मैने 21 मई की अपनी पोस्ट में एक सवाल पूछा था कि कल हमें चीनी भाषा में काम मिलेगा तो हम चीनी सीखंगे? जवाब है ज़रूर सीखेंगे। सीखना भी चाहिए। और जिस अंग्रेज़ी के हम मुरीद हैं, उसका महत्व भी हमारा पेट भरने से है। हमारे काम की न हो तो हम उसे भी नहीं पूछेंगे। अलबत्ता कुछ रिश्ते पैसे के नहीं स्वाभिमान के होते हैं। माँ गरीब हो तब भी माँ रहती है। हमें अपनी भाषा के बारे में भी कुछ करना चाहिए।
बहरहाल 21 मई की पोस्ट मैने गूगल के एक विज्ञापन के हवाले से शुरू की है। इस पोस्ट में भी गूगल विज्ञापन का हवाला है। इसमें चीनी लोग हिन्दी पढ़ते नज़र आते हैं। इकोनॉमिस्ट का यह प्रोमो रोचक है। हिन्दी काम देगी तो हिन्दी पढ़ेंगे। सच यह है कि पेट पालना है तो कुछ न कुछ सीखना होगा। बदलाव को समझिए। पर इस विज्ञापन को कोई आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। न तो हिन्दी इतनी महत्वपूर्ण हुई है और न चीनी लोग हमारे यहाँ रोज़गार के लिए इतने उतावले हैं। यह तो इकोनॉमिस्ट मैग्ज़ीन को भारत में बेचने के लिए बना प्रोमो है। अलबत्ता इस प्रोमो पर बहस पढ़ना चाहते हैं तो यू ट्यूब पर जाएं। बड़ा मज़ा आएगा।
बहरहाल 21 मई की पोस्ट मैने गूगल के एक विज्ञापन के हवाले से शुरू की है। इस पोस्ट में भी गूगल विज्ञापन का हवाला है। इसमें चीनी लोग हिन्दी पढ़ते नज़र आते हैं। इकोनॉमिस्ट का यह प्रोमो रोचक है। हिन्दी काम देगी तो हिन्दी पढ़ेंगे। सच यह है कि पेट पालना है तो कुछ न कुछ सीखना होगा। बदलाव को समझिए। पर इस विज्ञापन को कोई आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। न तो हिन्दी इतनी महत्वपूर्ण हुई है और न चीनी लोग हमारे यहाँ रोज़गार के लिए इतने उतावले हैं। यह तो इकोनॉमिस्ट मैग्ज़ीन को भारत में बेचने के लिए बना प्रोमो है। अलबत्ता इस प्रोमो पर बहस पढ़ना चाहते हैं तो यू ट्यूब पर जाएं। बड़ा मज़ा आएगा।