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Tuesday, July 19, 2022

गर्मी से परेशान यूरोप

 

मंगलवार के वॉलस्ट्रीट जरनल के पहले पेज पर प्रकाशित तस्वीर। बकिंघम पैलेस पर तैनात संतरी को ठंडा पानी पिलाता उसका अफसर। 

पश्चिमी यूरोप इन दिनों झुलसाने वाली गर्मी का सामना कर रहा है। ज़बरदस्त गर्म हवाओं के उत्तर की ओर बढ़ने के साथ ही मंगलवार को पश्चिमी यूरोप में पारा चढ़ता जा रहा है। कई देशों ने इसे राष्ट्रीय संकट घोषित कर दिया है। फ्रांस और यूके में सोमवार 18 जुलाई को बेहद गर्मी की चेतावनी जारी की गई। वहीं स्पेन में सोमवार को 43 डिग्री तापमान रहा।

फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और ग्रीस में जंगल की आग के कारण हज़ारों लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित जगहों की तरफ जाना पड़ा है। विशेषज्ञ कहते हैं कि ब्रिटेन जल्द ही अपने सबसे गर्म दिन का सामना करेगा और फ्रांस के कुछ हिस्सों में "कयामत की गर्मी बरस" रही है।

पूरा यूरोप गर्मी में उबल रहा है। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों का और बढ़ा दिया है। यूनाइटेड किंगडम (यूके) से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बना रहा है। स्पेन में लगी आग में दो लोगों की मौत ने इसे और गंभीर बना दिया है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा है और कहा है कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है।

दक्षिणी इंग्‍लैंड में सोमवार को तापमान 38 डिग्री था जो मंगलवार को 41 डिग्री के आसपास है। नेशनल रेल सर्विस ने यात्रियों को सलाह दी है कि जब तक जरूरी न हो सफर न करें। पूर्वोत्तर इंग्‍लैंड में कई जगह रेल सेवा बंद कर दी गई है।

Sunday, May 8, 2022

मोदी की यात्रा से खुली यूरोप की खिड़की


प्रधानमंत्री की छोटी सी, लेकिन बेहद सफल विदेश-यात्रा ने भारत और यूरोप के बीच सम्बंधों को नई दिशा दी है। वह भी ऐसे मौके पर, जब यूरोप संकट से घिरा है और भारत के सामने रूस और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने की दुविधा है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारत और यूरोप के रिश्ते असमंजस से भरे रहे हैं। एक अरसे से उम्मीद की जा रही थी कि असमंजस का यह दौर टूटेगा। अब पहली बार लग रहा है कि भारत ने यूरोप के साथ बेहतरीन रिश्तों की आधार-भूमि तैयार कर ली है। आर्थिक-राजनीतिक सहयोग, तकनीकी और वैज्ञानिक रिश्तों और भारत के सामरिक हितों के नजरिए से नए दरवाजे खुले हैं। इस घटनाक्रम के समांतर हमें रूस पर लग रही पाबंदियों के प्रभाव को भी समझना होगा। यूक्रेन का युद्ध अभी तार्किक-परिणति पर नहीं पहुँचा है। फिलहाल लगता है कि यूक्रेन एक विभाजित देश के रूप में बचेगा। यहाँ से वैश्विक-राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

यूक्रेन पर नजरिया

इस यात्रा का दूसरा पहलू यह है कि भारत ने यूक्रेन युद्ध के बाबत अपनी दृष्टि को यूरोपीय देशों के सामने सफलता के साथ स्पष्ट किया है और यूरोप के देशों ने उसे समझा है। भारत ने यूक्रेन पर रूस के हमले की स्पष्ट शब्दों में निंदा नहीं की है, पर परोक्ष रूप से इस हमले को निरर्थक और अमानवीय भी माना है। अंदेशा था कि यूरोप के देश इस बात को पसंद नहीं करेंगे, पर इस पूरी यात्रा के दौरान भारत और यूरोपीय देशों ने एक-दूसरे के हितों को पहचानते हुए, असहमतियों के बिंदुओं को रेखांकित ही नहीं किया। साथ ही इस युद्ध से जुड़े मानवीय पहलुओं को लेकर आपसी सहयोग की सम्भावनाओं को रेखांकित किया।

दबाव कम हुआ

भारत ने स्पष्ट किया है कि हम तीनों पक्षों अमेरिका, यूरोप और रूस के साथ बेहतर संबंध चाहते है। किसी एक को नजरंदाज नहीं करेंगे। अभी तक यूरोपीय देशों की तरफ़ से भारत पर दबाव था, पर अब माना जा रहा है कि यूरोपीय देश यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की नीति को समझ गए हैं।  अब उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया है कि भारत रूस पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे ताकि रूस की तरफ़ से युद्ध को समाप्त करने के लिए बात शुरू हो। यूक्रेन युद्ध पर भारत की दृष्टि यूरोप से अलग है। हमें यह भी स्पष्ट करना है कि हम रूस का साथ छोड़ेंगे नहीं। हमें रक्षा-सामग्री के लिए उसकी जरूरत है। अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय रहने और चीन को काउंटर करने के लिए भी हमें रूस के साथ रहना होगा। यदि हम रूस का साथ छोड़ देंगे, तब रूस-चीन गठजोड़ पूरा हो जाएगा।

