Showing posts with label नरेन्द्र मोदी. Show all posts
Showing posts with label नरेन्द्र मोदी. Show all posts

Sunday, September 26, 2021

चीन-पाक दुरभिसंधि पर वार


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका-यात्रा का साफ संदेश पाकिस्तान और चीन की दुरभिसंधि के नाम है। राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ आमने-सामने की मुलाकात और क्वॉड के शिखर सम्मेलन और संयुक्त राष्ट्र महासभा में मोदी के भाषण को जोड़कर देखें, तो चीन और पाकिस्तान दोनों के लिए स्पष्ट संदेश है। आने वाले दिनों में भारत की हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बड़ी भूमिका का इशारा भी इनमें देखा जा सकता है। बाइडेन से मुलाकात के पहले उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात का भी विदेश-नीति के लिहाज से महत्व है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा में नरेन्द्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन, महामारी, वैक्सीन और मानव कल्याण के तमाम सवालों को उठाते हुए बहुत संयत शब्दों में अफगानिस्तान की स्थिति का जिक्र किया और चेतावनी दी कि वे उस जमीन का इस्तेमाल आतंकी हमलों के लिए न करें। प्रकारांतर से यह चेतावनी पाकिस्तान के नाम है। समुद्री मार्गों की स्वतंत्रता बनाए रखने के संदर्भ में उन्होंने चीन को भी चेतावनी दी। उन्होंने संरा की साख बढ़ाने का सुझाव भी दिया, जिसमें उन्होंने दूसरी बातों के साथ कोविड-संक्रमण के मूल का जिक्र भी किया।

व्यापक निहितार्थ

अमेरिका में हुई चर्चाओं को जोड़कर पढ़ें, तो कोविड, क्लाइमेट और क्वॉड के अलावा अफगानिस्तान पर विचार हुआ। पाकिस्तान को आतंकवाद और कट्टरपंथ पर कठोर संदेश मिले, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के नेतृत्व के साथ प्रधानमंत्री मोदी की चीन से उपजे खतरों पर विस्तृत चर्चा हुई। साथ ही ऑकस से जुड़ी आशंकाओं को भी दूर किया गया। इन सबके अलावा प्रधानमंत्री ने बड़ी अमेरिकी कम्पनियों के सीईओ के साथ बैठकें करके भारतीय अर्थव्यवस्था के तेज विकास का रास्ता भी खोला है। द्विपक्षीय बैठकों में अफगानिस्तान का मुद्दा भी हावी रहा। भारत ने बताया है कि कैसे तालिबान को चीन और पाकिस्तान की शह मिल रही है, जिससे भारत ही नहीं दुनिया की मुश्किलें बढ़ेंगी। अमेरिका ने भारत के इस दृष्टिकोण को स्वीकार किया है।

Friday, September 24, 2021

कमला हैरिस से मोदी की मुलाकात


अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

अमेरिका दौरे पर गए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार 23 सितम्बर को अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से पहली बार आमने-सामने मुलाक़ात की। भारतीय मूल की कमला हैरिस ने पिछले वर्ष इतिहास रचा था जब वे अमेरिका में उपराष्ट्रपति पद तक पहुँचने वाली पहली अश्वेत और दक्षिण एशियाई मूल की राजनेता बनी थीं।

प्रधानमंत्री मोदी ने ह्वाइट हाउस में कमला हैरिस के साथ मुलाक़ात के बाद एक साझा प्रेस वार्ता में भारत और अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी बताया। उन्होंने ने कहा, भारत और अमेरिका स्वाभाविक सहयोगी हैं। हमारे मूल्य समान हैं, हमारे भू-राजनीतिक हित समान हैं।

नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को ही ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से मुलाकात की। दोनों देश क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए बन रहे समूह क्वाड के सदस्य हैं। मोदी और मॉरिसन ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच आर्थिक के साथ-साथ आपसी संबंध मजबूत करने पर भी जोर दिया।

Thursday, September 23, 2021

मोदी की अमेरिका यात्रा

 

गुरुवार को वॉशिंगटन में भारतीय मूल की महिलाओं से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी।

कोविड महामारी के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल मार्च में बांग्लादेश की एक संक्षिप्त यात्रा के बाद अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा के लिए अमेरिका पहुँच गए हैं। वे 26 सितंबर को देर रात दिल्ली लौटेंगे। फिलहाल निगाहें 24 सितम्बर को उनकी अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ बैठक पर होगी। शुक्रवार को ही ह्वाइट हाउस में क्वाड देशों के नेताओं की बैठक होगी। इसके बाद मोदी न्यूयॉर्क के लिए रवाना हो जाएंगे और 25 सितंबर को वहां संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें सत्र को संबोधित करेंगे।

