सिनेमा का साप्ताहिक अखबार 'स्क्रीन' भी बंद हो गया. एक ज़माने में मुम्बई कारखाने से निकलने वाली ज्यादातर फिल्मों की सूचना तब तक खबर नहीं बनती थी, जबतक वह स्क्रीन में न छप जाए. स्क्रीन में कई-कई पेज के विज्ञापन देकर निर्माता अपने आगमन की घोषणा करते थे. बहरहाल समय के साथ चीजों का रूपांतरण होता है. अलबत्ता यह जानकारी 3 मई के नवभारत टाइम्स में विष्णु खरे के लेख से मिली. खरे जी का लिखा पढ़ने का अपना निराला आनन्द है. यह लेख नवभारत टाइम्स से निकाल कर यहाँ पेश है. लेख के अंत में वह लिंक भी है जो आपको अखबार की साइट पर पहुँचा देगा.
एक छपे रिसाले के लिए विलंबित मर्सिया
विष्णु खरे
आज से साठ वर्ष पहले अपने पैदाइशी कस्बे छिन्दवाड़ा में गोलगंज से छोटीबाज़ार जाने वाले रास्ते के नाले की बगल में एक नए खुले पान-बीड़ी के ठेले पर उसे झूलते देख कर मैं हर्ष विस्मित रह गया था. घर पर (एक दिन पुराना डाक एडीशन) ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ’इलस्ट्रेटेड वीकली’ और ‘धर्मयुग’ नियमित आते थे, हिंदी प्रचारिणी लाइब्रेरी में और कई हिंदी-अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाएँ देखने-पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त था, लेकिन वह अंग्रेज़ी अखबार-सा दीखनेवाला जो एक रस्सी से लटका फड़फड़ा रहा था, एक युगांतरकारी, नई चीज़ थी. क्या किसी दैनिक से लगनेवाले इंग्लिश साप्ताहिक का नाम ‘’स्क्रीन’’ हो सकता था ? और जिसके हर एक पन्ने पर सिवा फिल्मों, सिनेमा, उनके इश्तहार ,एक्टर, एक्ट्रेस, उनके एक-से-एक शूटिंग या ग़ैर-शूटिंग फोटो वगैरह के और कुछ न हो ? खुद जिसका नाम सेल्युलॉइड की रील के टुकड़ों की डिज़ाइन में छपा हुआ हो ? मुझे पूरा यकीन है कि उसे सबसे पहले हासिल करने के लिए जिस रफ़्तार से दौड़ कर मैं घर से चार आने लाया था उसे तब रोजर बैनिस्टर या आज ओसैन बोल्ट भी छू नहीं पाए होंगे.