स्वतंत्र विदेश-नीति

भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति से जुड़ी बातें भी अब स्पष्ट हो रही हैं। पिछले 75 वर्षों में भारत ने कमोबेश वैश्विक घटनाचक्र से एक दूरी बनाकर रखी, पर अब वह भागीदार बनकर उभर रहा है। शीतयुद्ध के बाद भारत ने चीन और रूस के सम्भावित गठजोड़ के साथ जुड़ने का प्रयास भी किया, पर पिछले दो वर्षों में इस नीति पर भी गहन विचार हुआ है। अब हम अमेरिका, यूरोप और रूस-चीन के साथ विकसित होती बहुध्रुवीय दुनिया में स्वाभाविक पार्टनर के रूप में उभर कर आ रहे हैं। यूरोप के देशों ने भारत के आर्थिक-विकास में भागीदार बनने का इरादा जताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने यूरोप में रह रहे भारतीयों के साथ रोचक-संवाद किया और उन्हें जिम्मेदारी दी कि वे दुनिया और भारत के बीच सेतु का काम करें। पहली बार यह बात भी सामने आ रही है कि भारत की सॉफ्ट-पावर में बड़ी भूमिका भारतवंशियों की है, जो दुनियाभर में फैले हैं और अच्छी स्थिति में हैं।

Thursday, March 3, 2022

यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को?


यूक्रेन में लड़ाई को एक हफ्ते से ज्यादा समय हो गया है। रूसी सेनाएं राजधानी कीव और खारकीव जैसे शहरों तक पहुँच चुकी हैं। पूर्व के डोनबास इलाके पर उनका पहले से कब्जा है। बावजूद इसके उसकी सफलता को लेकर कुछ सवाल खड़े हुए हैं। रूसी सेना का कूच धीमा पड़ रहा है। इन सवालों के साथ मीडिया की भूमिका भी उजागर हो रही है। पश्चिम और रूस समर्थक मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे से मेल नहीं खा रही हैं।

2015 में जब रूस ने सीरिया के युद्ध में प्रवेश किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि रूस अब यहाँ दलदल में फँस कर रह जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को बचा लिया। इससे रूस का रसूख बढ़ा। क्या इसबार यूक्रेन में भी वह वही करके दिखाएगा? पर्यवेक्षक मानते हैं कि रूस यदि सफल हुआ, तो यूरोप में ही नहीं दुनिया में राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

अमेरिकी जाल

इस लड़ाई में रूस बड़े जोखिम उठा रहा है और अमेरिका उसे जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के भीतर आकर बाहर निकलने का रास्ता उसे नहीं मिलेगा। लड़ाई की परिणति रूसी सफलता में होगी या विफलता में यह बात लड़ाई खत्म करने के लिए होने वाले समझौते से पता लगेगी। रूस यदि अपनी बात मनवाने में सफल रहा, तो आने वाला समय उसके प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार का होगा।

सफलता या विफलता के पैमाने भी स्पष्ट नहीं हैं। अलबत्ता कुछ सवालों के जवाबों से बात साफ हो सकती है। पहला सवाल है कि रूस चाहता क्या है? किस लक्ष्य को लेकर उसने सेना भेजी है? पहले लगता था कि उसका इरादा यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को हटाकर उनकी जगह अपने किसी आदमी को बैठाना है। ऐसा होता तो वह ज़ेलेंस्की की सरकार से बेलारूस में बातचीत क्यों करता? आज भी वहाँ बात हो रही है। जिस सरकार को हटाना ही है, उससे बातचीत क्यों?

Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।

Tuesday, February 22, 2022

यूक्रेन के आकाश पर अदृश्य-युद्ध के बादल

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो पृथकतावादी क्षेत्रों को मान्यता दे दी है। इनपर रूस समर्थित अलगाववादियों का नियंत्रण है। पुतिन ने जिस शासनादेश पर दस्तख़त किए हैं उसके मुताबिक़ रूसी सेनाएं लुहान्स्क और दोनेत्स्क में शांति कायम करने का काम करेंगी। आशंका है कि सेनाएं जल्दी ही सीमा पार कर लेंगी। कुछ दिन पहले यूक्रेन के माहौल को देखते हुए लगता था कि लड़ाई अब शुरू हुई कि तब। मीडिया में तारीख घोषित हो गई थी कि 16 फरवरी को हमला होगा। 16 तारीख निकल गई, बल्कि उसी दिन रूस ने कहा कि हम फौजी अभ्यास खत्म करके कुछ सैनिकों को वापस बुला रहे हैं। इस घोषणा से फौरी तौर पर तनाव कुछ कम जरूर हुआ था, पर अब अमेरिका का कहना है कि यह घोषणा फर्जी साबित हुई है। रूस पीछे नहीं हटा, बल्कि सात सैनिक हजार और भेज दिए हैं। बहरहाल यूक्रेन तीन तरफ से घिरा हुआ है। जबर्दस्त अविश्वास का माहौल है।

