है कि ऐसी गारंटी कौन दे सकता है? हो सकता है कि आम आदमी पार्टी ऐसी गारंटी देने की स्थिति में हो, पर कांग्रेस के सामने केवल बीजेपी को हराने का मसला ही नहीं है। 

कांग्रेस को उत्तर भारत में अपनी स्थिति को बेहतर बनाना है, तो उसे अपनी स्वतंत्र राजनीति को भी मजबूत करना होगा। उत्तर प्रदेश में नब्बे के दशक में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के सामने हथियार डाल दिए थे और मान लिया था कि बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में एकमात्र सहारा सपा ही है। उस रणनीति के कारण यूपी में वह अपनी जमीन पूरी तरह खो चुकी है। दिल्ली में अभी उसकी स्थिति इतनी खराब नहीं है। दूसरे उसे भविष्य में खड़े रहना है, तो सबसे पहले आम आदमी पार्टी को किनारे करना होगा। क्योंकि बीजेपी के खिलाफ दो मोर्चे बनाने पर हर हाल में फायदा बीजेपी को होगा। भले ही आज फायदा न मिले, पर दीर्घकालीन लाभ अकेले खड़े रहने में ही है। 

Monday, January 21, 2019

‘आप’ की अग्निपरीक्षा होगी अब

क्या दिल्ली और पंजाब में 'आप' का अस्तित्व दाँव पर है?- नज़रिया

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए

पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी के 'भव्य-भारत की कहानी' और उसके समांतर आम आदमी पार्टी 'नई राजनीति के स्वप्न' लेकर सामने आई थी.
दोनों की अग्नि-परीक्षा अब इस साल लोकसभा चुनावों में होगी. दोनों की रणनीतियाँ इसबार बदली हुई होंगी.
ज़्यादा बड़ी परीक्षा 'आप' की है, जिसका मुक़ाबला बीजेपी के अलावा कांग्रेस से भी है. दिल्ली और पंजाब तक सीमित होने के कारण उसका अस्तित्व भी दाँव पर है.
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने पिछले रविवार को बरनाला से पंजाब में पार्टी के लोकसभा चुनाव अभियान की शुरूआत की है. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी राज्य की सभी 13 सीटों पर अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ेगी.

पार्टी का फोकस बदला
हाल में हुई पार्टी की कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठकों में फ़ैसला किया गया कि 2014 की तरह इस बार हम सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेंगे.
पार्टी का फोकस अभी सिर्फ़ 33 सीटों पर है (दिल्ली में 7, पंजाब में 13, हरियाणा में10, गोवा में 2 और चंडीगढ़ में एक ). ज्यादातर जगहों पर उसका बीजेपी के अलावा कांग्रेस से भी मुक़ाबला है.
कुछ महीने पहले तक पार्टी कोशिश कर रही थी कि किसी तरह से कांग्रेस के साथ समझौता हो जाए, पर अब नहीं लगता कि समझौता होगा. दूसरी तरफ़ वह बीजेपी-विरोधी महागठबंधन के साथ भी है, जो अभी अवधारणा है, स्थूल गठबंधन नहीं.


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Sunday, August 26, 2018

जनता के भरोसे को कायम नहीं रख पाई ‘आप’