मोदी वॉशिंगटन के होटल बिलार्ड में ठहरे हैं, वे यहां भी लोगों के अभिवादन का जवाब देते नजर आए। मोदी आज वे एपल के सीईओ टिम कुक समेत क्वालकॉम, एडोबी और ब्लैकस्टोन जैसी कंपनियों के प्रमुखों से भी होटल में ही मुलाकात कर रहे हैं। हरेक सीईओ को 15 मिनट का समय देने का निश्चय हुआ है।

उन्होंने सबसे पहले क्वालकॉम के सीईओ  क्रिस्टियानो आर अमोन से मुलाकात की। मोदी ने क्रिस्टियानो को भारत में मिलने वाले अवसरों के बारे में बताया। क्वालकॉम के सीईओ ने भारत के 5जी सेक्टर समेत कई क्षेत्रों में मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की। क्वालकॉम एक मल्टीनेशनल फर्म है, जो सेमीकंडक्टर, सॉफ्टवेयर और वायरलेस टेक्नोलॉजी सर्विस पर काम करती है।

वे उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से भी बातचीत करेंगे। दिन के आखिर में वे जापान के प्रधानमंत्री सुगा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से बातचीत करेंगे। ये दोनों देश क्वॉड ग्रुप में शामिल हैं। भारत और अमेरिका भी क्वॉड में शामिल हैं।

Sunday, May 23, 2021

लालबत्ती पर खड़ी अर्थव्यवस्था


इस हफ्ते नरेंद्र मोदी सरकार के सात साल पूरे हो जाएंगे। किस्मत ने राजनीतिक रूप से मोदी का साथ दिया है, पर आर्थिक मोड़ पर उनके सामने चुनौतियाँ खड़ी होती गई हैं। पिछले साल टर्नअराउंड की आशा थी, पर कोरोना ने पानी फेर दिया। और इस साल फरवरी-मार्च में लग रहा था कि गाड़ी पटरी पर आ रही है कि दूसरी लहर ने लाल बत्ती दिखा दी। सदियों में कभी-कभार आने वाली महामारी ने बड़ी चुनौती फेंकी है। क्या भारत इससे उबर पाएगा? दुनिया के दूसरे देशों को भी इस मामले में नाकामी मिली है, पर भारत में समूची व्यवस्था कुछ देर के लिए अभूतपूर्व संकट से घिर गई।

बांग्लादेश से भी पीछे

बांग्लादेश के योजना मंत्री एमए मन्नान ने इस हफ्ते अपने देश की कैबिनेट को सूचित किया कि बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 2,064 डॉलर से बढ़कर 2,227 डॉलर हो गई है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 1,947 डॉलर से 280 डॉलर अधिक। पिछले साल अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक’ में यह सम्भावना व्यक्त की थी। हालांकि भारत की जीडीपी के आँकड़े पूरी तरह जारी नहीं हुए हैं, पर जाहिर है कि प्रति व्यक्ति आय में हम बांग्लादेश से पीछे  हैं। वजह है पिछले साल की पहली तिमाही में आया 24 फीसदी का संकुचन। शायद हम अगले साल फिर से आगे चले जाएं, पर हम फिर से लॉकडाउन में हैं। ऐसे में सवाल है कि जिस टर्नअराउंड की हम उम्मीद कर रहे थे, क्या वह सम्भव होगा?

Friday, March 26, 2021

राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा

 


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश-यात्रा के तीन बड़े निहितार्थ हैं। पहला है, भारत-बांग्लादेश रिश्तों का महत्व। दूसरे, बदलती वैश्विक परिस्थितियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया की भूमिका और तीसरे पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनाव में इस यात्रा की भूमिका। इस यात्रा का इसलिए भी प्रतीकात्मक महत्व है कि कोविड-19 के कारण पिछले एक साल से विदेश-यात्राएं न करने वाले प्रधानमंत्री की पहली विदेश-यात्रा का गंतव्य बांग्लादेश है।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बांग्लादेश का स्वतंत्रता दिवस 26 मार्च उस ‘पाकिस्तान-दिवस’ 23 मार्च के ठीक तीन दिन बाद पड़ता है, जिसके साथ भारत के ही नहीं बांग्लादेश के कड़वे अनुभव जुड़े हुए हैं। हमें यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रगान के रूप में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत को चुना था।