रूस ने युद्धाभ्यास रोकने की घोषणा की है और बातचीत जारी रखने का इरादा जताया है। यूक्रेन चाहता है कि यूरोपियन सुरक्षा और सहयोग से जुड़े संगठन ओएससीई की बैठक हो, जिसमें रूस से सवाल पूछे जाएं। जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स यूक्रेन गए हैं और इन पंक्तियों के प्रकाशित होते समय वे मॉस्को में होंगे। हालांकि अमेरिका मुतमइन नहीं है, फिर भी लम्बी फ़ोन-वार्ता के बाद बाइडेन और बोरिस जॉनसन ने कहा कि समझौता अभी संभव है।

धमकियाँ-चेतावनियाँ

पहली नजर में लगता है कि बातों, मुलाकातों का दौर खत्म हो चुका है, पर ऐसा नहीं है। पृष्ठभूमि-विमर्श जारी है। गत 11 फरवरी को जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने अमेरिकी नागरिकों से कहा कि वे 48 घंटे के भीतर यूक्रेन से बाहर निकल जाएं। अमेरिकी दूतावास भी बंद किया जा रहा है। लड़ाई की शुरूआत हवाई बमबारी या मिसाइलों के हमले के रूप में होगी। साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि व्लादिमीर पुतिन ने अभी आखिरी फैसला नहीं किया है।

Friday, December 3, 2021

यूरोप में भयावह लहर, फिर भी कोविड-पाबंदियों का विरोध


कोरोना वायरस ने एक बार फिर यूरोप में कहर मचाना शुरू कर दिया है। ज्यादातर देशों ने कोविड-पाबंदियों को सख्ती से लागू करना शुरू किया है, जिनका विरोध हो रहा है। पाबंदियों का विरोध ही नहीं वैक्सीनेशन का विरोध भी हो रहा है। ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में 40,000 ऐसे लोगों ने विरोध-प्रदर्शन किया है, जिन्होंने टीके नहीं लगवाए। उधर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यूरोप और मध्य एशिया के 53 देशों को चेतावनी दी है कि इन दो इलाकों में कोविड-19 से फरवरी तक पाँच लाख मौतें हो सकती हैं। संक्रमण की वजह से हो रही मौतों में से करीब आधी यूरोप के देशों में हैं। यूरोप में एक हफ्ते में 20 लाख से ज्यादा नए केस मिल रहे हैं।

टीके की अनिवार्यता

इस लहर की भयावहता को देखते हुए संभवतः ऑस्ट्रिया अगले साल फरवरी से पहला देश बनेगा, जहाँ टीका लगवाना कानूनन अनिवार्य किया जा सकता है। शुक्रवार 19 नवंबर को सरकार ने इस आशय की घोषणा की। इस घोषणा के बाद राजधानी वियना में हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के यूरोप में रीजनल डायरेक्टर डॉ हैंस क्लूग का कहना है कि कानूनन वैक्सीनेशन को अनिवार्य बनाना अंतिम उपाय होना चाहिए। अलबत्ता इस विषय पर समाज में व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए।

डॉ क्लूग का कहना है कि मास्क पहनने से संक्रमण को काफी हद तक रोका जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि सर्दी का मौसम, टीकाकरण में कमी और बहुत तेजी से फैलने वाले डेल्टा वेरिएंट की उपस्थिति के कारण यूरोप पर खतरा बढ़ा है। यूरोप और मध्य एशिया के देशों में अब तक करीब 14 लाख लोगों की मौतें इस महामारी से हो चुकी हैं। अब यूरोप और मध्य एशिया के देशों में सर्दी शुरू होने के कारण बीमारी के बढ़ने का अंदेशा पैदा हो गया है। पूर्वी यूरोप के देशों में हालात खासतौर से ज्यादा खराब हैं। रोमानिया, एस्तोनिया, लात्विया और लिथुआनिया जैसे देशों में स्थिति खराब है।

