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Sunday, July 10, 2022

सायोनारा, भारत के दोस्त शिंजो आबे!


शिंजो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। जापान के प्रति जो सम्मान आम भारतीय के मन में है,
उसे केवल महसूस किया जा सकता है। यह सम्मान यों ही नहीं है। हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। पर शिंजो आबे का सम्मान हम उनके राष्ट्रवादी विचारों के कारण भी करते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने जिस तरह से अपना रूपांतरण किया, वह अलग कहानी है, पर इस समय आक्रामक चीन के जवाब में खड़ा है। जापान में इस समय दो तरह की अवधारणाएं चल रही हैं। एक है कि चीन से दोस्ती बनाकर रखो और दूसरी है कि चीन का मुकाबला करने के लिए तैयार रहो। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी दबाव में ऐसी सांविधानिक-व्यवस्थाएं कर दी गई हैं कि जापान के हाथ बँध गए। शिंजो आबे इन्हें खोलना चाहते थे।

चीन से मुकाबिल

हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अपना सिक्का बुलंद कर रखा है। पिछले डेढ़ दशक में शिंजो आबे ने अपने देश का नेतृत्व जिस तरीके से किया और भारत के साथ जैसे रिश्ते बनाए, उसपर ध्यान देने की जरूरत है। शिंजो आबे का राष्ट्रवाद भारत दिलो-दिमाग पर छाया है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र और क्वॉड की परिकल्पना उनकी थी। अगस्त, 2007 में उन्होंने भारत की संसद में आकर इस अवधारणा पर रोशनी डाली थी, जो अब मूर्त रूप ले रही है। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

क्यों हुई हत्या?

कैमरे जैसी बंदूक बनाकर उनकी हत्या की गई। क्यों की गई? अभी अटकलें ही हैं, पर किसी बड़ी साजिश को खारिज नहीं किया जा सकता है। शिंजो आबे हालांकि प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे, पर राजनीतिक दृष्टि से वे महत्वपूर्ण थे और एक बड़े सैद्धांतिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। बताते हैं कि उनके हत्यारे ने कहा है कि शिंजो जापान के दक्षिणपंथी संगठन निप्पॉन कैगी (Nippon Kaigi) के समर्थक थे, और मेरी माँ ने अपना सारा पैसा उस संस्था को दान में दे दिया, जिससे वह दिवालिया हो गई। इसलिए मैंने उनकी हत्या की। 1997 में बने निप्पॉन कैगी का उद्देश्य जापान के वर्तमान संविधान और खासतौर पर उसके अनुच्छेद 9 को बदलना है, जिसमें जापान में स्थायी सेना के गठन पर रोक है। निप्पॉन कैगी मानता है कि जापान को उस ताकत के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, जो पूर्वी एशिया को पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व से मुक्त कर सके। संगठन मानता है कि 1946-1948 के दौरान जापान पर चला युद्ध अपराध का मुकदमा अवैध था। जापानी समाज लम्बे अरसे से युद्ध और शांति, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान जैसे सवालों से घिरा हुआ है। जापान के इतिहास में नब्बे साल बाद इस किस्म की हत्या हुई है। ऐसा नहीं है कि वहाँ हत्याएं नहीं हुई हैं। जापान का इतिहास राजनीतिक हत्याओं से भरा है। ज्यादातर हत्याओं के पीछे राष्ट्रवाद से जुड़े वैचारिक-द्वंद थे। 15 मई 1932 को प्रधानमंत्री इनुकाई सुयोसी की 11 नौसैनिकों द्वारा घेरकर की गई हत्या के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय टकराव था।