हालांकि बांग्लादेश का ध्वज 23 मार्च, 1971 को ही फहरा दिया था, पर बंगबंधु मुजीबुर्रहमान ने स्वतंत्रता की घोषणा 26 मार्च की मध्यरात्रि को की थी। बांग्लादेश मुक्ति का वह संग्राम करीब नौ महीने तक चला और भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद अंततः 16 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्म समर्पण के साथ उस युद्ध का समापन हुआ। बांग्लादेश की स्वतंत्रता पर भारत में वैसा ही जश्न मना था जैसा कोई देश अपने स्वतंत्रता दिवस पर मनाता है। देश के कई राज्यों की विधानसभाओं ने उस मौके पर बांग्लादेश की स्वतंत्रता के समर्थन में प्रस्‍ताव पास किए थे।

विस्तार से पढ़ें पाञ्चजन्य में


Thursday, March 5, 2020

मोदी का ट्वीट और उससे उपजी एक बहस


सोशल मीडिया की ताकत, उसकी सकारात्मक भूमिका और साथ ही उसके नकारात्मक निहितार्थों पर इस हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक ट्वीट ने अच्छी रोशनी डाली. हाल में दिल्ली के दंगों को लेकर सोशल मीडिया पर कड़वी, कठोर और हृदय विदारक टिप्पणियों की बाढ़ आई हुई थी. ऐसे में प्रधानमंत्री  के एक ट्वीट ने सबको चौंका दिया. उन्होंने लिखा, 'इस रविवार को सोशल मीडिया अकाउंट फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब छोड़ने की सोच रहा हूं.' उनके इस छोटे से संदेश ने सबको स्तब्ध कर दिया. क्या मोदी सोशल मीडिया को लेकर उदास हैं?   क्या वे जनता से संवाद का यह दरवाजा भी बंद करने जा रहे हैं? या बात कुछ और है?
इस ट्वीट के एक दिन बाद ही प्रधानमंत्री ने अपने आशय को स्पष्ट कर दिया, पर एक दिन में कई तरह की सद्भावनाएं और दुर्भावनाएं बाहर आ गईं. जब प्रधानमंत्री ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया है, तब भी जो टिप्पणियाँ आ रही हैं उनमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के दृष्टिकोण शामिल हैं. उनके समर्थक हतप्रभ थे और उनके विरोधियों ने तंज कसने शुरू कर दिए. इनमें राहुल गांधी से लेकर कन्हैया कुमार तक शामिल थे. कुछ लोगों ने अटकलें लगाईं कि कहीं मोदी अपना मीडिया प्लेटफॉर्म लांच करने तो नहीं जा रहे हैं? क्या ऐसा तो नहीं कि अब उनकी जगह अमित शाह जनता को संबोधित करेंगे? 

Thursday, May 30, 2019

नई सरकार के सामने चुनौतियाँ कम, उम्मीदें ज्यादा

नरेन्द्र मोदी की नई सरकार के सामने कई मायनों में पिछले कार्यकाल के मुकाबले चुनौतियाँ कम हैं, पर उससे उम्मीदें कहीं ज्यादा हैं. राजनीतिक नजरिए से सरकार ने जो जीत हासिल की है, उसके कारण उसके विरोधी फिलहाल न केवल कमजोर पड़ेंगे, बल्कि उनमें बिखराव की प्रक्रिया शुरू होगी. कई राज्यों में विरोधी राजनीति, खासतौर से कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं. दूसरी तरफ उसे जनता ने जो भारी समर्थन दिया है, उसके कारण उसपर जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया है.

अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं. इन सभी राज्यों में बीजेपी और गठबंधन एनडीए की स्थिति बेहतर है. जम्मू-कश्मीर में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इन चुनावों का शेष देश की राजनीति के लिहाज से महत्व है. वहाँ घाटी और जम्मू क्षेत्र की राजनीति के अलग रंग हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं.

नई सरकार के राजनीतिक-आर्थिक कदमों का पता अगले हफ्ते के बाद लगेगा, जब मंत्रालयों की स्थिति स्पष्ट हो चुकी होगी, पर विदेश-नीति के मोर्चे को संकेत शपथ-ग्रहण के पहले से ही मिलने लगे हैं. मोदी सरकार की वापसी में सबसे बड़ी भूमिका राष्ट्रवाद की है. पुलवामा कांड ने नागरिकों के काफी बड़े वर्ग को नाराज कर दिया है. नई सरकार के शपथ-ग्रहण के साथ ही यह बात स्पष्ट हो रही है कि मोदी सरकार, पाकिस्तान के साथ रिश्तों को लेकर बेहद संजीदा है.

शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण न देकर भारत ने एक बात स्पष्ट कर दी है कि वह इसबार उसका रुख कठोर है. लगता है कि भारत का रुख अब आक्रामक रहेगा. सब सामान्य रहा, तो 13-14 जून को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में होगी. उसके आगे की राह शायद वहाँ से तय होगी.

