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Wednesday, February 2, 2022

छुटकारा कैसे मिले, इस ‘जानलेवा विषमता’ से?

विकास, संवृद्धि और उत्पादन के खुशगवार आँकड़ों की बहार है, पर जब आइना देखते हैं, तब चेहरे की झुर्रियाँ हैरान और परेशान करती है। ऐसा ऑक्सफ़ैम असमानता-रिपोर्ट से हुआ है। ‘इनइक्वैलिटी किल्स’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आर्थिक-विषमता भयानक तरीके से बढ़ रही है। 2021 में देश के 84 फीसदी परिवारों की आय घटी है, पर इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। मार्च 2020 से 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये (313 अरब डॉलर) से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये (719 अरब डॉलर) हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक देशवासी आत्यंतिक गरीबी-रेखा के दायरे में आ गए हैं।

वैश्विक-चिंतन की दिशा

ऑक्सफ़ैम की वैश्विक-विषमता रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के सम्मेलन के पहले आती है। दावोस का फोरम कारोबारी संस्था है, जिसे कॉरपोरेट दुनिया संचालित करती है। नब्बे के दशक में जबसे आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की बातें शुरू हुई हैं वैश्विक गरीबी और असमानता सुर्खियों में है। समाधान खोजे गए, पर वे कारगर नहीं हुए। सहस्राब्दी लक्ष्यों को 2015 तक हासिल करने में संयुक्त राष्ट्र विफल रहा। अब उसने 2030 के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। विकास और विषमता की विसंगति को दावोस का फोरम भी स्वीकार करता है। वहाँ भी ऑक्सफ़ैम-रिपोर्ट का जिक्र हुआ है।

Sunday, January 23, 2022

विषमता के चक्रव्यूह की चुनौती


जनवरी के तीसरे हफ्ते में वैश्विक महत्व की दो महत्वपूर्ण आर्थिक घटनाएं हर साल होती हैं। पहले, ऑक्सफ़ैम की वैश्विक विषमता रिपोर्ट और उसके बाद स्विट्ज़रलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम का सम्मेलन। दुनिया में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए विश्व आर्थिक फोरम की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। यह कारोबारी संस्था है, जो कॉरपोरेट दुनिया को साथ लेकर चलती है, पर नब्बे के दशक से शुरू हुए वैश्वीकरण अभियान के बाद से दुनिया की सरकारों की भागीदारी दावोस में बढ़ी है। असमानता के कई रूप हैं, उनमें आर्थिक असमानता सबसे प्रमुख है, जो दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है।  

ऑक्सफ़ैम क्या है?

ऑक्सफोर्ड कमेटी फॉर फ़ैमीन यानी ऑक्सफ़ैम, वैश्विक-गरीबी को दूर करने के इरादे से गठित ब्रिटिश संस्था 1942 से काम कर रही है। इसके साथ 21 संस्थाएं और जुड़ी हैं। यह संस्था दुनियाभर में मुफलिसों और ज़रूरतमंदों की सहायता करती है और भूकंप, बाढ़ या अकाल जैसी आपदाओं के मौके पर राहत पहुँचाती है। वैश्विक असमानता पर केवल ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट ही नहीं आती। पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब भी इस सिलसिले में शोध-कार्य करती है। इस लैब ने 7 दिसंबर 2021 को वर्ल्ड इनइक्वैलिटीरिपोर्ट-2022 जारी की थी। इसे तैयार करने में लुकाच चैंसेल, टॉमस पिकेटी, इमैनुएल सेज़ और गैब्रियल जुचमैन ने करीब चार साल तक मेहनत की थी।

जानलेवा विषमता

17 जनवरी को ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट जारी हुई और 17-21 जनवरी तक दावोस सम्मेलन हुआ। ऑक्सफ़ैम-रिपोर्ट का शीर्षक है ‘इनइक्वैलिटीकिल्स यानी जानलेवा विषमता।’ हालांकि इसमें वैश्विक-संदर्भ हैं, पर हमारी दिलचस्पी भारत में ज्यादा है। इसमें कहा गया है कि 2021 में भारत के 84 फीसदी परिवारों की आय घटी है, पर इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। मार्च 2020 से 30 नवंबर, 2021 तक भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये (313 अरब डॉलर) से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये (719 अरब डॉलर) हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक देशवासी आत्यंतिक गरीबी-रेखा के दायरे में आ गए।