हाल में पहले आशुतोष और फिर आशीष खेतान के इस्तीफों की खबर मिलने के बाद आम आदमी पार्टी फिर चर्चा में है। दोनों नेताओं ने इस मामले में सफाई नहीं दी। आशुतोष ने इसे निजी मामला बताया और खेतान ने कहा कि मैं वकालत के पेशे पर ध्यान लगाना चाहता हूँ, इसलिए सक्रय राजनीति छोड़ रहा हूँ। न इस्तीफों पर अभी फैसला नहीं हुआ है। यानी कि किसी स्तर पर मान-मनौवल की उम्मीदें अब भी हैं। बहरहाल फैसला जो भी हो, आम आदमी पार्टी को लेकर तीन सवाल खड़े हो रहे हैं। बड़ी तेजी से बढ़ने के बाद क्या यह पार्टी अब गिरावट की ओर है? क्या इस गिरावट के कारण वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों के धक्का लगेगा? तीसरे क्या वजह है, जो ऐसी नौबत आई?
 द प्रिंट में प्रकाशित इस लेख को भी पढ़ें 
पार्टी के हमदर्द कह सकते हैं कि गिरावट है ही नहीं और जो हो रहा है, वह सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया है। सभी पार्टियों में ऐसा होता है। बात सही है, पर इसे क्या दूसरे दलों की तरह होना चाहिए? आने-जाने की भी कोई इंतहा है। पिछले कुछ समय में इसकी भीतरी खींचतान कुछ ज्यादा ही मुखर हुई है। पार्टी से हटने की प्रवृत्तियाँ अलग-अलग किस्म की हैं। कुछ लोग खुद हटे और कुछ हटाए गए। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण और आनन्द कुमार का हटना बड़ी परिघटना थी, जिससे पार्टी टूटी तो नहीं, पर उससे इतना जाहिर जरूर हुआ कि इसकी राजनीति इतनी ‘नई’ नहीं है, जितनी बताई जा रही है। पार्टी ने इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करने के लिए जो व्यवस्था बनाई थी, वह विफल हो गई। वस्तुतः पार्टी की एक केन्द्रीय हाईकमान नजर आने लगी।

Thursday, August 23, 2018

नकारात्मक खबरें और बढ़ता ‘आप’ का क्षरण


अरविंद केजरीवालआम आदमी पार्टी के जन्म के साथ उसके भविष्य को लेकर अटकलों का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह रुकने के बजाय बढ़ता जा रहा है. उसके दो वरिष्ठ नेताओं के ताजा इस्तीफों के कारण कयास बढ़ गए हैं. 
ये कयास पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र, उसकी रीति-नीति, लतिहाव, दीर्घकालीन रणनीति और भावी राजनीति को लेकर हैं. इस किस्म की खबरों के बार-बार आने से पार्टी का पटरा बैठ रहा है.
पार्टी के उदय ने देश में नई राजनीति की सम्भावनाओं को जन्म दिया था. ये सम्भावनाएं ही अब क्षीण पड़ रहीं हैं. उत्साह का वह माहौल नहीं बचा, जो तीन साल पहले था. पार्टी का नेतृत्व खुद बहुत आशावान नहीं लगता.
पैरों में लिपटे भँवर
हाल में पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात सीटों को लेकर एक सर्वेक्षण कराया है, जिसमें उसने सात में से चार सीटों पर सफल होने की उम्मीद जाहिर की है. यह उसका अपना सर्वे है. यह उसकी मनोकामना है.
पार्टी बताना चाहती है कि हम दिल्ली में सबसे बड़ी ताकत हैं. शायद वह सही है, पर उसे अपना क्षरण भी दिखाई पड़ रहा है. प्रमाण है उसके अपनों का साथ छोड़कर जाना. यह आए दिन का टाटा-बाई-बाई अच्छा संकेत नहीं है.
पार्टी की आशा और निराशा के ज्यादातर सूत्र दिल्ली की राजनीति से जुड़े हैं. उसकी लोकप्रियता की अगली परीक्षा लोकसभा चुनाव में होगी. पर उस चुनाव की तैयारी उसके अंतर्विरोधों को भी बढ़ा रही है. चुनाव लड़ने के लिए साधन चाहिए, जिनके पीछे भागने का मतलब है पुराने साथियों से बिछुड़ना. साथ ही चुनाव जीतने के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र और इसी किस्म के दूसरे फॉर्मूलों पर भी चलना है, क्योंकि चुनाव जीतने के लिए वे जरूरी होते हैं. यह सब 'नई राजनीति' की अवधारणा से मेल नहीं खाता.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों से पंगा लेने के कारण उसकी परेशानियाँ बढ़ी हैं. उसके आंतरिक झगड़े पहले भी थे, पर अब वे सामने आने लगे हैं. झगड़ों ने उसके पैरों को भँवर की तरह लपेटना शुरू कर दिया है.