विह्वल देश

आबे की हत्या ने जापान के समाज और राजनीति को झकझोर कर रख दिया है। इसे ‘आतंकवाद’ की संज्ञा दी गई है। हत्यारे का मंतव्य अब भी स्पष्ट नहीं है, पर इतना जरूर लगता है कि वह आबे की रक्षा-नीतियों का आलोचक है। हत्या की खबर आने के बाद चीन के कुछ इलाकों से खुशियाँ मनाए जाने की खबरें मिली हैं। इन खबरों का कोई मतलब नहीं है, पर तफतीश इस बात की जरूर होगी कि इस हत्या के पीछे कहीं चीनी हाथ तो नहीं। जरूरी नहीं कि यह हाथ सीधे-सीधे हो। सम्भावना यह भी है कि जापानी समाज के भीतर चल रहे उद्वेलन का लाभ किसी बाहरी शक्ति ने उठाया हो।

राष्ट्रवाद की विरासत

शिंजो आबे के पिता जापान के पूर्व विदेश मंत्री शिनतारो आबे थे। शिंजो के नाना नोबुसुके किशी जापान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे 1957-1960 को दौर में जापान के प्रधानमंत्री थे। वह दौर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद जापान का सबसे महत्वपूर्ण दौर था। उसी दौरान उन्होंने अमेरिका के साथ सुरक्षा-संधि की थी, जिसका देश में काफी विरोध हुआ था। उनकी हत्या का प्रयास भी हुआ था। उनके छह चाकू मारे गए। तब वे बच गए, पर अब शिंजो आबे नहीं बचे। पर इतना स्पष्ट है कि शिंजो को राष्ट्रवाद पारिवारिक विरासत में मिला था।  

Saturday, July 9, 2022

भारत-जापान मैत्री को नई ऊँचाई दी शिंज़ो आबे ने


शिंज़ो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। भारतीय जनता के मन में जो सम्मान जापान के प्रति है, वह किसी दूसरे देश के लिए नहीं है। हाल के वर्षों में शिंज़ो आबे के कारण यह सम्मान और ज्यादा बढ़ा है। ऐसे दोस्त को खोकर भारत दुखी है। इस हत्या के राजनीतिक परिणाम भी होंगे। खासतौर से सुदूर पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रहे घटनाक्रम पर इसका असर जरूर होगा। अभी यह कहना मुश्किल है हत्यारे का उद्देश्य क्या रहा है, पर इसके पीछे किसी बड़ी और सम्भव है कि कोई अंतरराष्ट्रीय-साजिश हो। इन सम्भावनाओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रीय-शोक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके सम्मान में एक दिन के राष्ट्रीय-शोक की घोषणा की है। आज शनिवार 9 जुलाई को देशभर में शोक मनाया जा रहा है। मोदी ने उनकी याद में एक विशेष लेख भी लिखा है माय फ्रेंड आबे सान या मेरे मित्र आबे सान, जो देश के कई राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित हुआ है।  प्रधानमंत्री ने अपने शोक-संदेश में लिखा है, मैं अपने सबसे प्यारे दोस्तों में से एक शिंज़ो आबे के दुखद निधन से स्तब्ध और दुखी हूं। वह एक महान वैश्विक राजनेता, एक शानदार नेता और एक उल्लेखनीय प्रशासक थे। उन्होंने जापान और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

नरेंद्र मोदी की तरह शिंज़ो आबे भी राष्ट्रवादी नेता थे, जो अपने देश के सम्मान और गरिमा को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और धोखा देकर उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

भारत-जापान मैत्री

जापानियों को हम भारतीय उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। उसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। दूसरे विश्व युद्ध में बुरी तरह ध्वस्त हो चुके देश ने जिस तरह से डेढ़ दशक के भीतर फिर से पैरों पर खड़ा होकर दिखाया, उसे देखते हुए भी हमारा यह सम्मान है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी हमारा मन जापान से मिलता है। जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव है। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं।

Thursday, March 25, 2021

क्या ‘क्वाड’ बड़े क्षेत्रीय-सहयोग संगठन के रूप में विकसित होगा?


अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के शीर्ष-नेताओं की 12 मार्च को हुई वर्चुअल बैठक को बदलते वैश्विक परिदृश्य में महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा गया है। क्वाड नाम से चर्चित इस समूह को चीन-विरोधी धुरी के रूप में देखा जा रहा है। खासतौर से भारत की विदेश-नीति को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या अब हमारी विदेश-नीति स्वतंत्र नहीं रह गई है? क्या हम अमेरिकी खेमे में शामिल हो गए हैं? क्या हम अपने दीर्घकालीन मित्र रूस का साथ छोड़ने को तैयार हैं? क्या पश्चिमी देशों की राजनीति नेटो से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर केंद्रित होने वाली है? ऐसा क्यों हो रहा है? इस सिलसिले में सबसे बड़ा सवाल चीन को लेकर है। क्या वह अमेरिका और पश्चिम को परास्त करके दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के रूप में स्थापित होने जा रहा है?

चीन ने इस बैठक को लेकर अपनी आशंकाएं व्यक्त की हैं। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बैठक से ठीक पहले कहा कि देशों के बीच विचार-विमर्श और सहयोग की प्रक्रिया चलती है, लेकिन इसका मकसद आपसी विश्वास और समझदारी बढ़ाने का होना चाहिए, तीसरे पक्ष को निशाना बनाने या उसके हितों को नुकसान पहुंचाने का नहीं। क्वाड की शिखर बैठक में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि उसे किसी खास देश के खिलाफ न माना जाए।

इतना ही नहीं, इसे अब सुरक्षा-व्यवस्था की जगह आपसी सहयोग का मंच बनाने की कोशिशें भी हो रही हैं। अब वह केवल सुरक्षा-समूह जैसा नहीं है, बल्कि उसके दायरे में आर्थिक और सामाजिक सहयोग से जुड़े कार्यक्रम भी शामिल हो गए हैं। क्वाड देशों के नेताओं ने शिखर-वार्ता में जिन विषयों पर विचार किया, उनमें वैक्सीन की पहल और अन्य संयुक्त कार्य समूहों के साथ महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी और जलवायु परिवर्तन पर सहयोग करना शामिल था।

Sunday, August 31, 2014

भारत-जापान रिश्तों का सूर्योदय

जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। भारत में जापान को लेकर और जापान में भारत के प्रति श्रद्धा का भाव है। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव भी है। पर हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में अपनी धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अपना सिक्का बुलंद कर रखा है।

अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस समेत तमाम देशों के साथ हमारे रिश्ते रहे हैं, पर दुनिया में एक देश ऐसा है, जिसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। हमारे वैदेशिक सम्बन्धों में अनेक ऐसे मौके आए जब जापान ने हमारा विरोध किया, खासतौर से 1998 में एटमी धमाकों के बाद फिर भी हमारे यहाँ जापान की छवि कभी खराब नहीं हुई। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं। जापान को हम सोनी, टयोटा, होंडा और सुज़ुकी के कारण भी जानते हैं। दिल्ली की शान मेट्रो के लिए हमें जापान ने आर्थिक मदद दी थी। सुभाष बोस और रासबिहारी बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानी भारत-जापान के रिश्तों की कड़ी रहे हैं। जापानी लोग जस्टिस राधा विनोद पाल के मुरीद हैं, जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सुदूर पूर्व के लिए बने मिलिटरी ट्रिब्यूनल के सदस्य जज के रूप में दूसरे जजों के खिलाफ जाकर अकेले जापान के पक्ष में फैसला सुनाया था।

Tuesday, February 15, 2011

सं रा सुरक्षा परिषद में बदलाव


हाल में ग्रुप-4 के देशों की न्यूयॉर्क में हुई बैठक के बाद जारी वक्तव्य में उम्मीद ज़ाहिर की गई है कि इस साल जनरल असेम्बली के सत्र में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम उठा लिया जाएगा। जी-4 देशों में भारत, जर्मनी, जापान और ब्राजील आते हैं। ये चार देश सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावेदार हैं।