अरबपतियों की चाँदी

वैश्विक संदर्भ में रिपोर्ट कहती है कि कोरोना महामारी के दौर में दुनिया ने अरबपतियों की संपदा में अभूतपूर्व वृद्धि होते देखी है। कोविड-19 के संक्रमण के बाद से हरेक 26 घंटे में एक नया अरबपति पैदा हुआ है। दुनिया के 10 सबसे अमीर व्यक्तियों की इस दौरान संपत्ति दोगुनी हो गई, जबकि मार्च, 2020 से नवंबर, 2021 के बीच, कम से कम 16 करोड़ लोग गरीबी में धकेल दिए गए। चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरा ऐसा देश है, जहां अरबपतियों की संख्या सबसे अधिक है। फ्रांस, स्वीडन और स्विट्जरलैंड की तुलना में 2021 में भारत में अरबपतियों की संख्या में 39 फीसदी की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि ऐसे समय में हुई है, जब भारत में बेरोजगारी दर शहरी इलाकों में 15 फीसदी तक है और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली चरमरा रही है। कोरोना संक्रमण के दौर में देश के स्वास्थ्य बजट में 2020-21 के संशोधित अनुमान से 10 फीसदी की गिरावट देखने को मिली है। शिक्षा के आवंटन में 6 फीसदी की कटौती की गई, जबकि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिए बजटीय आवंटन कुल बजट के 1.5 फीसदी से 0.6 हो गया। इस असमानता को आर्थिक हिंसा करार दिया गया है, जो तब होती है, जब सबसे अमीर और ताकतवर लोगों के लिए सहूलियत वाली ढांचागत नीतियां बनाई जाती हैं।

Thursday, December 2, 2021

उत्तर भारत के राज्य गरीबी में आगे

भारत में आर्थिक विषमता का एक दूसरा रूप है, अलग-अलग क्षेत्रों के बीच विषमता। जहाँ दक्षिण भारत अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में है, वहीं उत्तर भारत के राज्य पिछड़े है। यह बात हाल में जारी देश के पहले मल्टीडाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (बहुआयामी गरीबी सूचकांक-एमपीआई) से भी जाहिर हुई है, जिसे नीति आयोग ने जारी किया है। इसके अनुसार जहाँ बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का स्तर दुनिया के सबसे पिछड़े उप-सहारा अफ्रीकी देशों जैसा है, वहीं केरल का स्तर विकसित देशों जैसा है।

बिहार नंबर एक

नीति आयोग के दस्तावेज से आपको देश के अलग-अलग राज्यों की तुलनात्मक गरीबी का पता लगेगा। बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार, बिहार देश का सबसे गरीब राज्य है। बिहार की आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 10.4 करोड़ है। इसकी 51.91 फीसदी यानी 5.4 करोड़ आबादी गरीबी में जीवन बसर कर रही है।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक में बिहार के बाद दूसरे नंबर पर झारखंड है, इस राज्य में 42.16 प्रतिशत आबादी गरीब है। तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है। 2011 की जनगणना के अनुसार यूपी की आबादी 19.98 करोड़ है। यूपी में 37.79 प्रतिशत आबादी गरीब है। यानी 7.55 करोड़ आबादी गरीब है। चौथे नंबर पर मध्य प्रदेश है। यहां की 36.65 प्रतिशत आबादी गरीब है। देश में सबसे अच्छी स्थिति केरल की है, जहां केवल 0.71 प्रतिशत लोग ही गरीब हैं।

Thursday, October 15, 2015

प्रो डीटन को नोबेल और भारत की गरीबी

आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? यह इक्कीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों के सामने महत्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी. ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गई है. वे लम्बे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं. भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है. उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं. उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता. इसके लिए जनता और शासन के बीच में एक प्रकार की सहमति होनी चाहिए. 

