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Thursday, August 11, 2022

नीतीश को पीएम-प्रत्याशी बनाने और राष्ट्रीय गठबंधन के दावों के पीछे जल्दबाजी है

सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून

बिहार में सरकार बन जाने के बाद दो सवाल खड़े हुए हैं। स्वाभाविक रूप से पहला सवाल होना चाहिए था कि क्या नई सरकार, पिछली सरकार से बेहतर साबित होगी
? आश्चर्यजनक रूप से यह दूसरा सवाल बन गया है। उसकी जगह पहला सवाल है कि क्या नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के सर्वमान्य प्रत्याशी होंगे? सर्वमान्य का एक मतलब यह भी है कि क्या बिहार का महागठबंधन विरोधी दलों का राष्ट्रीय महागठबंधन बनेगा? जैसा कि प्रशांत किशोर मानते हैं कि यह परिघटना राज्य-केंद्रित है, इससे 2024 के चुनाव को लेकर राष्ट्रीय-निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं।

मनोबल बढ़ेगा

बेशक बिहार के परिदृश्य से विरोधी दलों का मनोबल ऊँचा होगा। इसे विरोधी महागठबंधन का प्रस्थान-बिंदु भी मान सकते हैं, पर उसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। अभी हम उत्साह देख रहे हैं। नई सरकार से कुछ लोग निराश भी होंगे। उन अंतर्विरोधों को सामने आने दीजिए। मीडिया में अभी से खबरें हैं कि तेजस्वी बेहतर मुख्यमंत्री साबित होते। बिहार की राजनीति जाति और संप्रदाय-केंद्रित है। राज्य में सौ से ज्यादा अति-पिछड़े वर्ग हैं, जिनका नेतृत्व विकसित हो रहा है। इन नए नेताओं की मनोकामना का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता है।

बीजेपी अकेली

महागठबंधन के समर्थक इस बात से खुश हैं कि सात दलों के उनके गठबंधन के सामने बीजेपी अकेली है। कौन जाने कुछ महीनों बाद बीजेपी के साथ कुछ दल आ जाएं। बहुत ज्यादा दलों के गठजोड़ के जोखिम भी हैं। अभी यह भी देखना होगा कि जेडीयू और राजद के रिश्ते किस प्रकार के रहेंगे। जेडीयू के भीतर के हालचाल भी पता लगने चाहिए। गठबंधन जब बनता है, तब जो उत्साहवर्धक बातें की जाती हैं, उनके व्यावहारिक-प्रतिफलन का इंतजार भी करना चाहिए।

जल्दबाजी

पहली नज़र में लगता है कि नीतीश कुमार को पीएम प्रत्याशी बनाने और महागठबंधन को राष्ट्रीय मोर्चा की शक्ल देने की कोशिश जल्दबाजी में की जा रही है। इसकी घोषणा राष्ट्रीय जनता दल या जेडीयू कैसे कर सकते हैं? दोनों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है? नीतीश कुमार ने खुलकर कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना चाहता हूँ, पर 10 अगस्त को उन्होंने शपथ लेने के बाद यह कहकर एक नई पहेली पेश कर दी कि मैं 2024 के बाद मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहूँगा।

चौबीस या पच्चीस?

बिहार विधानसभा के चुनाव तो 2025 में होने हैं, 2024 में नहीं। लोकसभा चुनाव नहीं, तो 2024 से उनका आशय और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश बरसों पहले से की जा रही है। 2013 में जब नरेंद्र मोदी का नाम बीजेपी के नेता के रूप में लाने की कोशिश की जा रही थी, तब नीतीश कुमार ने उनका विरोध करते हुए कहा था कि देश का प्रधानमंत्री धर्म-निरपेक्ष और उदारवादी होना चाहिए। एक तरह से 2014 में उन्होंने खुद को मोदी के बराबर खड़ा करने की कोशिश की थी, पर वे सफल नहीं हुए। इसके लिए राष्ट्रीय-स्तर पर जो वजन चाहिए, वह उनके पास नहीं था।

कितनी मनोकामनाएं?