भारत की दिलचस्पी चीन के साथ बातचीत को आगे बढ़ाने की जरूर है. सरकार बनने के पहले ही खबरें हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ वाराणसी में वैसा हा एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया है, जैसा पिछले साल चीन के वुहान में हुआ था. अमेरिका और चीन के रिश्तों में तेजी से आते बदलाव के संदर्भ में इस मुलाकात का बड़ा महत्व है.

Monday, May 6, 2019

मिट्टी के लड्डू और पत्थर के रसगुल्ले यानी मोदी और उनके विरोधियों के रिश्ते


पिछले पाँच साल में ही नहीं, सन 2002 के बाद की उनकी सक्रिय राजनीति के 17 वर्षों में नरेन्द्र मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के रिश्ते हमेशा कटुतापूर्ण रहे हैं। राजनीति में रिश्तों के दो धरातल होते हैं। एक प्रकट राजनीति में और दूसरा आपसी कार्य-व्यवहार में। प्रकट राजनीति में तो उनके रिश्तों की कड़वाहट जग-जाहिर है। यह बात ज्यादातर राजनेताओं पर, खासतौर से ताकतवर नेताओं पर लागू होती है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंह राव, अटल बिहारी और मनमोहन सिंह सबसे नाराज लोग भी थे। फिर भी उस दौर का कार्य-व्यवहार इतना कड़वा नहीं था। मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के असामान्य रूप से कड़वे हैं। मोदी भी अपने प्रतिस्पर्धियों को किसी भी हद तक जाकर परास्त करने में यकीन करते हैं। यह भी सच है कि सन 2007 के बाद उनपर जिस स्तर के राजनीतिक हमले हुए हैं, वैसे शायद ही किसी दूसरे राजनेता पर हुए होंगे। शायद इन हमलों ने उन्हें इतना कड़वा बना दिया है।  
विवेचन का विषय हो सकता है कि मोदी का व्यक्तित्व ऐसा क्यों है?   और उनके विरोधी उनसे इस हद तक नाराज क्यों हैं? उनकी वैचारिक कट्टरता का क्या इसमें हाथ है या अस्तित्व-रक्षा की मजबूरी? यह बात उनके अपने दल के भीतर बैठे प्रतिस्पर्धियों पर भी लागू होती है। राजनेताओं के अपने ही दल में प्रतिस्पर्धी होते हैं, पर जिस स्तर पर मोदी ने अपने दुश्मन बनाए हैं, वह भी बेमिसाल है।

Monday, October 22, 2018

आजाद हिन्द की टोपी पहन, कांग्रेस पर वार कर गए मोदी

नरेंद्र मोदीइसे नरेंद्र मोदी की कुशल ‘व्यावहारिक राजनीति’ कहें या नाटक, पर वे हर उस मौके का इस्तेमाल करते हैं, जो भावनात्मक रूप से फायदा पहुँचाता है. निशाने पर नेहरू-गांधी ‘परिवार’ हो तो वे उसेखास अहमियत देते हैं. रविवार 21 अक्तूबर को लालकिले से तिरंगा फहराकर उन्होंने कई निशानों पर तीर चलाए हैं.

'आजाद हिंद फौज' की 75वीं जयंती के मौके पर 21 अक्टूबर को लालकिले में हुए समारोह में मोदीजी की उपस्थिति की योजना शायद अचानक बनी. वरना यह लम्बी योजना भी हो सकती थी. ट्विटर पर एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था कि मैं इस समारोह में शामिल होऊँगा.

कांग्रेस पर वार
इस ध्वजारोहण समारोह में मोदी ने नेताजी के योगदान को याद करने में जितने शब्दों का इस्तेमाल किया, उनसे कहीं कम शब्द उन्होंने कांग्रेस पर वार करने में लगाए, पर जो भी कहा वह काफी साबित हुआ.

उन्होंने कहा, एक परिवार की खातिर देश के अनेक सपूतों के योगदान को भुलाया गया. चाहे सरदार पटेल हो या बाबा साहब आम्बेडकर. नेताजी के योगदान को भी भुलाने की कोशिश हुई. आजादी के बाद अगर देश को पटेल और बोस का नेतृत्व मिलता तो बात ही कुछ और होती.

अभिषेक मनु सिंघवी ने हालांकि बाद में कांग्रेस की तरफ से सफाई पेश की, पर मोदी का काम हो गया. मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गांधी, आम्बेडकर, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले ही अंगीकार कर लिया है. अब आजाद हिन्द फौज की टोपी पहनी है.