Friday, October 29, 2010

भारत-चीन और जापान

-प्रधानमंत्री की जापान-मलेशिया और वियतनाम यात्रा के संदर्भों में आर्थिक सहयोग और विकास के मुकाबले ज्यादा ध्यान सामरिक और भू-राजनैतिक प्रश्नों को दिया जा रहा है। हालांकि मनमोहन सिंह ने स्पष्ट किया है कि हम चीन के साथ आर्थिक सहयोग को ज्यदा महत्व देंगे विवादों को कम, पर सब जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में स्टेटेड और रियल पॉलिसी एक नहीं होती।

भारत का आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमंट है। और अब हम अलग-अलग देशों के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते भी करेंगे। पर यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आर्थिक शक्ति की रक्षा के लिए सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है।  हमें किसी देश के खिलाफ यह शक्ति नहीं चाहिए। हमारे जीवन में दूसरे शत्रु भी हैं। सागर मार्गों पर डाकू विचरण करते हैं। आतंकवादी भी हैं। इसके अलावा कई तरह के आर्थिक माफिया और अपराधी हैं।

भारत अब अपनी नौसेना को ब्लू वॉटर नेवी के रूप में परिवर्तित कर रहा है। यानी दूसरे महासागरों तक प्रहार करने में समर्थ नौसेना। हमारी परमाणु शक्ति-चलित पनडुब्बी का परीक्षण चल रहा है। एक पनडुब्बी रूस से आ रही है। हमारी नौसेना को परमाणु शक्ति चलित पनडुब्बियों के संचालन का करीब डेढ़ दशक  का अनुभव है। इस इलाके में विमानवाहक पोत हमारे पास ही हैं। चीन भी इस मामले में हम से पीछे है। प चीन ने अपनी पनडुब्बियों के सहारे हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति बना ली है।

दुर्भाग्य है  कि हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर  दक्षिण एशिया में उससे कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते। कश्मीर एक सबसे बड़ी राजनैतिक वजह है। इधर चीन ने दक्षिण एशिया के बारे में अपनी दृष्टि में बदलाव किया है। स्टैपल्ड वीज़ा समस्या नहीं, समस्या का लक्षण मात्र है। चीन से जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनसे लगता है कि वहाँ भारत को लेकर उत्तेजना है।

चीन आज हमसे कहीं बड़ी ताकत है, पर अभी वहाँ हमरी जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है। हमारी अधूरी व्यवस्था में जब इतनी बाधाएं हैं तब आप सोचें पूर्ण लोकतंत्र होने तक क्या होगा। पर लोकतांत्रिक-विकास  इसलिए ज़रूरी है कि राजशाही और तानाशाही अब चलने वाली नहीं। तानाशाही में तेज़ आर्थक विकास सम्भव है, पर जनता की भागीदारी के बगैर वह विकास निरर्थक है। चीन को अभी बड़े परीक्षण से गुज़रना है। हम उस परीक्षण के दूसरे या तीसरे चरण से गुज़र रहे हैं।

चीनी उत्तेजना को पीपुल्स डेली की सम्पादक  ली होंगमई  की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है।  अपने ब्लॉग में उन्होंने जो लिखा है, उससे चीनी दृष्टि का एक पहलू तो नज़र आता है। इस लेख को आप यहाँ पढ़ें और चाहें तो उसके लिंक पर जाकर भविष्य में भी पढ़ें।

 हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें


India's "Look East Policy" means "Look to encircle China" ?
16:30, October 27, 2010

By Li Hongmei

Indian Prime Minister Manmohan Singh's three-nation visit to Japan, Malaysia and Vietnam has been a media hype at home, being even describe as a missionary trip to seek new strategic allies to deal with China, and to showcase India's resolve to persist on its "Look East Policy" on its way to pursue the geopolitical and economic goals and achieve a "Big Power" status in the region, if not the leading power.