नीतीश की छवि अच्छे प्रशासक की भी है, पर अच्छा प्रशासक होना पीएम पद का प्रत्याशी नहीं बनाता। उसके लिए राजनीतिक-प्रभाव और विरोधी दलों के बीच सहमति की जरूरत होगी। नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में कितने प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा में ला सकेंगे? पीएम-प्रत्याशी बनने की मनोकामना कुछ और नेताओं के मन में है। उन सबके बीच एक सर्वसम्मत प्रत्याशी का नाम तय करने की प्रक्रिया काफी जटिल होगी। उसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की होगी, क्योंकि बीजेपी के बाद वह अकेली पार्टी है, जिसकी उपस्थिति देशभर में है।

कांग्रेस का महत्व

हालांकि कांग्रेस के सांसदों की संख्या छोटी है, पर उसकी राष्ट्रीय उपस्थिति बीजेपी से भी बेहतर है। पीएम-प्रत्याशी तो बाद की बात है, पहले देखना होगा कि क्या विरोधी दलों का कोई ऐसा मोर्चा बनना संभव है, जिसमें कांग्रेस, एनसीपी, तृणमूल, सीपीएम, सीपीआई, सीपीएमएल, राजद, जेडीयू, सपा, बसपा, टीआरएस, तेदेपा वगैरह-वगैरह हों?

 

 

Wednesday, August 10, 2022

अब किस दिशा में जाएगी बिहार की राजनीति?

तेलंगाना टुडे में सुरेंद्र का कार्टून

काफी समय से चर्चा थी कि नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदलेंगे, पर शायद उन्हें सही मौके और ऐसे ट्रिगर की तलाश थी, जिसे लेकर वे अपना रास्ता बदलते। यों इसकी संभावना काफी पहले से व्यक्त की जा रही थी। जब जेडीयू के अंदर आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब इसकी पुष्टि होने लगी। उसके पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह के निमंत्रण पत्र में नीतीश कुमार का नाम नहीं डाला गया, तब भी इस बात का इशारा मिला था कि टूटने की घड़ी करीब है।

बहरहाल बदलाव हो चुका है, इसलिए ज्यादा बड़ा सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ज्यादा समझदार हुई है? कांग्रेस की भूमिका क्या होगी? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह?

पीएम मैटीरियल

क्या नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के प्रत्याशी बनकर उभरना चाहते हैं?  राहुल गांधी, ममता बनर्जी, केसीआर और अरविंद केजरीवाल की मनोकामना भी शायद यही है। बहरहाल आरसीपी सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो नीतीश के कट्टर विरोधी भी नहीं करते। उन्होंने कहा, "नीतीश कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जनम तक नहीं।" यह भी कि, "जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज़ है। आप लोग तैयार रहिए।" इन बातों से भी नीतीश कुमार को निजी तौर चोट लगी।

मंगलवार की शाम एक पत्रकार ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी से जुड़ा सवाल किया, तो नीतीश ने कहा, नो कमेंट। 2014 से कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने इस बार भी गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।

नीतीश कुमार को नज़दीक से जानने वाले कई नेताओं ने तसदीक की है कि प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने पर नीतीश खुश होते हैं। आरसीपी सिंह तो उनके बहुत क़रीब रहे हैं। वे उनके मनोभावों को समझते हैं। बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने ट्वीट किया, यह सरासर सफ़ेद झूठ है कि भाजपा ने बिना नीतीश जी की सहमति के आरसीपी को मंत्री बनाया था। यह भी झूठ है कि जेडीयू को बीजेपी तोड़ना चाहती थी। बल्कि जेडीयू ही तोड़ने का बहाना खोज रही थी।

क्षेत्रीय दलों का भविष्य

उधर 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि आने वाले दिनों में सभी क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। फिर जिस तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना को तोड़ा, उसे लेकर भी नीतीश कुमार सशंकित थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को प्राप्त सीटों में भारी गिरावट भी एक इशारा था। ऊपर कही गई ज्यादातर बातें निजी या पार्टी के हितों को लेकर हैं, जो वास्तविकता है। पर राजनीति पर विचारधारा का कवच चढ़ा हुआ है, जिसका जिक्र अब हो रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर और हाल में अग्निवीर कार्यक्रम को लेकर भी उनका दृष्टिकोण बीजेपी के नजरिए से अलग था। जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार का रास्ता अलग था।

नई ऊर्जा

माना जा रहा है कि इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों में नई ऊर्जा देखने को मिलेगी। करीब-करीब ऐसी ही बात 2015 में जब पहली बार महागठबंधन बना तब कही गई थी। हालांकि उस ऊर्जा की हवा नीतीश कुमार ने ही 2017 में निकाल दी। उसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी भी विफल रही। पर 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस की सरकार बन गई, तब एकबार फिर ऊर्जा नजर आने लगी। पर वह ऊर्जा ज्यादा देर चली नहीं। सवाल है कि क्या अब लालू और नीतीश की जोड़ी सफल होगी? इसका जवाब नई सरकार के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन लंबे समय तक बना रहा और उसके भीतर टकराव नहीं हुआ, तो बिहार की राजनीति में बदलाव होगा। पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया भी होगी।