Monday, February 12, 2018

चुनाव का प्रस्थान-बिन्दु है मोदी का भाषण

बजट सत्र में संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण को लेकर पैदा हुए राजनीतिक विवाद की अनदेखी कर दें तो यह साफ नजर आता है कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की रणनीति क्या होगी। जून 2014 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के और इस बार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषणों को मिलाकर पढ़ें तो यह बात और साफ हो जाती है।
मोदी सरकार बदलते पैराडाइम को लेकर आई थी। जनता ने इस संदेश को किस रूप में लिया, यह अब सामने आएगा। अब हमें कांग्रेस के एजेंडा का इंतजार करना चाहिए। जिस वक्त नरेन्द्र मोदी लोकसभा में अपना वक्तव्य दे रहे थे, कांग्रेस पार्टी के सांसद निरंतर शोर कर रहे थे। इससे पैदा हुई राजनीति की अनुगूँज संसद के बाहर भी सुनाई पड़ी है। साफ है कि चुनाव होने तक अब माहौल ऐसा ही रहेगा। 

Sunday, May 21, 2017

‘महाबली’ प्रधानमंत्री के तीन साल

केंद्र की एनडीए सरकार के काम-काज को कम के कम तीन नजरियों से देख सकते हैं। प्रशासनिक नज़रिए से,  जनता की निगाहों से और नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत पहचान के लिहाज से। प्रशासनिक मामलों में यह सरकार यूपीए-1 और 2 के मुकाबले ज्यादा चुस्त और दुरुस्त है। वजह इस सरकार की कार्यकुशलता के मुकाबले पिछले निजाम की लाचारी ज्यादा है। मनमोहन सिंह की बेचारगी की वजह से उनके आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने अमेरिका में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि देश पॉलिसी पैरेलिसिस से गुजर रहा है। अब आर्थिक सुधार 2014 के बाद ही हो पाएंगे।

यह सन 2012 की बात है। तब कोई नहीं कह सकता था कि देश के अगले प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी को बैठना है। इस बयान के करीब एक साल बाद कांग्रेस के दूसरे नंबर के नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस में मनमोहन सरकार के एक अध्यादेश को फाड़कर फेंका था। सही या गलत नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की कमजोरी का फायदा उठाया। वे ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए हैं। यह साबित करते हुए कि वे लाचार नहीं, ‘महाबली’ प्रधानमंत्री हैं। 

Saturday, May 20, 2017

क्या तैयारी है मोदी के मिशन 2019 की?

नरेन्द्र मोदी महाबली साबित हो रहे हैं। उनके रास्ते में आने वाली सारी बाधाएं दूर होती जा रही हैं। लोगों का अनुमान है कि वे 2019 का चुनाव तो जीतेंगे उसके बाद 2024 का भी जीत सकते हैं। यह अनुमान है। अनुमान के पीछे दो कारण हैं। एक उनकी उम्र अभी इतनी है कि वे अगले 15 साल तक राजनीति में निकाल सकते हैं। दूसरे उनके विकल्प के रूप में कोई राजनीति और कोई नेता दिखाई नहीं पड़ता है। यों सन 2024 में उनकी उम्र 74 वर्ष होगी। उनका अपना अघोषित सिद्धांत है कि 75 वर्ष के बाद सक्रिय राजनीति से व्यक्ति को हटना चाहिए। इस लिहाज से मोदी को 2025 के बाद सक्रिय राजनीति से हटना चाहिए। बहरहाल सवाल है कि क्या उन्हें लगातार सफलताएं मिलेंगी? और क्या अगले सात साल में उनकी राजनीति के बरक्स कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ी नहीं होगी?

Saturday, December 3, 2016

ड्रामा बनाम ड्रामा, आज मुरादाबाद में होगी आतिशबाजी

बीजेपी की परिवर्तन यात्राओं और नरेंद्र मोदी की रैलियों ने उत्तर प्रदेश में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के पहले ही माहौल को रोचक और रंगीन बना दिया है. इन रैलियों की मदद से नरेंद्र मोदी एक ओर वोटर का ध्यान खींच रहे हैं, वहीं दिल्ली के रंगमंच पर तलवारें भाँज रहे अपने विरोधियों को जवाब भी दे रहे हैं.
ये रैलियाँ इंदिरा गांधी की रैलियों की याद दिलाती हैं, जिनमें वे अपने विरोधियों की धुलाई करती थीं. इस बात की उम्मीद है कि आज की मुरादाबाद रैली में मोदी अपने विरोधियों के नाम कुछ करारे जवाब लेकर आएंगे. पहले सर्जिकल स्ट्राइक और फिर नोटबंदी को लेकर पार्टी पर हुए हमलों का जवाब मोदी अपनी इन रैलियों में दे रहे हैं.