Thursday, August 16, 2018

‘आप’ में बार-बार इस्तीफे क्यों होते हैं?


आशुतोष, आम आदमी पार्टी, AAP, Aam Aadmi Party, Ashutosh
आम आदमी पार्टी से उसके वरिष्ठ सदस्य आशुतोष का इस्तीफा ऐसी खबर नहीं है, जिसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हों. इस्तीफे के पीछे व्यक्तिगत कारण नजर आते हैं. और समय पर सामने भी आ जाएंगे. अलबत्ता यह इस्तीफा ऐसे मौके पर हुआ है, जब इस पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. एक सवाल यह भी है कि इस पार्टी में बार-बार इस्तीफे क्यों होते हैं?
आशुतोष ने अपने इस्तीफे की घोषणा ट्विटर पर जिन शब्दों से की है, उनसे नहीं लगता कि किसी नाराजगी में यह फैसला किया गया है. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने जिस अंदाज में ट्विटर पर उसका जवाब दिया है, उससे लगता है कि वे इस इस्तीफे के लिए तैयार नहीं थे.
गमसुम इस्तीफा क्यों?
आशुतोष ने अपने ट्वीट में कहा था, हर यात्रा का एक अंत होता है.आपके साथ मेरा जुड़ाव बहुत अच्छा/क्रांतिकारी था, उसका भी अंत आ गया है. इस ट्वीट के तीन मिनट बाद उन्होंने एक और ट्वीट किया, जिसमें मीडिया के दोस्तों से गुज़ारिश की, मेरी निजता का सम्मान करें. मैं किसी तरह से कोई बाइट नहीं दूंगा.
आशुतोष अरविंद केजरीवाल के करीबी माने जाते रहे हैं. पिछले चार साल में कई लोगों ने पार्टी छोड़ी, पर आशुतोष ने कहीं क्षोभ व्यक्त नहीं किया. फिर भी तमाम तरह के कयास हैं. कहा जा रहा है कि पार्टी की ओर से राज्यसभा न भेजे जाने की वजह से वे नाराज चल रहे थे. शायद वे राजनीति को भी छोड़ेंगे वगैरह.  
आम आदमी पार्टी के ज्यादातर संस्थापक सदस्यों की पृष्ठभूमि गैर-राजनीतिक है. ज्यादा से ज्यादा लोग एक्टिविस्ट हैं, पर आशुतोष की पृष्ठभूमि और भी अलग थी. वे खांटी पत्रकार थे और शायद उनका मन बीते दिनों को याद करता होगा.

Saturday, June 16, 2018

दिल्ली में ‘धरना बनाम धरना’


दिल्ली सचिवालय की इमारत में एक बड़ा सा बैनर लहरा रहा है, यहाँ कोई हड़ताल नहीं है, दिल्ली के लोग ड्यूटी पर हैं, दिल्ली का सीएम छुट्टी पर है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि बीजेपी ने सचिवालय पर कब्जा कर लिया है। उप-राज्यपाल के दफ्तर में दिल्ली की कैबिनेट यानी पूरी सरकार धरने पर बैठी है। उधर मुख्यमंत्री के दफ्तर पर बीजेपी का धरना चल रहा है। आम आदमी पार्टी ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलने का समय माँगा है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, तमिलनाडु के फिल्म कलाकार कमलहासन, आरजेडी के तेजस्वी यादव, सीपीएम के सीताराम येचुरी और इतिहास लेखक रामचंद्र गुहा आप के समर्थन में आगे आए हैं। दोनों तरफ से युद्ध के नगाड़े बज रहे हैं।

Thursday, June 14, 2018

लम्बी चुप्पी के बाद ‘आप’ के तेवर तीखे क्यों?