मित्र-विहीन भाजपा

तेजस्वी यादव ने कहा है कि हिंदी पट्टी वाले राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। उन्होंने कहा, बीजेपी किसी भी राज्य में अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के मिशन में जुट जाती है। बिहार में भी यही करने की कोशिश हो रही थी। राजनीति में ऐसा ही होता है। बीजेपी का विस्तार होगा तो किसकी कीमत पर? उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने सपा का विस्तार किया तो गायब कौन हुआ? कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी।

बिहार में भी दो दशक पहले बीजेपी की ताकत क्या थी और आज क्या है? पार्टनर एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो अपने हित के लिए आते हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे के करीब अपने हितों के लिए आए थे। और आज नीतीश कुमार राजद के पास गए हैं, तो इसलिए कि वे 2024 और उससे आगे की राजनीति में खड़े रह सकें।

ताकत बढ़ी

बीजेपी के समर्थक मानते हैं कि फौरी तौर पर राज्य में धक्का जरूर लगा है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से बीजेपी के लिए यह फ़ायदे की बात है। बीजेपी खेमे में 2020 के चुनाव परिणाम को लेकर नाराज़गी थी कि जेडीयू को 122 सीटें नहीं दी गई होती, तो बीजेपी अकेले दम पर सरकार बना सकती थी। देखना यह है कि बिहार की जातीय संरचना में अब बीजेपी क्या करती है। नीतीश कुमार के कारण कुर्मी वोट का एक आधार उसके साथ था। इसके अलावा अति-पिछड़े वोटर भी एनडीए के साथ थे। क्या पार्टी बिहार के जातीय-समूहों के बीच से नए नेतृत्व को खोज पाएगी? इसका जवाब मिलने में भी कम से कम छह महीने लगेंगे।

 

 

Tuesday, August 9, 2022

बिहार में एक अध्याय खत्म, दूसरा शुरू


बिहार में भाजपा और जेडीयू का गठबंधन अंततः टूट गया है। नीतीश कुमार ने राज्यपाल फागू चौहान को  मुलाकात करके अपना इस्तीफा सौंप दिया और अब कल वे नई सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे। गवर्नर हाउस से निकल कर वे तेजस्वी यादव के घर पहुँचे। फिर तेजस्वी के साथ दुबारा राज्यपाल से मुलाकात करने गए और 164 विधायकों का समर्थन-पत्र सौंपा। इस प्रकार राज्य में एक राज्नीतिक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हो गया है। कांग्रेस विधायक शकील अहमद खान ने कहा है कि नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री होंगे। सब कुछ तय हो गया है। इसका मतलब है कि इसकी बातचीत कुछ दिन पहले से चल रही थी। 

राजभवन से वापसी के बाद नीतीश और तेजस्वी यादव ने पत्रकारों के साथ बातचीत में विश्वास जताया कि उनका गठबंधन बेहतर काम करेगा। अब कल से नई सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू होगी। उसके बाद पता लगेगा कि राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। बीजेपी को ओर से कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई है। केवल इतना कहा गया है कि हमने गठबंधन धर्म का निर्वाह किया, फिर भी नीतीश कुमार ने गठबंधन को तोड़ा है। 

किसे क्या मिलेगा?

हालांकि कहा जा रहा है कि महागठबंधन वैचारिक लड़ाई का हिस्सा है। इसका सरकार बनाने या गिराने से वास्ता नहीं है, पर नई सरकार का गठन होने के पहले ही मीडिया में खबरें चल रही हैं कि किसे कौन सा मंत्रालय मिलेगा। मसलन खबर है कि तेजस्वी यादव ने गृह मंत्रालय की मांग की है। गृह मंत्रालय अभी तक नीतीश के पास है।

अभी तक खामोशी से इंतजार कर रहे बीजेपी के खेमे की खबर है कि पार्टी के कोर ग्रुप की बैठक आज शाम तारकिशोर प्रसाद के आवास पर हुई। अब कुछ समय तक राज्य की राजनीति में नए गठबंधन और नई सरकार से जुड़े मसले हावी रहेंगे। फिलहाल दिलचस्पी का विषय यह है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ क्यों छोड़ा और क्या राजद और कांग्रेस के साथ उनकी ठीक से निभ पाएगी या नहीं।