Tuesday, January 20, 2015

स्वास्थ्य का अधिकार देंगे, पर कैसे?

सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2015 के जिस मसौदे पर जनता की राय मांगी है उसके अनुसार आने वाले दिनों में चिकित्सा देश के नागरिकों का मौलिक अधिकार बन जाएगी। यानी स्वास्थ्य व्यक्ति का कानूनी अधिकार होगा। सिद्धांततः यह क्रांतिकारी बात है। भारतीय राज-व्यवस्था शिक्षा के बाद व्यक्ति को स्वास्थ्य का अधिकार देने जा रही है। इसका मतलब है कि हमारा समाज गरीबी के फंदे को तोड़कर बाहर निकलने की दिशा में है। पर यह बात अभी तक सैद्धांतिक ही है। इसे व्यावहारिक बनने का हमें इंतजार करना होगा। पर यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर चेतना बढ़ी है।

Saturday, July 5, 2014

मंगलयान से गरीब को क्या मिलेगा?

भारत का मंगलयान अपनी तीन चौथाई यात्रा पूरी कर चुका है। उसके मार्ग में तीसरा संशोधन 11 जून को किया गया। अब अगस्त में एक और संशोधन संभावित है। उसके बाद सितंबर के पहले हफ्ते में यह यान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाएगा। इस आशय की पोस्ट मैने फेसबुक पर लगाई तो किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, सहज भाव से कुछ मित्रों ने लाइक बटन दबा दिया। अलबत्ता दो प्रतिक्रियाओं ने एक पुराने सवाल की ओर ध्यान खींचा। एक प्रतिक्रिया थी कि फिर क्या हो जाएगा? आम आदमी की जिंदगी बेहतर हो जाएगी? एक और प्रतिक्रिया थी कि वहाँ से सब अच्छा ही दीखेगा। दोनों प्रतिक्रियाओं के पीछे इस बात को लेकर तंज़ है कि हमारी व्यवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण बातों को भूलकर इन निरर्थक कामों में क्यों लगी रहती है। अक्सर कहा जाता है कि भारत की दो तिहाई आबादी के लिए शौचालय नहीं हैं। और यह भी कि देश के आधे बच्चे कुपोषित हैं। मंगलयान से ज्यादा जरूरी उनके पोषण के बारे में क्या हमें नहीं सोचना चाहिए? वास्तव में ये सारे सवाल वाजिब हैं, पर सोचें कि क्या ये सवाल हम हरेक मौके पर उठाते हैं? मसलन जब हमारे पड़ोस में शादी, बर्थडे, मुंडन या ऐसी ही किसी दावत पर निरर्थक पैसा खर्च होता है तब क्या यह सवाल हमारे मन में आता है?

गरीब देश को क्या यह शोभा देता है?

क्या मंगलयान भेजने जैसे काम जनता के किसी काम आते हैं? पहली नजर में लगता है कि यह सब बेकार है। सवाल है कि क्या भारत जैसे गरीब देश को अंतरिक्ष कार्यक्रमों को हाथ में लेना चाहिए? मंगलयान अभियान पर 450 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इस राशि की तुलना अपने शिक्षा पर होने वाले खर्च से करें। सन 2013 के बजट में वित्तमंत्री ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए 65,867 करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा। सर्वशिक्षा अभियान के लिए 27,258 करोड़ और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 3,983 करोड़ रुपए।इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते हैं। पहली नज़र में बात तार्किक लगती है। सामाजिक क्षेत्र में हमारी प्रगति अच्छी नहीं है। एशियाई विकास बैंक के सोशल प्रोटेक्शन इंडेक्स में भारत का 23वाँ स्थान है। इस इंडेक्स में कुल 35 देश शामिल हैं। हमारे देश में औसतन हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इस बात का दूसरा पहलू भी देखें। शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों के क्षेत्र में आते हैं। उसके लिए राज्य सरकारों के बजट भी हैं। माध्यमिक शिक्षा में काफी बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र भी शामिल हो चुका है। अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करेगा?