Some of the Indian media even add more color to Singh's Japan visit, besides the nuke deal and trade agreements, desperately crying it is high time for India that it strengthened the embankment of Tokyo to prevent "China's expansion."

As for Japan, whose relations with China have frosted over amid the diplomatic détente over the East China Sea, India, with a large consumer base, exudes a magnetic appeal to the presently sluggish economic power. Moreover, India's rare earth, although much less than China's deposits, is enough at the moment to present a peculiar fascination to Japan, who has all these days complaining about Chin's restriction on the rare earth exports and is anxious to get rid of the passive status quo caused by the undue reliance on China's supplies.

On top of that, India is viewed by Japan as an ideal partner to establish the strategic cooperation in security, based on the assumption that both of them are being threatened by China's military assertiveness in East China Sea as well as in the India Ocean. On this basis, Japan and India have both placed high expectations upon each other in combining strengths to counterbalance China.

But, what is noteworthy is that in Japan too, there are also sections that are wary of Tokyo aligning too closely with India. Robyn Lim, professor of international politics at Nanzan University in Nagoya, for instance, has been arguing that "the risks of alignment with India outweigh the advantages".

Some Japanese military observers somewhat echoed the opinion that it would be quite risky for Japan if it steps unusually close to India. A newly set alliance among Japan, India and Vietnam "might seem a logical response to China's ambitions in the South China Sea," as they opined.

The logic goes like this----India cannot protect Vietnam against China but its presence in Vietnam (if Hanoi were to give Delhi access to a naval base) would raise tensions with China and Japan would get drawn into the conflict. "Why would Japan wish to allow India to drag it into Vietnam's mostly self-inflicted problems with Beijing?" they argued.

Back to India, although its hawks are so intoxicated at the idea that India finally regains the momentum to counteract China's rising regional clout, with the " Look East Policy" as its guiding principle, encouraged by its leaders' sound relationship with ASEAN nations, and by taking advantage of the face-off between China and Japan, India still cannot relax its spasm of worries about China, nor can it brush aside the fear that China might nip its ambitions in the bud.

History is a great teacher. India's "Look East policy" was born out of failure---- the failure of India's Cold War strategy of "playing both ends against the middle", today, India is harping on the same string, but should wisely skip the out-of-tune piece. No matter what a strong temptation it is at the idea of benefiting from China and Japan playing off each other or killing the rival by another's hand.

The savvy Indian leadership will never rashly board the ship of Japan without giving a glance at China's expression. After all, it is not Japan, but China that acts as India's largest trade partner with the overall volume in 2010 to exceed US$ 60 billion.

By People's Daily Online
The articles in this column represent the author's views only. They do not represent opinions of People's Daily or People's Daily Online.


http://english.peopledaily.com.cn/90002/96417/7179404.html

Wednesday, August 25, 2010

भारत-जापान रिश्ते

भारत और जापान के बीच एटमी सहयोग की बातचीत लम्बे अर्से से चली आ रही है, पर हाल के दिनों में इसमें तेजी आई है। इसके पीछे जापान की अपनी आर्थिक दुश्वारियाँ ज्यादा हैं। बहरहाल तमाम अंदेशों के बावज़ूद ऐसा लगता है कि इस साल के अंत में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जापान जाएंगे तब भारत-जापान न्यूक्लियर संधि हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के बनने और बिगड़ने की गति आसानी से नज़र नहीं आता।

भारत-जापान रिश्तों के भविष्य में और प्रगाढ़ होने की अच्छी खासी सम्भावनाएं हैं। इसके पीछे भौगोलिक यथार्थ, सामरिक और आर्थिक ज़रूरतें हैं। यों तो आज कोई किसी या शत्रु या मित्र नहीं है, पर कुछ मित्र अपेक्षाकृत ज्यादा सहज होते हैं। जापान हमारा अपेक्षाकृत सहज मित्र है।


हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

विश्लेषण आईडीएसए की टिप्पणी