एक अरसे की चुप्पी के बाद आम आदमी पार्टी ने अपनी राजनीति का रुख फिर से आंदोलन की दिशा में मोड़ा है. इस बार निशाने पर दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल हैं. वास्तव में यह केंद्र सरकार से मोर्चाबंदी है.
पार्टी की पुरानी राजनीति नई पैकिंग में नमूदार है. पार्टी को चुनाव की खुशबू आने लगा है और उसे लगता है कि पिछले एक साल की चुप्पी से उसकी प्रासंगिकता कम होने लगी है.
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के धरने के साथ ही सत्येंद्र जैन का आमरण अनशन शुरू हो चुका है. हो सकता है कि यह आंदोलन अगले कुछ दिनों में नई शक्ल है.
चुप्पी हानिकारक है
सन 2015 में जबरदस्त बहुमत से जीतकर आई आम आदमी सरकार और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने पहले दो साल नरेंद्र मोदी के खिलाफ जमकर मोर्चा खोला. फिर उन्होंने चुप्पी साध ली. शायद इस चुप्पी को पार्टी के लिए हानिकारक समझा जा रहा है.
आम आदमी पार्टी की रणनीति, राजनीति और विचारधारा के केंद्र में आंदोलन होता है. आंदोलन उसकी पहचान है. मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल जनवरी 2014 में भी धरने पर बैठ चुके हैं. पिछले कुछ समय की खामोशी और माफी प्रकरण से लग रहा था कि उनकी रणनीति बदली है.
केंद्र की दमन नीति
इसमें दो राय नहीं कि केंद्र सरकार ने आप को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं खोया. पार्टी के विधायकों की बात-बे-बात गिरफ्तारियों का सिलसिला चला. लाभ के पद को लेकर बीस विधायकों की सदस्यता खत्म होने में प्रकारांतर से केंद्र की भूमिका भी थी.

आप का आरोप है कि केंद्र सरकार सरकारी अफसरों में बगावत की भावना भड़का रही है. संभव है कि अफसरों के रोष का लाभ केंद्र सरकार उठाना चाहती हो, पर गत 19 फरवरी को मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ जो हुआ, उसे देखते हुए अफसरों की नाराजगी को गैर-वाजिब कैसे कहेंगे?

Thursday, June 7, 2018

क्या ‘आप’ से हाथ मिलाएगी कांग्रेस?


सतीश आचार्य का कार्टून साभार
भाजपा-विरोधी दलों की राष्ट्रीय-एकता की खबरों के बीच एक रोचक सम्भावना बनी है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का भी गठबंधन होगा? हालांकि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन ने ऐसी किसी सम्भावना से इंकार किया है, पर राजनीति में ऐसे इंकारों का स्थायी मतलब कुछ नहीं होता.

पिछले महीने कर्नाटक में जब एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में अरविंद केजरीवाल और सोनिया-राहुल एक मंच पर खड़े थे, तभी यह सवाल पर्यवेक्षकों के मन में कौंधा था. इसके पहले सोनिया गांधी विरोधी दलों की एकता को लेकर जो बैठकें बुलाती थीं, उनमें अरविन्द केजरीवाल नहीं होते थे. कर्नाटक विधान-सौध के बाहर लगी कुर्सियों की अगली कतार में सबसे किनारे की तरफ वे भी बैठे थे.

Tuesday, March 20, 2018

माफ़ियों के बाद अब ‘आप’ का क्या होगा?