अब कुछ दूसरी संख्याओं को देखें। करन जौहर की फिल्म शुद्धि का बजट 150 करोड़ रुपए है। एंथनी डिसूजा की फिल्म 'ब्लू' और शाहरुख की 'रा वन' का भी 100 करोड़। तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा। फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे? भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को खरीदने जा रहा है उस एक विमान की कीमत है 1400 करोड़ रुपया। भारत 126 विमान खरीदेगा और इसके बाद 63 और खरीदने की योजना है। इनकी कीमत जोड़िए। भारत ही नहीं सारी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि युद्ध का जो साजो-सामान हम जमा कर रहे हैं क्या वह निरर्थक नहीं? पर दूसरी तरफ सोचें। क्या युद्ध रोके जा सकते हैं? आखिर युद्ध क्यों होते हैं? कोई साजिश है या इंसानियत की नासमझी या कुछ और? वास्तव में नैतिक आग्रहों से भरे सवाल करना आसान है, पर व्यावहारिक स्थितियों का सामना करना दूसरी बात है। युद्ध एक दर्शन है। नीति और अनीति दो धारणाएं हैं। इनका द्वंद अभी तक कायम है। क्यों नहीं दुनिया भर में सुनीति की विजय होती? क्यों अनीति भी कायम है?

क्या मिलेगा अंतरिक्ष में घूमती चट्टानों, धूल और धुएं में?

 मान लिया हमारे यान ने वहाँ मीथेन होने का पता लगा ही लिया तो इससे हमें क्या मिल जाएगा? अमेरिका और रूस वाले यह काम कर ही रहे हैं। पत्थरों, चट्टानों और ज्वालामुखियों की तस्वीरें लाने के लिए 450 करोड़ फूँक कर क्या मिला? यह सवाल उन मनों में भी है, जिन्हें सचिन तेन्दुलकर की हाहाकारी कवरेज से बाहर निकल कर सोचने-समझने की फुरसत है। सवाल है अमेरिका और रूस को भी क्या पड़ी थी? पर उससे बड़ा सवाल है कि मनुष्य क्या खोज रहा है? क्यों खोज रहा है और उसका यह खोजना हमें कहाँ ले जा रहा है? यह सवाल मनुष्य के विकास और उससे जुड़े सभी पहलुओं की ओर हमारा ध्यान खींचता है। वैज्ञानिक, औद्योगिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वगैरह-वगैरह।

मानवता से जुड़े सवाल अपनी जगह हैं और देश से जुड़े सवाल दूसरी तरफ हैं। भारत के लिहाज से वैज्ञानिक शोध के अलावा आर्थिक कारण भी हैं। दुनिया का स्पेस बाज़ार इस वक्त तकरीबन 300 अरब डॉलर का है। इसमें सैटेलाइट प्रक्षेपण, उपग्रह बनाना, ज़मीनी उपकरण बनाना और सैटेलाइट ट्रैकिंग वगैरह शामिल हैं। टेलीकम्युनिकेशन के साथ-साथ यह दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता कारोबार है। हमने कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सही समय से प्रवेश किया और आज हम दुनिया के लीडर हैं। स्पेस टेक्नॉलजी में भी हम सफलता हासिल कर सकते हैं। हमारा पीएसएलवी रॉकेट दुनिया के सबसे सफलतम रॉकेटों में एक है और उससे प्रक्षेपण कराना सबसे सस्ता पड़ता है। वैसे ही जैसे हमारे डॉक्टर दुनिया में सबसे बेहतरीन हैं और भारत में इलाज कराना सबसे सस्ता पड़ता है।

तकनीक की जरूरत

विज्ञान का एप्लाइड रूप है तकनीक। यह सामाजिक जरूरत पर निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करें। यह तकनीक गर्दन काटने वाला चाकू बनाती है और डॉक्टर की मदद करने वाला नश्तर भी। एटम बम बनाती है और उससे बिजली या चिकित्सा करने वाली दवाएं भी। सवाल है कि क्या हाईएंड तकनीक हासिल करने की कोशिशें बंद कर देनी चाहिए? ऊँची इमारतें बनाने की तकनीक विकसित करना बंद करें, क्योंकि लोगों के पास रहने को झोंपड़ी भी नहीं है। शहरों में मेट्रो की क्या ज़रूरत है, जबकि पैदल चलने वालों के लिए सड़कें नहीं हैं। बसें और मोटर गाड़ियाँ बनाना बंद कर देना चाहिए? इनसे रिक्शा वालों की रोज़ी पर चोट लगती है। 

