तकरीबन दो हफ्ते की
जद्दो-जहद के बाद दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारियों का
संग्राम अनिर्णीत है। दिल्ली सरकार ने विधान सभा का विशेष सत्र बुलाने, केंद्र की
अधिसूचना को फाड़ने और उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करने के बाद अंततः स्वीकार कर लिया
कि वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति और तबादलों के फैसलों पर उप-राज्यपाल की अनुमति
ली जाएगी। यदि एलजी और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद होगा तो संस्तुति राष्ट्रपति को
भेजी जाएगी। राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से फैसला करेंगे। यानी कुल
मिलाकर जैसा केंद्र सरकार कहेगी वैसा होगा। यह भी लगता है कि अंतिम फैसला आने तक
केंद्रीय अधिसूचना जारी रहेगी।
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Sunday, May 31, 2015
Saturday, June 14, 2014
संघीय व्यवस्था पर विमर्श की घड़ी
मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ
प्रताप सिंह और एचडी देवेगौडा को छोड़ दें तो देश के प्रधानमंत्रियों में से अधिकतर
के पास राज्य सरकार का नेतृत्व करने का अनुभव नहीं रहा। राज्य का मुख्यमंत्री होना
भले ही प्रधानमंत्री पद के लिए महत्वपूर्ण न होता हो, पर राज्य का नेतृत्व करना एक
खास तरह का अनुभव दे जाता है, खासकर तब जब केंद्र और राज्य की सरकारें अलग-अलग
मिजाज की हों। इस बात को हाल में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने हाल में
रेखांकित किया। नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप जो समय बिताया उसका
काफी हिस्सा केंद्र-राज्य रिश्तों से जुड़े टकरावों को समर्पित था।
संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के
अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए मोदी ने जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया वह
यह थी कि इस देश को केवल दिल्ली के हुक्म से नहीं चलाया जा सकता। सारे देश को
चलाने का एक फॉर्मूला नहीं हो सकता। पहाड़ी राज्यों की अपनी समस्याएं हैं और
मैदानी राज्यों की दूसरी। तटवर्ती राज्यों का एक मिजाज है और रेगिस्तानी राज्यों
का दूसरा। क्या बात है कि देश का पश्चिमी इलाका विकसित है और पूर्वी इलाका
अपेक्षाकृत कम विकसित? लम्बे समय से देश मजबूत केंद्र और
सत्ता के विकेंद्रीकरण की बहस में संलग्न रहा है। पर विशाल बहुविध, बहुभाषी,
बहुरंगी देश को एकसाथ लेकर चलने का फॉर्मूला सामने नहीं आ पाया है। केंद्र की नई
सरकार देश को नया शासन देने के साथ इस विमर्श को बढ़ाना चाहती है, तो यह शुभ लक्षण
है।
केंद्र-राज्य मंचों में राजनीति
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में कहा, ‘राज्यों
और केंद्र को सामंजस्यपूर्ण टीम इंडिया के रूप में काम करना चाहिए। सरकार, राष्ट्रीय
विकास परिषद, अंतर्राज्यीय परिषद जैसे मंचों को पुन: सशक्त
बनाएगी।’ अब तक का अनुभव है कि इन मंचों पर मुख्यमंत्री
अनमने होकर आते हैं। अक्सर आते ही नहीं। राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय
विकास पर हावी रहती है। हाल के वर्षों में योजना आयोग के आँकड़ों को इस प्रकार
घुमा-फिराकर पेश करने की कोशिश की जाती थी, जिससे लगे कि विकास का गुजरात मॉडल
विफल है। पिछले दो साल में जबसे तृणमूल कांग्रेस ने यूपीए से हाथ खींचा है बंगाल
को 22 हजार करोड़ रुपए के ब्याज की माफी का मसला राष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है।
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार और यूपीए के बीच विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने
की बात राजनीतिक गलियारों में गूँजती रही।
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