Sunday, March 31, 2019

महागठबंधन का स्वप्न-भंग

epaper.haribhoomi.com//customprintviews.php?pagenum=4&edcode=72&mode=1&pgdate=2019-03-31
पिछले साल 23 मई को बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में और फिर इस साल 19 जनवरी को कोलकाता में हुई विरोधी एकता की रैली ‘ब्रिगेड समावेश’ में मंच पर एकसाथ हाथ उठाकर जिन राजनेताओं ने विरोधी एकता की घोषणा की थी, उनकी तस्वीरें देशभर के मीडिया में प्रकाशित हुईं थीं। अब जब चुनाव घोषित हो चुके हैं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विरोधी-एकता की जमीन पर स्थिति क्या है। कर्नाटक की तस्वीर को प्रस्थान-बिन्दु मानें तो उसमें सोनिया, राहुल, ममता बनर्जी, शरद यादव, अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, चन्द्रबाबू नायडू, सीताराम येचुरी, फारुक़ अब्दुल्ला, अजित सिंह, अरविन्द केजरीवाल के अलावा दूसरे कई नेता थे। डीएमके के एमके स्टालिन तूतीकोरन की घटना के कारण आ नहीं पाए थे, पर उनकी जगह कनिमोझी थीं।

उस कार्यक्रम के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने अपनी शुभकामनाएं भेजी थीं। ओडिशा के नवीन पटनायक बुलावा भेजे जाने के बावजूद नहीं आए थे। इन सब नामों को गिनाने का तात्पर्य यह है कि पिछले तीन साल से महागठबंधन की जिन गतिविधियों के बारे में खबरें थीं, उनके ये सक्रिय कार्यकर्ता थे। अब जब चुनाव सामने हैं, तो क्या हो रहा है? हाल में बंगाल की एक रैली में राहुल गाँधी ने ममता बनर्जी की आलोचना कर दी। इसके बाद जवाब में ममता ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि राहुल अभी बच्चे हैं। तीन महीने पहले तेलंगाना में हुए चुनाव में तेदेपा और कांग्रेस का गठबंधन था। अब आंध्र में चुनाव हो रहे हैं, पर गठबंधन नहीं है।

Sunday, March 17, 2019

गठबंधन राजनीति का बिखराव!

http://epaper.haribhoomi.com/epaperimages/17032019/17032019-MD-RAI-4.PDF
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि कांग्रेस के साथ हम किसी भी राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। मायावती ने ही साथ नहीं छोड़ा, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेदेपा का गठबंधन टूट गया है। बीजेपी को हराने के लिए सामने आई ममता बनर्जी तक ने अपने बंगाल में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। दिल्ली में कांग्रेसी झिड़कियाँ खाने के बावजूद अरविन्द केजरीवाल बार-बार चिरौरी कर रहे हैं। सम्भव है कि दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो जाए। इसकी वजह है कांग्रेस के भीतर से लगातार बाहर आ रहे विपरीत स्वर।

17वीं लोकसभा और चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की प्रक्रिया सोमवार 18 मार्च से शुरू हो रही है, पर अभी तक क्षितिज पर एनडीए और यूपीए के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरा चुनाव पूर्व मोर्चा या महागठबंधन नहीं है। जो भी होगा, चुनाव परिणाम आने के बाद होगा और फिर उसे मौके के हिसाब से सैद्धांतिक बाना पहना दिया जाएगा। यह भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे का यथार्थ है। जैसा हमेशा होता था स्थानीय स्तर पर सीटों का बँटवारा हो जरूर रहा है, पर उसमें जबर्दस्त संशय है। टिकट कटने और बँटने के चक्कर में एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाने की दौड़ चल रही है।

Saturday, December 29, 2018

गठबंधन का महा-गणित


http://epaper.navodayatimes.in/1957596/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/8/1
देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?  

पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन का। इस वक्त गैर-भाजपा महागठबंधन और गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़ रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।  