वास्तव में अपनी फटेहाली का समाधान हमें जिस स्तर पर करना चाहिए, वहाँ पूरी शिद्दत से होना चाहिए। एक समझदार और जागरूक समाज की यही पहचान है। आप मंगलयान की बात छोड़ दें। हम चाहें तो भारत के एक-एक बच्चे का सुपोषण संभव है। हरेक को रहने को घर दिया जा सकता है। कहीं से अतिरिक्त साधन नहीं चाहिए। मंगल अभियान हमें अपने इलाके को साफ-सुथरा रखने और पड़ोस के परेशान-फटेहाल व्यक्ति की मदद करने से नहीं रोकता। राजनीतिक स्तर पर यदि सरकार से कुछ कराना है तो नागरिक प्राथमिकता तय करें और सालाना बजट के मौके पर इन सवालों को उठाएं। पर यह भी देखें कि ऊँची तकनीक का गरीबी से बैर नहीं है। मोबाइल टेलीफोन शुरू में अमीरों का शौक लगता था। आज गरीबों का मददगार है। इन 450 करोड़ के बदले हजारों करोड़ रुपए हम हासिल करेंगे।

भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है। उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है। पर इस वक्त नाइजीरिया के तीन उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं। सन 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है। उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं। उसने ब्रिटेन, रूस और चीन की मदद ली है। उसके पास न तो रॉकेट हैं और न रॉकेट छोड़ पाने की तकनीक। उसकी ज़मीन के नीचे पेट्रोलियम है। उसकी तलाश से जुड़ी और सागर तट के प्रदूषण की जानकारी उसे उपग्रहों से मिलती है। नाइजीरिया के अलावा श्रीलंका, बोलीविया और बेलारूस जैसे छोटे देश भी अंतरिक्ष विज्ञान में आगे रहने को उत्सुक हैं। दुनिया के 70 देशों में अंतरिक्ष कार्यक्रम चल रहे हैं, हालांकि प्रक्षेपण तकनीक थोड़े से देशों के पास ही है।

व्यावहारिक दर्शन

पिछले साल उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान लेता। पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया। 1999 के ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा लोग मरे थे। अंतरिक्ष की तकनीक के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता। विज्ञान की खोज की सीढ़ियाँ हैं। हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करें उतना अच्छा। इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिले तो वह भी ठीक। पर जिस देश की तीन-चार फिल्मों का बजट एक मंगलयान के बराबर हो या जहाँ लोग दीवाली पर 5,000 करोड़ रुपए की आतिशबाजी फूँक देते हों उससे ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि बच्चों की शिक्षा के लिए पैसा क्यों नहीं है? महात्मा गांधी की बात मानें तो हम जो काम करते हैं उसे करने के पहले अपने आप से पूछें कि इससे गरीब का कितना भला होगा।

व्यावहारिक सच यह है कि कोई भी विचार, सिद्धांत और दर्शन तब तक बेकार है जब तक वह लागू नहीं होता। बातें व्यावहारिक सतह पर ही होनी चाहिए। 

वास्तव में मंगलयान से गरीबी दूर नहीं होगी। हम मंगलयान न भेजें तब भी गरीबी दूर करने की गारंटी है क्या?