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
आम आदमी पार्टी का जन्म पिछले लोकसभा चुनाव से पहले 2012 में हुआ था. लगता था कि शहरी युवा वर्ग राजनीति में नई भूमिका निभाने के लिए उठ खड़ा हुआ है. वह भारतीय लोकतंत्र को नई परिभाषा देगा.
सारी उम्मीदें अब टूटती नज़र आ रही हैं.
संभव है कि अरविंद केजरीवाल माफी-प्रकरण के कारण फंसे धर्म-संकट से बाहर निकल आएं. पार्टी को क़ानूनी माफियां आसानी से मिल जाएंगी, पर नैतिक और राजनीतिक माफियां इतनी आसानी से नहीं मिलेंगी.
क्या वे राजनीति के उसी घोड़े पर सवार हो पाएंगे जो उन्हें यहां तक लेकर आया है? अब उनकी यात्रा की दिशा क्या होगी? वे किस मुँह से जनता के बीच जाएंगे?
ख़ूबसूरत मौका खोया
दिल्ली जैसे छोटे प्रदेश से एक आदर्श नगर-केंद्रित राजनीति का मौक़ा आम आदमी पार्टी को मिला था.
 उसने धीरे-धीरे काम किया होता तो इस मॉडल को सारे देश में लागू करने की बातें होतीं, पर पार्टी ने इस मौक़े को हाथ से निकल जाने दिया.
उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं का कैनवस इतना बड़ा था कि उसपर कोई तस्वीर बन ही नहीं सकती थी.
ज़ाहिर है कि केजरीवाल अब बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े आरोप नहीं लगाएंगे. लगाएँ भी तो विश्वास कोई नहीं करेगा.
उन्होंने अपना भरोसा खोया है. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती अब यह है कि वह अपनी राजनीति को किस दिशा में मोड़ेगी.
चंद मुट्ठियों में क़ैद और विचारधारा-विहीन इस पार्टी का भविष्य अंधेरे की तरफ़ बढ़ रहा है.
समर्थकों से धोखा
केजरीवाल की बात छोड़ दें, पार्टी के तमाम कार्यकर्ता ऐसे हैं जिन्होंने इस किस्म की राजनीति के कारण मार खाई है, कष्ट सहे हैं.
बहुतों पर मुक़दमे दायर हुए हैं या किसी दूसरे तरीक़े से अपमानित होना पड़ा. वे फिर भी अपने नेतृत्व को सही समझते रहे. धोखा उनके साथ हुआ.
संदेश यह जा रहा है कि अब उन्हें बीच भँवर में छोड़कर केजरीवाल अपने लिए आराम का माहौल बनाना चाहते हैं. क्यों?
बात केवल केजरीवाल की नहीं है. उनकी समूची राजनीति का सवाल है. ऐसा क्यों हो कि वे चुपके से माफी मांग कर निकले लें और बाकी लोग मार खाते रहें?



Sunday, March 18, 2018

अपने ही बुने जाले में फंसते जा रहे हैं केजरीवाल

कार्टून साभार सतीश आचार्य
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
17 मार्च 2018


सिर्फ़ चार साल की सक्रिय राजनीति में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो गए हैं. और ऐसे दर्ज़ हुए हैं कि उन पर चुटकुले लिखे जा रहे हैं.


उनका ज़िक्र होने पर ऐसे मकड़े की तस्वीर उभरती है, जो अपने बुने जाले में लगातार उलझता जा रहा है.
इस पार्टी ने जिन ऊँचे आदर्शों और विचारों का जाला बुनकर राजनीति के शिखर पर जाने की सोची थी, वे झूठे साबित हुए. अब पूरा लाव-लश्कर किसी भी वक़्त टूटने की नौबत है. जैसे-जैसे पार्टी और उसके नेताओं की रीति-नीति के अंतर्विरोध खुल रहे हैं, उलझनें बढ़ती जा रही हैं.


ठोकर पर ठोकर
केजरीवाल के पुराने साथियों में से काफ़ी साथ छोड़कर चले गए या उनके ही शब्दों में 'पिछवाड़े लात लगाकर' निकाल दिए गए. अब वे ट्वीट करके मज़ा ले रहे हैं, 'हम उस शख़्स पर क्या थूकें जो ख़ुद थूक कर चाटने में माहिर है!'

अकाली नेता बिक्रम मजीठिया से केजरीवाल की माफ़ी के बाद पार्टी की पंजाब यूनिट में टूट की नौबत है. दिल्ली में पहले से गदर मचा पड़ा है. 20 विधायकों के सदस्यता-प्रसंग की तार्किक परिणति सामने है. उसका मामला चल ही रहा था कि माफ़ीनामे ने घेर लिया है.

