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Friday, June 24, 2022

तलफ़्फ़ुज़ से जुड़े सवाल


प्रतिष्ठित पत्रकार प्रभात डबराल ने उर्दू (यानी अरबी या फारसी) शब्दों के तलफ़्फ़ुज़ यानी उच्चारण और हिन्दी में उनकी वर्तनी को लेकर फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है, जिसे पहले पढ़ें:

बहुत पुरानी बात है.. सन अस्सी के इर्द-गिर्द की. दिल्ली के बड़े अख़बार में रिपोर्टर था लेकिन तब के एकमात्र टीवी चैनल दूरदर्शन में  हर हफ़्ते एकाध प्रोग्राम कर लेता था. एक विदेशी टीवी न्यूज़ चैनल के दिल्ली ब्यूरो में तीन साल काम कर चुका था इसलिए टीवी की बारीकियों की थोड़ा बहुत समझ रखता था लेकिन हिंदी में उर्दू से आए शब्दों के उच्चारण में हाथ बहुत तंग था.

कोटद्वार से स्कूलिंग और मसूरी से डिग्री करके आया था इसलिए नुक़्ता क्या होता है अपन को पता ही नहीं था. सच कहूँ तो अभी भी नुक़्ता कहाँ लगाना है कहाँ नहीं ये सोच कर पसीना आ जाता है. ख़ासकर ज पर लगने वाला नुक़्ता. हालत ये कि किसी ने  सिखाया कि भाई ये बजार नहीं बाज़ार होता है तो हम बिजली को भी बिज़ली कहने लगे..जरा को ज़रा और ज़र्रा को जर्रा कहने वाले  अभी भी बहुत मिल जाते हैं…

नुक़्ते के इस आतंक के बीच आज आकाशवाणी में काम करने वाले एक (सोशल मीडिया में मिले)मित्र प्रतुल जोशी की इस पोस्ट पर नज़र पड़ी तो लगा शेयर करनी चाहिए…:

ज़बान के रंग, नाचीज़ लखनवी के संग

आप अगर सही तरह से अल्फ़ाज़ को पेश नहीं करते तो यह प्रदर्शित करता है कि आप का भाषा के प्रति ज्ञान अधूरा है। आज मैं हिंदुस्तानी ज़बान के कुछ रोचक तथ्यों की तरफ़ अपने मित्रों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा।

1. सही शब्द है यानी, प्रायः लिखा जाता है यानि

2. शब्द है रिवाज। प्रायः लिखा/ बोला जाता है रिवाज़। इस को याद रखने का आसान तरीक़ा है कि शब्द "रियाज़" याद रखा जाए। जहां रिवाज में नुक़्ता नहीं लगता, रियाज़ में लगता है।

.3. उर्दू में दो शब्द नुक़्ता लगाने से बिल्कुल दो भिन्न अर्थों को संप्रेषित करते हैं। यह हैं एजाज़ और एज़ाज़। जहां ऐजाज़ का अर्थ चमत्कार होता है, वहीं ऐज़ाज़ का अर्थ है "सम्मान"।

Wednesday, December 27, 2017

आइए आज गीत ग़ालिब का गाएं

27 दिसम्बर 1797 को मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब” का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे। उन्हें उर्दू के सार्वकालिक महान शायरों में गिना जाता है। ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" का खिताब भी मिला। आगरादिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। 15 फरवरी 1869 को उनका निधन हुआ। सन 1969 में भारत सरकार ने महात्मा गांधी की जन्मशती मनाई। संयोग से उसी साल ग़ालिब की पुण्यतिथि की शताब्दि थी। भारत सरकार ने ग़ालिब की शताब्दी भी मनाई। कहना मुश्किल है कि स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी से लेकर हिन्दी और उर्दू का सम्मान कितना बढ़ा, पर उर्दू के शायर साहिर लुधयानवी के मन में उर्दू को लेकर ख़लिश रही। इस मौके पर मुम्बई में हुए एक समारोह में साहिर ने उर्दू को लेकर जो नज़्म पढ़ी उसे दुबारा पढ़ाने को मन करता है। शायद आप में से बहुत से लोगों ने इसे पढ़ा हो।

इक्कीस बरस गुज़रे, आज़ादी-ए-कामिल को
तब जाके कहीं हमको, ग़ालिब का ख़याल आया
तुर्बत है कहाँ उसकीमसकन था कहाँ उसका
अब अपने सुख़नपरवर ज़हनों में सवाल आया
आज़ादी-ए-कामिल: संपूर्ण स्वतंत्रता         तुर्बत: क़ब्रमज़ार
मसकन: घर             सुख़नपरवर ज़हनों: शायरी के संरक्षकख़यालों

सौ साल से जो तुर्बत, चादर को तरसती थी
अब उसपे अक़ीदत के, फूलों की नुमाइश है
उर्दू के तअल्लुक़ से, कुछ भेद नहीं खुलता
यह जश्न यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है
अक़ीदत: श्रद्धानिष्ठा         तअल्लुक़: प्रेमसेवापक्षपात