Wednesday, November 11, 2015

मोदी के खिलाफ युद्ध घोषणाएं

 
हिन्दू में केशव का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को यह बात चुनाव परिणाम आने के पहले समझ में आने लगी थी कि बिहार में उसकी हार होने वाली है। इसलिए पार्टी की ओर से कहा जाने लगा था कि इस चुनाव को केन्द्र सरकार की नीतियों पर जनमत संग्रह नहीं माना जा सकता। इसे जनमत संग्रह न भी कहें पर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वोटर की कड़ी टिप्पणी तो यह है ही। इस परिणाम के निहितार्थ और इस पराजय के कारणों पर विवेचन होने लगा है। पार्टी के बुजुर्गों की जमात ने अपनी नाराजगी लिखित रूप से व्यक्त कर दी है। यह जमात नरेंद्र मोदी की तब से विरोधी है जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के लिए दावेदारी पेश की थी। देखना होगा कि बुजुर्गों की बगावत किस हद तक मोदी को परेशान करेगी।  

Wednesday, September 30, 2015

विदेश में रहने वाले भारतवंशी मोदी के दीवाने क्यों?

नरेंद्र मोदी अच्छे सेल्समैन की तरह विदेशी जमीन पर भारत का जादू जगाने में कामयाब रहे हैं. पिछले साल सितंबर में अमेरिका की यात्रा से उन्होंने जो जादू बिखेरना शुरू किया था, वह अभी तक हवा में है. उनकी राष्ट्रीय नीतियों को लेकर तमाम सवाल हैं, बावजूद इसके भारत के बाहर वे जहाँ भी गए गहरी छाप छोड़कर आए. यह बात पड़ोस के देश नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश और श्रीलंका से शुरू होकर जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस, मध्य एशिया, संयुक्त अरब अमीरात से लेकर आयरलैंड तक साबित हुई. 

मोदी की ज्यादातर यात्राओं के दो हिस्से होते हैं. विदेशी सरकारों से मुलाकात और वहाँ के भारतवंशियों से बातें. भारतवंशियों के बीच जाकर वे सपनों के शीशमहल बनाते हैं साथ ही देशी राजनीति पर चुटकियाँ लेते हैं, जिससे उनके विरोधी तिलमिलाता जाते हैं. उनका यह इंद्रजाल तकरीबन हरेक यात्रा के दौरान देखने को मिला है. उनकी हर कोशिश को लफ्फाजी मानने वाले भी अभी हार मानने को तैयार नहीं हैंं. पर दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं. सच इनके बीच में है, पर कितना बीच में?

Monday, January 26, 2015

यह ‘परेड-डिप्लोमेसी’ कुछ कहती है


बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस की परेड का मुख्य अतिथि बनाने का कोई गहरा मतलब है? एक ओर सुरक्षा व्यवस्था का दबाव पहले से था, ओबामा की यात्रा ने उसमें नाटकीयता पैदा कर दी. मीडिया की धुआँधार कवरेज ने इसे विशिष्ट बना दिया है. यात्रा के ठीक पहले दोनों देशों के बीच न्यूक्लियर डील के पेचीदा मसलों का हल होना भी सकारात्मक है. कई लिहाज से यह गणतांत्रिक डिप्लोमेसी इतिहास के पन्नों में देर तक याद की जाएगी.    

दोनों के रिश्तों में दोस्ताना बयार सन 2005 से बह रही है, पर पिछले दो साल में कुछ गलतफहमियाँ भी पैदा हुईं. इस यात्रा ने कई गफलतों-गलतफहमियों को दूर किया है और आने वाले दिनों की गर्मजोशी का इशारा किया है. पिछले 65 साल में अमेरिका को कोई राजनेता इस परेड का मुख्य अतिथि कभी नहीं बना तो यह सिर्फ संयोग नहीं था. और आज बना है तो यह भी संयोग नहीं है. वह भी भारत का एक नजरिया था तो यह भी हमारी विश्व-दृष्टि है. ओबामा की यह यात्रा एक बड़ा राजनीतिक वक्तव्य है.

