एक होता है ओपीनियन पोल और
दूसरा एक्ज़िट पोल। तीसरा रूप और है पोस्ट पोल सर्वे का, जिसे लेकर हम ज़्यादा विचार
नहीं करते। क्योंकि उसका असर चुनाव परिणाम पर नहीं होता। यहीं पर इन सर्वेक्षणों
की ज़रूरत और उनके दुरुपयोग की बात पर रोशनी पड़ती है। इनका काम जनता की राय को
सामने लाना है। पर हमारी राजनीतिक ताकतें इनका इस्तेमाल प्रचार तक सीमित मानती
हैं। इनका दुरुपयोग भी होता है। अक्सर वे गलत भी साबित होते हैं। हाल में कुछ
स्टिंग ऑपरेशनों से पता लगा कि पैसा लेकर सर्वे परिणाम बदले भी जा सकते हैं।
जनता की राय को सामने लाने
वाली मशीनरी की साख का मिट्टी में मिलते जाना खतरनाक है। इन सर्वेक्षणों की साख के
साथ मीडिया की साख जुड़ी है। पर कुछ लोग इन सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की माँग
करते हैं। वह भी इस मर्ज की दवा नहीं है। हमने लोकमत के महत्व को समझा नहीं है। लोकतंत्र
में बात केवल वोटर की राय तक सीमित नहीं होती। यह मसला पूरी व्यवस्था में नागरिक
की भागीदारी से जुड़ा है। जनता के सवाल कौन से हैं, वह क्या चाहती है, अपने प्रतिनिधियों
से क्या अपेक्षा रखती है जैसी बातें महत्वपूर्ण हैं। ये बातें केवल चुनाव तक सीमित
नहीं हैं।
हमने ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं
लोकतांत्रिक जीवन में तमाम
सवालों पर लगातार लोकमत को उभारने की ज़रूरत होती है। यह जागृत-लोकतंत्र की
बुनियादी शर्त है। अमेरिका का प्यू रिसर्च सेंटर इस काम को बखूबी करता है और उसकी
साख है। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी मॉडल पर ढला है। ओपीनियन पोल की अवधारणा भी हमने वहीं
से ली, पर उसे अपने यहाँ लागू करते वक्त ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं। हमारे यहाँ
सारा ध्यान सीटों की संख्या बताने तक सीमित है। वोटर को भेड़-बकरी से ज्यादा नहीं
मानते। इसलिए पहली जरूरत है कि ओपीनियन पोलों को परिष्कृत तरीके से तैयार किया जाए
और उनकी साख को सूरज जैसी ऊँचाई तक पहुँचाया जाए।
जब मुँह के बल गिरा अनुमान
भारत में सबसे पहले साठ के
दशक में सेंटर फॉर द स्टडीज़ ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ ने सेफोलॉजी या सर्वेक्षण
विज्ञान का अध्ययन शुरू किया। नब्बे के दशक में कुछ पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने चुनाव सर्वेक्षणों को आगे बढ़ाया। कुछ सर्वेक्षण सही भी साबित हुए हैं। पर
पक्के तौर पर नहीं। मसलन सन 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण काफी हद तक
सही थे, तो 2004 और 2009 के काफी हद तक गलत। सन 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा
चुनावों में मायावती की बसपा की भारी जीत और 2012 में मुलायम सिंह की सपा को मिली
विश्वसनीय सफलता का अनुमान किसी को नहीं था। इसी तरह पिछले साल हुए उत्तर भारत की
चार विधानसभाओं के परिणाम सर्वेक्षणों के अनुमानों से हटकर थे। मसलन दिल्ली में आम
आदमी पार्टी की सफलता का अनुमान केवल एक सर्वेक्षण में लगाया जा सका। राजस्थान और
मध्य प्रदेश में कांग्रेस का इस बुरी तरह सूपड़ा साफ होने की भविष्यवाणी किसी ने
नही की थी।
सामाजिक संरचना भी जिम्मेदार
सर्वेक्षण चुनाव की दिशा
बताते हैं, सही संख्या नहीं बता पाते। इसका एक बड़ा कारण हमारी सामाजिक संरचना है।
पश्चिम में समाज की इतनी सतहें नहीं होतीं, जितनी हमारे समाज में हैं। आय, धर्म,
लिंग, उम्र और इलाके के अलावा जातीय संरचना चुनाव परिणाम को प्रभावित करती है। हमारे
ज्यादातर सर्वेक्षण बहुत छोटे सैम्पल के सहारे होते हैं। पिछले साल दिल्ली विधान
सभा की 70 सीटों के लिए एचटी-सीफोर सर्वेक्षण का दावा था कि 14,689 वोटरों को
सर्वेक्षण में शामिल किया गया। यानी औसतन हर क्षेत्र में तक़रीबन 200 वोटर। जिस
विधानसभा क्षेत्र में वोटरों की संख्या डेढ़ से दो लाख है (क्षमा करें मेरी गलती
से अखबार में यह संख्या करोड़ छपी है), उनमें से 200 से राय लेकर किस प्रकार सही
निष्कर्ष निकाला जा सकता है? दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने अपना सर्वे भी कराया। उसका दावा था कि उसने 35,000 वोटरों का सर्वे
कराया। यानी औसतन 500 वोटर। सीवोटर ने उत्तर भारत की चार विधान सभाओं की 590 सीटों
के लिए 39,000 वोटरों के सर्वे का दावा किया है। यानी हर सीट पर 60 से 70 वोटर।
अटकलबाज़ी को सर्वेक्षण कहना गलत
आप कल्पना करें
कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के
सुदूर और विविध जन-संस्कृतियों वाले इलाक़ों से कोई राय किस तरह निकल कर आई होगी। ऊपर
बताए सैम्पल भी दावे हैं। जरूरी नहीं कि वे सही हों। इस बात की जाँच कौन करता है
कि कितना बड़ा सैम्पल लिया गया। वे अपनी अधयन पद्धति भी नहीं बताते। केवल सैम्पल
से ही काम पूरा नहीं होता सर्वेक्षकों की समझदारी और वोटर से पूछे गए सवाल भी महत्वपूर्ण होते हैं। जनमत संग्रह का
बिजनेस मॉडल इतना अच्छा नहीं है कि अच्छे प्रशिक्षित सर्वेक्षक यह काम करें। पूरा
डेटा सही भी हो तब भी उससे सीटों की संख्या किस प्रकार हासिल की जाती है, इसे नहीं
बताते। जल्दबाज़ी में फैसले किए जाते हैं। यह शिकायत आम है कि डेटा में जमकर
हेर-फेर होती है। बेशक कुछ लोगों से बात करके चुनाव की दशा-दिशा का अनुमान लगाया
जा सकता है। वह अनुमान सही भी हो सकता है, पर अटकलबाज़ी को वैज्ञानिक सर्वेक्षण
कहना गलत है। चैनलों के अधकचरे एंकर ब्रह्मा की तरह भविष्यवाणी करते वक्त कॉमेडियन
जैसे लगते हैं। सर्वेक्षण जरूरी हैं, पर उन्हें ‘कॉमेडी शो’ बनने से रोकना होगा।