Wednesday, November 23, 2011

हताशा से जूझते भारत का ज्ञान और सपने

पता नहीं कितने अखबारों में यह खबर थी कि 'कौन बनेगा करोड़पति' में पाँच करोड़ जीतने वाले मोतीहारी के सुशील कुमार ने श्रीमती सोनिया गांधी से भेंट की। यह सम्मान ओलिम्पिक मेडल जीतने वालों को मिलता रहा है। कल यानी इतवार के अखबारों ने इस बार के केबीसी की व्यावसायिक सफलता का गुणगान किया है। किस तरह उसने 'स्मॉल टाउन इंडिया' की भावनाओं को भुनाया। बहरहाल कुछ ज्ञान और कुछ भाग्य के सहारे चलने वाला खेल गाँव-गाँव, गली-गली सपने बिखेरने में कामयाब हुआ है। यह सायास था या अनायास पर 'कौन बनेगा करोड़पति' में कुछ नई बातें देखने को मिलीं। इसमें शामिल होने वालों की बड़ी तादाद बिहार, झारखंड और हिन्दी राज्यों के पिछड़े इलाकों से थी। कार्यक्रम के प्रस्तोताओं ने दुर्भाग्य के शिकार, हताश और विफलता से जूझते लोगों पर खासतौर से ध्यान दिया। उनकी करुण-कथाएं देश के सामने रखीं। अमिताभ बच्चन ने इन निराश लोगों के जीवन में खुशियाँ बाँटीं। सन 2000 में जब यह सीरियल जब शुरू हुआ था तब लोगों को करोड़पति बनने का यह रास्ता नज़र आया। यह रास्ता सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक की लॉटरी संस्कृति से बेहतर था। कम से कम लोगों ने जीके का रट्टा तो लगाया।

Thursday, August 5, 2010

बाज़ार के हवाले भूख

दो रोज़ पहले संसद में महंगाई को लेकर बहस हुई। इस बहस के दो-एक पहलुओं की ओर मैं इशारा करना चाहता हूँ। ऐसा लगता है कि महंगाई को लेकर सत्ता-पक्ष और विपक्ष उतने चिंतित नहीं हैं, जितना शोर मचाते हैं। विपक्ष ने शोर मचाया कि मंत्री सदन से गायब हैं। जबकि सच यह था कि विपक्षी सदस्य भी पूरे समय सदन में नहीं थे। 


सदन में बहस के दौरान महंगाई पर गम्भीर विश्लेषण किसी ने नहीं किया। सिर्फ इतना ही सुनाई पड़ता था कि मरे जा रहे हैं। सड़क के नारों और फिल्मी गीतों से सजाने भर से अच्छे संसदीय भाषण नहीं बनते। इस मामले में हमारे ज्यादातर नेता घटिया साबित हो रहे हैं।  


तीसरे 5 जुलाई को जब महंगाई के विरोध में राष्ट्रीय बंद हुआ था, ज्यादातर अखबारों और टीवी की बहसों में कहा जा रहा था कि आप संसद में बहस क्यो नहीं करते। सड़क पर क्यों जाते हैं?  बात समझ में आती है, पर जब बहस हुई तब कितने अखबारों में इसकी खबर लीड बनी। दिल्ली के टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे 'लोकप्रिय' अखबार में यह खबर पहले सफे पर भी नहीं थी। 


संसदीय बहसें अब मीडिया में कवर नहीं होतीं। इसकी वजह यदि यह होती कि संसद में बहसें अब नहीं होतीं तब तो ठीक था। ऐसी स्थिति में मीडिया को बहस का मंच बनाते। पर मीडिया को सनसनी चाहिए। कॉमनवैल्थ गेम्स में घोटालों की वजह से सनसनी है। पर सच यह भी है कि मीडिया कॉमनवैल्थ गेम्स की सफलता नहीं चाहता। 


मीडिया की दृष्टि में कॉमनवैल्थ गेम्स कोई बड़ा बिजनेस ईवेंट नहीं है। इसमें ज्यादा विज्ञापन नहीं मिलेंगे। इसकी जगह क्रिकेट होता तो घोटालों को उजागर करने के बजाय मीडिया दबाता। जब आईपीएल चल रहा था तब कितने घोटाले सामने आए?  वे तभी सामने आए जब मोदी ने ट्वीट किया। उनके आपसी झगड़े के कारण सामने आए। यों क्रिकेट (खेल नहीं उसका प्रतिष्ठान) अपने आप में बड़ा घोटाला है। 