Sunday, September 7, 2014

मोदी का बच्चों से संवाद

नरेन्द्र मोदी की हर बात पर दो किस्म की प्रतिक्रियाएं होती हैं। भारी समर्थन, घनघोर विरोध। शिक्षक दिवस पर उनके कार्यक्रम पर भी प्रतिक्रियाएं पूर्व-निर्धारित थीं। उनका भाषण जितने ध्यान से उनके समर्थक सुनते हैं उससे ज्यादा गौर से उनके विरोधी सुनते हैं। वे उसे खारिज करते हैं, पर अनदेखी नहीं करते। सोशल मीडिया पर लगी झटपट-टिप्पणियों की झड़ी से यह बात साबित होती है। मोदी जब बोलते हैं तब सारा देश सुनता है। भले ही नापसंद करे। उन्होंने नकारात्मक प्रचार को जिस तरह अपने पक्ष में किया है उसे देखना भी रोचक है।

Monday, August 18, 2014

संवाद-शिल्प में माहिर हैं मोदी

जनता से संवाद करना मोदी को आता है, कम्युनिकेशन स्किल में निपुण हैं मोदी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने विरोधी की बातों की बेहतरीन पेशबंदी करना जानते हैं। उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के भाषण की शुरुआत में कहा, मेरी बात को राजनीति के तराजू में न तोला जाए। यह बात अच्छी तरह समझ कर कही गई थी कि उनकी बातों को राजनीति के तराजू में तोला जाएगा। पर अब जो तोलेगा वह अतिरिक्त जोखिम मोल लेगा। उन्होंने कहा, मैं दिल्ली के लिए आउटसाइडर रहा हूं, पर दो महीने में जो इनसाइडर व्यू लिया तो चौंक गया। ऐसा लगता है कि जैसे एक सरकार के भीतर दर्जनों सरकारें चल रहीं हैं। हरेक की जागीर बनी है। मैंने दीवारें गिराने की कोशिश की है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि भाषण के मंच से तकरीबन तीस साल बाद बुलेट प्रूफ बॉक्स हटा दिया गया। सिर पर परम्परागत पगड़ी, पृष्ठभूमि में पुरानी दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतें, सामने बच्चों की कतारें।
मोदी के संदेश के कथ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी शैली और मंचकला। उन्हें माहौल बनाना आता है। जनता की भाषा में बोलते हैं। वह भी ऐसी जो समझ में आती है। बाएं और दाएं हाथ की मुद्राएं और चेहरे के हाव-भाव और शब्दों का मॉड्यूलेशन उस नाटकीयता को जन्म देता है, जो उनके भाषण को प्रभावशाली बनाती है। वे अपने शब्दों को इतनी तरह से कहते हैं कि बात सुनने वाले के मन में गहराई तक उतर जाए। उन्होंने कहा, देश को एक रस, एक मन, एक दिशा, एक गति, एक मति हो जाना चाहिए। बार-बार बोलकर उन्होंने सुनने वाले के मन पर ‘एक’ को इतनी गहराई तक उतार दिया कि उसे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं रह गई।
सामाजिक ऊर्जा को दोहन के तरीकों को नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं। यह बात लोकसभा चुनाव में हमने देखी। मोदी ने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पी2जी2 (प्रो पीपुल, गुड गवर्नेंस), स्किल,स्केल और स्पीड, माउस चार्मर का देश, फाइबर टू फैशन, गुजरात का नमक और आधा भरा गिलास जैसे जुमलों का सहारा लेकर नौजवानों को अपनी बात समझाई थी। यह शब्दावली नौजवानों को फौरन समझ में आती है। गौर करें तो पाएंगे कि मोदी नौजवानों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। गुजरात में मोदी गुजराती में बोलते हैं पर शेष देश में वे हिन्दी में बोलते हैं। वे इन भाषाओं में सहज हैं और इनके मुहावरों को समझते हैं। पर अंग्रेजी का ‘मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सीमम गवर्नेंस’ भी वे उसी सानी से लोगों के मन में डालने में कामयाब हुए हैं।
वे अच्छे स्टोरी टेलर भी हैं। सम्भव है उन पर परम्परागत देशी कथा वाचकों का प्रभाव हो। पर जॉब और सर्विस के बीच के अंतर को उन्होंने एक छोटे से दृष्टांत से समझा दिया। कथा वाचक भी दृष्टांतों की मदद से कहानी आगे बढ़ाते हैं। पिछले साल जब अप्रैल के पहले हफ्ते में सीआईआई की एक गोष्ठी में राहुल गांधी ने अपना दृष्टिकोण देश के सामने रखा। राहुल का वह भाषण बेहद संजीदा था। तब तक देश उन्हें संजीदगी से ही ले रहा था। राहुल के भाषण के चार दिन बाद ही फिक्की की महिला शाखा में नरेंद्र मोदी का भाषण हुआ। उसमें मोदी ने अपनी वाक्पटुता का परिचय दिया। इस भाषण में उन्होंने महिलाओं से जुड़ी कई कहानियां सुनाईं। और फिर जनता ने राहुल और मोदी की तुलना शुरू कर दी। इस तुलना ने मोदी को लगातार फायदा पहुंचाया। मोदी के भाषणों के अनुप्रास अनायास ही अब सबका ध्यान खींचते हैं। यह उनकी व्यक्तिगत देन है या कोई कम्युनिकेशन स्ट्रैटजी है, पर अब सरकारी भाषा बदल गई है।
इस साल जब संसद का सत्र शुरू हो रहा था तब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में कहा, नई सरकार 3-डी तकनीक से काम करेगी और देश को नई ऊंचाइयों तक ले जाएगी। यहाँ 3-डी का मतलब था डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और डिमांड। अपने चुनाव अभियान में हजारों जमीनी और थ्री-डी रैलियों के अलावा चाय पर चर्चा उनकी कम्युनिकेशन रणनीति का हिस्सा ही थीं। सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले शुरुआती राजनेताओं में नरेंद्र मोदी ही थे। उन्होंने राजनीतिक संवाद की जो शैली विकसित की है वह स्वतंत्रता दिवस के भाषण के रूप में अपने सबसे उत्कृष्ट रूप में देखने में आई। एक प्रधानमंत्री अपनी जनता के सामने उसके प्रधान सेवक के रूप में खड़ा था, बगैर बुलेट प्रूफ पर्दे के। यह बात जनता की भावनाओं को गहराई तक छूती है। 