जिन शहरों में गूँजी थी, ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू, बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी
आज़ादी-ए-कामिल का, ऐलान हुआ जिस दिन
मअतूब ज़ुबाँ ठहरी, ग़द्दार ज़ुबाँ ठहरी
नवा: आवाज़                    बेनाम-ओ-निशाँ: गुमनाम
मअतूब: दुखदाईघृणा योग्यअभागी

जिस अहद-ए-सियासत ने, यह ज़िंदा ज़ुबाँ कुचली
उस अहद-ए-सियासत को, मरहूमों का ग़म क्यों है
ग़ालिब जिसे कहते हैंउर्दू ही का शायर था
उर्दू पे सितम ढाकर, ग़ालिब पे करम क्यों है
अहद-ए-सियासत: सरकार के काल          मरहूमों: मृतकस्वर्गीय
ग़ालिब: श्रेष्ठ व्यक्तिमिर्ज़ा ग़ालिब            करम: कृपाउदारतादयादान

यह जश्न यह हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं
कुछ लोगों की कोशिश हैकुछ लोग बहल जाएँ
जो वादा-ए-फ़र्दा पर, अब टल नहीं सकते हैं
मुमकिन है कि कुछ अरसा, इस जश्न पे टल जाएँ
वादा-ए-फ़र्दा: आनेवाले कल के वादे

यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाक़त है
हम लोग हक़ीक़त के, एहसाह से आरी हैं
गांधी हो कि ग़ालिब होइन्साफ़ की नज़रों में
हम दोनों के क़ातिल हैंदोनों के पुजारी हैं
सदाक़त: वास्तविकतासच्चाई        आरी: रिक्तमहरूम

Thursday, December 27, 2012

आइए आज गीत ग़ालिब का गाएं


27 दिसम्बर 1797 को मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ ग़ालिब” का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर थे। उन्हें उर्दू के सार्वकालिक महान शायरों में गिना जाता है। ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा" का खिताब भी मिला। आगरादिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। 15 फरवरी 1869। सन 1969 को भारत सरकार ने महात्मा गांधी की जन्मशती मनाई। संयोग से वही साल ग़ालिब के निधन का साल है। इस मौके पर भारत सरकार ने ग़ालिब की पुण्य तिथि की शताब्दी मनाई। कहना मुश्किल है कि स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी से लेकर हिन्दी और उर्दू का सम्मान कितना बढ़ा, पर उर्दू के शायर साहिर लुधयानवी के मन में उर्दू को लेकर ख़लिश रही। इस मौके पर मुम्बई में हुए एक समारोह में साहिर ने उर्दू को लेकर जो नज़्म पढ़ी उसे दुबारा पढ़ाने को मन करता है। शायद आप में से बहुत से लोगों ने इसे पढ़ा हो।

इक्कीस बरस गुज़रे, आज़ादी-ए-कामिल को
तब जाके कहीं हमको, ग़ालिब का ख़याल आया
तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका
अब अपने सुख़नपरवर ज़हनों में सवाल आया
आज़ादी-ए-कामिल: संपूर्ण स्वतंत्रता         तुर्बत: क़ब्र, मज़ार
मसकन: घर             सुख़नपरवर ज़हनों: शायरी के संरक्षक, ख़यालों

सौ साल से जो तुर्बत, चादर को तरसती थी
अब उसपे अक़ीदत के, फूलों की नुमाइश है
उर्दू के तअल्लुक़ से, कुछ भेद नहीं खुलता
यह जश्न यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है
अक़ीदत: श्रद्धा, निष्ठा         तअल्लुक़: प्रेम, सेवा, पक्षपात

जिन शहरों में गूँजी थी, ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू, बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी
आज़ादी-ए-कामिल का, ऐलान हुआ जिस दिन
मअतूब ज़ुबाँ ठहरी, ग़द्दार ज़ुबाँ ठहरी
नवा: आवाज़                    बेनाम-ओ-निशाँ: गुमनाम
मअतूब: दुखदाई, घृणा योग्य, अभागी

जिस अहद-ए-सियासत ने, यह ज़िंदा ज़ुबाँ कुचली
उस अहद-ए-सियासत को, मरहूमों का ग़म क्यों है
ग़ालिब जिसे कहते हैं, उर्दू ही का शायर था
उर्दू पे सितम ढाकर, ग़ालिब पे करम क्यों है
अहद-ए-सियासत: सरकार के काल          मरहूमों: मृतक, स्वर्गीय
ग़ालिब: श्रेष्ठ व्यक्ति, मिर्ज़ा ग़ालिब            करम: कृपा, उदारता, दया, दान

यह जश्न यह हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ
जो वादा-ए-फ़र्दा पर, अब टल नहीं सकते हैं
मुमकिन है कि कुछ अरसा, इस जश्न पे टल जाएँ
वादा-ए-फ़र्दा: आनेवाले कल के वादे

यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाक़त है
हम लोग हक़ीक़त के, एहसाह से आरी हैं
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं
सदाक़त: वास्तविकता, सच्चाई        आरी: रिक्त, महरूम