मज़ाक बनी राजनीति
सोशल मीडिया पर केजरीवाल का मज़ाक बन रहा है. किसी ने लगे हाथ एक गेम तैयार कर दिया है. पार्टी के अंतर्विरोध उसके सामने आ रहे हैं. पिछले दो-तीन साल की धुआँधार राजनीति का परिणाम है कि पार्टी पर मानहानि के दर्जनों मुक़दमे दायर हो चुके हैं. ये मुक़दमे देश के अलग-अलग इलाक़ों में दायर किए गए हैं.


पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज का कहना है कि अदालतों में पड़े मुक़दमों को सहमति से ख़त्म करने का फ़ैसला पार्टी की क़ानूनी टीम के साथ मिलकर किया गया है, क्योंकि इन मुक़दमों की वजह से साधनों और समय की बर्बादी हो रही है. हमारे पास यों भी साधन कम हैं.

माफियाँ ही माफियाँ
बताते हैं कि जिस तरह मजीठिया मामले को सुलझाया गया है, पार्टी उसी तरह अरुण जेटली, नितिन गडकरी और शीला दीक्षित जैसे मामलों को भी सुलझाना चाहती है. यानी माफ़ीनामों की लाइन लगेगी. पिछले साल बीजेपी नेता अवतार सिंह भड़ाना से भी एक मामले में माफ़ी माँगी गई थी.


केजरीवाल ने उस माफ़ीनामे में कहा था कि एक सहयोगी के बहकावे में आकर उन्होंने आरोप लगाए थे. पार्टी सूत्रों के अनुसार हाल में एक बैठक में इस पर काफ़ी देर तक विचार हुआ कि मुक़दमों में वक़्त बर्बाद करने के बजाय उसे काम करने में लगाया जाए.


सौरभ भारद्वाज ने पार्टी के फ़ैसले का ज़िक्र किया है, पर पार्टी के भीतरी स्रोत बता रहे हैं कि माफ़ीनामे का फ़ैसला केजरीवाल के स्तर पर किया गया है.

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Sunday, January 21, 2018

‘आम आदमी’ हैरान, स्तब्ध, शर्मसार!

आम आदमी पार्टी के सामने जो संकट आकर खड़ा हुआ है, उसके तीन पहलू हैं। न्यायिक प्रक्रिया, जनता के बीच पार्टी की साख और संगठन का आंतरिक लोकतंत्र। सबसे पहले इससे जुड़ी प्रशासनिक न्यायिक प्रक्रिया का इंतजार करना होगा। विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाए, तब भी देखना होगा कि अदालत की कसौटी पर आखिरी फैसला क्या होगा। अंततः सम्भव है कि इन 20 पदों पर चुनाव हों। ऐसी नौबत आने के पहले पार्टी के भीतर बगावत का अंदेशा भी है। पिछले एक साल से खबरें हैं कि दर्जन से ज्यादा विधायक बगावत के मूड में हैं।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव 2020 में होने हैं। क्या हालात ऐसे बनेंगे कि उसके पहले चुनाव कराने पड़ें? केवल 20 सीटों के ही उप-चुनाव हुए तो आम आदमी पार्टी की स्थिति क्या होगी? जीत या हार दोनों बातें उसका भविष्य तय करेंगी। मोटे तौर पर आम आदमी पार्टी जिस राजनीति को लेकर चली थी, उसकी विसंगतियाँ बहुत जल्दी सामने आ गईं। खासतौर से पार्टी नेतृत्व का बचकानापन।
इस सरकार के तीन साल पूरे होने में अभी कुछ समय बाकी है, पर इस दौरान यह पार्टी ऐसा कुछ नहीं कर पाई, जिससे लगे कि उसकी सरकार पिछली सरकारों से फर्क थी? इस दौरान हर तरह के धत्कर्म इस दौरान हुए हैं। हर तरह के आरोप इसके नेतृत्व पर लगे। दूसरे दलों की तरह इस पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का हाजमा खराब है और कार्यकर्ताओं की दिलचस्पी फायदे उठाने में है। विचारधारा और व्यवहार के बीच की दरार राज्यसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से साबित हो चुकी है।