Saturday, August 2, 2014

मोदी समर्थकों का उत्साह क्या ठंडा पड़ रहा है?

 शनिवार, 2 अगस्त, 2014 को 12:57 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी की सरकार ने पहले दो महीनों में अपने विरोधियों को जितने विस्मय में डाला है, उससे ज़्यादा भौचक्के उनके कुछ घनघोर समर्थक हैं. ख़ासतौर से वे लोग जिन्हें बड़े फ़ैसलों की उम्मीदें थीं.
सरकार बनने के बाद मोदी की रीति-नीति में काफ़ी बदलाव हुआ है. सबसे बड़ा बदलाव है मीडिया से बढ़ती दूरी.
मीडिया की मदद से सत्ता में आए क्लिक करेंमोदी शायद मीडिया के नकारात्मक असर से घबराते भी हैं.
फुलझड़ियों की तरह फूटते उनके बयान गुम हो गए हैं. पर सबसे रोचक है उन विशेषज्ञों को लगा सदमा जो भारी बदलावों की उम्मीद कर रहे थे.
कोई बात है कि कुछ महीने पहले तक बेहद उत्साही मोदी समर्थकों की भाषा और शैली में ठंडापन आ गया है.

पढ़िए पूरा आकलन

शुरुआत मोदी की कट्टर समर्थक मानी जाने वाली मधु किश्वर ने की थी. उन्होंने क्लिक करेंस्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्री बनाए जाने का खुलकर विरोध किया.

Saturday, May 17, 2014

अब ‘अच्छे दिनों’ को लाना भी होगा

भारतीय जनता पार्टी की यह जीत नकारात्मक कम सकारात्मक ज्यादा है. दस साल के यूपीए शासन की एंटी इनकम्बैंसी होनी ही थी. पर यह जीत है, किसी की पराजय नहीं. कंग्रेस जरूर हारी पर विकल्प में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी ने नए भारत का सपना दिखाया है. यह सपना युवा-भारत की मनोभावना से जुड़ा है. यह तख्ता पलट नहीं है. यह उम्मीदों की सुबह है. इसके अंतर में जनता की आशाओं के अंकुर हैं. वोटर ने नरेंद्र मोदी के इस नारे को पास किया है कि अच्छे दिन आने वाले हैं. अब यह मोदी की जिम्मेदारी है कि वे अच्छे दिन लेकर आएं. उनकी लहर थी या नहीं थी, इसे लेकर कई धारणाएं हैं. पर देशभर के वोटर के मन में कुछ न कुछ जरूर कुछ था. यह मनोभावना पूरे देश में थी. देश की जनता पॉलिसी पैरेलिसिस और नाकारा नेतृत्व को लेकर नाराज़ थी. उसे नरेंद्र मोदी के रूप में एक कड़क और कारगर नेता नज़र आया. ऐसा न होता तो तीस साल बाद देश के मतदाता ने किसी एक पार्टी को साफ बहुमत नहीं दिया होता. यह मोदी मूमेंट है. उन्होंने वोटर से कहा, ये दिल माँगे मोर और जनता ने कहा, आमीन। देश के संघीय ढाँचे में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पंख देने में भी नरेंद्र मोदी की भूमिका है. एक अरसे बाद एक क्षेत्रीय क्षत्रप प्रधानमंत्री बनने वाला है.