बहरहाल महंगाई गरीब पर लगने वाला टैक्स है। महंगाई माने ज़रूरी चीजों की महंगाई है। आटा, चावल, दाल, तेल, चीनी, दूध, आलू, प्याज़ वगैरह की महंगाई। अमीर आदमी की आय का बहुत छोटा हिस्सा इन चीजों पर लगता है। वह जितने का आटा-चावल खरीदता है उससे कई गुना उसकी बीवी पार्लर का बिल देती है। ग़रीब आदमी का खाना ही पूरा नहीं होता, वह शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और परिवहन पर क्या खर्च करेगा। 


एक ज़माने में शहरों में पानी के प्याऊ होते थे। क्या गरीब और क्या अमीर सब उसका पानी पीते थे। अब पानी बोतलबंद है और प्याऊ बंद हैं। गरीब रिक्शेवाला खरीद कर पानी पीता है। उसका खून रिक्शे का पेट्रोल है, जो खरीदे हुए पानी से बनता है। उस रिक्शेवाले को पैसा देने में भी बीस खिच-खिच हैं। महंगाई उन जैसे लोगों के लिए काल साबित होती है। 


गरीबों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है। यह हमारे यहाँ और शायद सिर्फ हमारे यहाँ हुआ है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है। कल शाम आकाशवाणी की चर्चा में प्रो कमल नयन काबरा बता रहे थे कि दक्षिण कोरिया की बाज़ार व्यवस्था में भी सरकार कीमतों को काबू में रखती है। यह काम बेहतर सार्जनिक वितरण प्रणाली से सम्भव है। 


सरकारी नीतियों के कारण हमारे घर के आसपास की चक्कियाँ बंद हो गई हैं। हम और आप ब्रांडेड आटा खा रहे हैं। बड़े कॉरपोरेशन अनाज के कारोबार में आ गए हैं। वे आएं, पर उनके पास इतनी ताकत तो न हो कि वे किसान को चुकाई कीमत से दुगने या तिगने दाम पर बेचें। वायदा बाज़ार का फायदा किसान को मिलने के बजाय बिचौलिए को मिलने का मतलब है कि यह व्यवस्था गरीबी रच रही है। 


बाज़ार हमेशा खतरनाक नहीं है। उसकी ज़रूरत है। वह आपसी प्रतियोगिता के कारण उपभोक्ता के लिए मददगार हो सकता है। पर यह बाज़ार नहीं मोनोपली पूँजीवाद है। इसमें जिसके पास पैसा है उसे बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं से पैसा मिल जाता है। वह उत्पादक से अनाज या सब्जी खरीद लेता है। वायदा बाज़ार से उसे पता लग जाता है कि किस चीज़ के दाम बढ़ेंगे। वह उस चीज़ को रोक लेता है। 2008-09 में आलू के साथ ऐसा हुआ था।  


सरकार अभी तक भोजन के अधिकार का बिल पेश नहीं कर पाई है। पीडीएसको सीमित कर दिया गया है। अब वह गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों के लिए है। यच यह है कि गरीबी रेखा के काफी ऊपर तक के लोग बेहद गरीब हैं। टार्गेटेड पीडीएस के कारण तमाम भ्रष्टाचार है। पीडीएस सब के लिए होना चाहिए। जनता को खाने-पीने की चीजों के लिए बाज़ार के पास तभी जाना चाहिए जब वह सस्ता और अच्छा माल दे। बाज़ार का नियम है प्रतियोगिता। आज बाजार के सामने प्रतियोगिता है ही नहीं। 


मिलावट भारत की देन है। पिछले तीन-चार दशक में यह बड़ा कारोबार बन गया है। सिंथेटिक दूध जैसी भयावह चीज़ खुलेआम बिक रही है। इसके खिलाफ बेहद सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। मिर्च में हल्दी में जीरे में हर चीज़ में मिलावट है। इन चीजों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार की है। वह अपनी जिम्मेदारी तभी निभाएगी, जब जनता बोलेगी। अमर्त्य सेन कहते हैं कि जहाँ लोकतंत्र होता है वहाँ अकाल नहीं होते। यह बात महंगाई पर भी लागू होनी चाहिए।