Saturday, November 10, 2018

गठबंधन-परिवार के स्वप्न-महल

कर्नाटक में लोकसभा की तीन और विधानसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव ने महागठबंधन-परिवार में अचानक उत्साह का संचार कर दिया है। कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर बीजेपी को बौना बना दिया है। बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले बेल्लारी में भारी पराजय से बीजेपी नेतृत्व का चेहरा शर्म से लाल है। नहीं जमखंडी की लिंगायत बहुल सीट हारने का भी उन्हें मलाल है। पार्टी के भीतर टकराव के संकेत मिल रहे हैं। यूपी के बाद कर्नाटक का संदेश है कि विरोधी दल मिलकर चुनाव लड़ें तो बीजेपी को हराया जा सकता है। कांग्रेस इस बात को जानती है, पर वह समझना चाहती है कि यह गठबंधन किसके साथ और कब होगा? यह राष्ट्रीय स्तर पर होगा या अलग-अलग राज्यों में?
इन परिणामों के आने के पहले ही तेदेपा के चंद्रबाबू नायडू ने दिल्ली आकर राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं से मुलाकात की थी और 2019 के बारे में बातें करनी शुरू कर दी। सपनों के राजमहल फिर से बनने लगे हैं। पर गौर करें तो कहानियाँ लगातार बदल रहीं हैं। साल के शुरू में जो पहल ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव ने शुरू की थी, वह इसबार आंध्र से शुरू हुई है।
महत्वपूर्ण पड़ाव कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा के चुनाव इस साल एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुए हैं। यहाँ कांग्रेस ने त्याग किया है। पर क्या यह स्थायी व्यवस्था है?  क्या कांग्रेस दिल्ली में भी त्याग करेगी?  क्या चंद्रबाबू पूरी तरह विश्वसनीय हैं? बहरहाल उनकी पहल के साथ-साथ तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-तेदेपा गठबंधन का लांच भी हुआ है। अब चंद्रबाबू चाहते हैं कि महागठबंधन जल्द से जल्द बनाना चाहिए, उसके लिए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार नहीं करना चाहिए।

Thursday, February 15, 2018

क्या कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन बनेगा?

कांग्रेस पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव के सिलसिले में राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी-दलों की एकता का प्रयास कर रही है। इस एकता के सूत्र उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से भी जुड़े हैं। सन 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त बना महागठबंधन जुलाई 2017 में टूट गया, जब जेडीयू ने एनडीए में शामिल होने का निश्चय किया। उसके पहले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, पर वहाँ बहुजन समाज पार्टी ने इस गठबंधन को स्वीकार नहीं किया। सवाल है कि क्या अब उत्तर प्रदेश में तीन बड़े दलों का गठबंधन बन सकता है? इस सवाल का जवाब देने के लिए दो मौके फौरन सामने आने वाले हैं।

कांग्रेस इस वक्त गठबंधन राजनीति की जिस रणनीति पर काम कर रही है, वह सन 2015 के बिहार चुनाव में गढ़ी गई थी। यह रणनीति जातीय-धार्मिक वोट-बैंकों पर आधारित है। पिछले साल पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ इसी उम्मीद में गठबंधन किया था कि उसे सफलता मिलेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा एकसाथ नहीं आए हैं। क्या ये दोनों दल कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन में शामिल होंगे? इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश में इस साल होने वाले राज्यसभा चुनावों में मिलेगा।

Monday, November 7, 2016

अखिलेश और पीके की मुलाकात तो हुई

कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके की रविवार की यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से सोमवार 7 नवम्बर को आखिरकार मुलाकात हो गई। इसके पहले खबरें थीं कि अखिलेश ने उनसे मिलने से मना कर दिया है। बहरहाल इस मुलाकात के बाद समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन के कयासों को और हवा मिल गई है।

प्रशांत इससे पहले दिल्ली में और फिर लखनऊ में मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव से मुलाकात कर चुके हैं। वहीं पीके को लेकर कांग्रेस के भीतर असमंजस है। दिल्ली में राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की तैयारियाँ हो रहीं है। उधर खबरें हैं कि कांग्रेस के प्रदेश सचिव सुनील राय समेत कई पदाधिकारियों ने उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लिखे पत्र में यूपी में गठजोड़ का विरोध किया है।

Saturday, September 5, 2015

भाजपा ने डाली महागठबंधन के दुर्ग में दरार



 समाजवादी पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चा बनने की सम्भावनाओं को गहरा धक्का लगा है। बावजूद इसके नीतीश और लालू की एकता और सोनिया गांधी के समर्थन के कारण महागठबंधन कायम रहेगा। पर बीजेपी की कोशिश इसकी जड़ों को काटने की होगी। यह बात पिछले हफ्ते की गतिविधियों से साफ है। पिछली 27 अगस्त को मुलायम सिंह यादव और रामगोपाल यादव की नरेंद्र मोदी से मुलाकात हुई थी। उसके फौरन बाद मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि मैं महागठबंधन की 30 अगस्त को होने वाली स्वाभिमान रैली में शामिल नहीं हो पाऊँगा। इस पर लालू यादव ने कहा था कि इसमें परेशानी की कोई बात नहीं है। उन्होंने अगली रात बिहार में सपा के बिहार इंचार्ज किरण्मय नंदा से मुलाकात भी की। साथ ही सपा को पाँच सीटें देने की घोषणा भी की। इन पाँच में अपने कोटे की 100 में से दो और एनसीपी को आबंटित तीन सीटें देने की घोषणा 29 अगस्त को की।