लॉकडाउन

ऑस्ट्रिया ने सोमवार 22 नवंबर से देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया। लॉकडाउन अधिकतम 20 दिन तक चलेगा, हालांकि 10 दिन के बाद इसपर पुनर्विचार किया जाएगा। इस दौरान लोगों के अनावश्यक रूप से बाहर जाने पर रोक होगी, रेस्तरां तथा ज्यादातर दुकानें बंद रहेंगी और बड़े आयोजन रद्द रहेंगे। स्कूल और ‘डे-केयर सेंट’ खुले तो रहेंगे, लेकिन अभिभावकों को बच्चों को घर पर रखने की सलाह दी गई है।

इससे एक दिन पहले, रविवार को मध्य वियना के बाजारों में भीड़ उमड़ पड़ी। यह भीड़ लॉकडाउन से पहले जरूरत की चीजों और क्रिसमस की खरीदारी के लिए भी थी। लोगों के मन में भविष्य को लेकर अनिश्चय है। देश के चांसलर अलेक्जेंडर शालेनबर्ग ने शुक्रवार को लॉकडाउन की घोषणा की थी। तब उन्होंने यह भी कहा था कि अगले वर्ष एक फरवरी से यहां लोगों के लिए टीकाकरण अनिवार्य किया जा सकता है।

ऑस्ट्रिया ने शुरू में केवल उन लोगों के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की शुरुआत की थी, जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है, लेकिन संक्रमण के मामले बढ़ने पर सरकार ने सभी के लिए इसे लागू कर दिया। दो सबसे ज्यादा प्रभावित प्रांत, सॉल्ज़बर्ग और ऊपरी ऑस्ट्रिया ने कहा कि वे अपने यहां लॉकडाउन की शुरुआत करेंगे, जिससे सरकार पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा करने का दबाव बढ़ेगा। नए प्रतिबंधों की घोषणा और अगले साल टीकों को अनिवार्य बनाने की योजना के बाद 10 हजार से ज्यादा लोगों ने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में भी विरोध प्रदर्शन किया।

Friday, October 30, 2020

यूरोप में फिर से लॉकडाउन


यूरोप में कोविड-19 की एक और लहर के खतरे को देखते हुए फ्रांस और जर्मनी ने लॉकडाउन की घोषणा की है। ब्रिटेन भी लॉकडाउन लागू करने पर विचार कर रहा है, पर उसके आर्थिक निहितार्थ को देखते हुए संकोच कर रहा है। कुछ शहरों में उसे लागू कर भी दिया गया है। गत बुधवार 28 अक्तूबर को टीवी पर राष्ट्र के नाम संबोधन में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि शुक्रवार से लॉकडाउन शुरू होगा, जो करीब एक महीने तक लागू रहेगा। इस दौरान लोगों से अपने घरों में रहने को कहा गया है। रेस्त्रां और बार बंद कर दिए गए हैं। गैर-जरूरी वस्तुओं की दुकानों को भी बंद किया जा रहा है।

उधर जर्मनी की चांसलर अंगेला मार्केल ने कहा है कि देश की संघीय और राज्य सरकारों ने कम प्रतिबंधों के साथ एक महीने के शटडाउन का फैसला किया है। इस दौरान रेस्त्रां, बार, फिटनेस स्टूडियो, कंसर्ट हॉल, थिएटर वगैरह बंद रहेंगे। यह शटडाउन सोमवार से शुरू होगा।

Monday, May 14, 2012

यूरोज़ोन और पूँजीवाद का वैश्विक संकट

यूरोपीय संघ अपने किस्म का सबसे बड़ा राजनीतिक-आर्थिक संगठन है। इरादा यह था कि यूरोप के सभी देश आपसी सहयोग के सहारे आर्थिक विकास करेंगे और एक राजनीतिक व्यवस्था को भी विकसित करेंगे। 27 देशों के इस संगठन की एक संसद है। और एक मुद्रा भी, जिसे 17 देशों ने स्वीकार किया है। दूसरे विवश्वयुद्ध के बाद इन देशों के राजनेताओं ने सपना देखा था कि उनकी मुद्रा यूरो होगी। सन 1992 में मास्ट्रिख्ट संधि के बाद यूरोपीय संघ के भीतर यूरो नाम की मुद्रा पर सहमति हो गई। इसे लागू होते-होते करीब दस साल और लगे। इसमें सारे देश शामिल भी नहीं हैं। यूनाइटेड किंगडम का पाउंड स्टर्लिंग स्वतंत्र मुद्रा बना रहा। मुद्रा की भूमिका केवल विनिमय तक सीमित नहीं है। यह अर्थव्यवस्था को जोड़ती है। अलग-अलग देशों के बजट घाटे, मुद्रास्फीति और ब्याज की दरें इसे प्रभावित करती हैं। समूचे यूरोप की अर्थव्यवस्था एक जैसी नहीं है। दुनिया की अर्थव्यवस्था इन दिनों दो प्रकार के आर्थिक संकटों से घिरी है। एक है आर्थिक मंदी और दूसरा यूरोज़ोन का संकट। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं।