Monday, September 26, 2022

यूक्रेन में लड़ाई और भड़कने का अंदेशा


वैश्विक राजनीति का घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है. गत 16 सितंबर को समरकंद में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन के बीच हुए संवाद से लगा था कि शायद यूक्रेन का युद्ध जल्द समाप्त हो जाएगा. पर उसके बाद
पुतिन के बयान और पश्चिमी देशों के तुर्की-ब-तुर्की जवाब से लग रहा है कि लड़ाई बढ़ेगी.

अब व्लादिमीर पुतिन ने अपने राष्ट्रीय प्रसारण में देश में आंशिक लामबंदी की घोषणा की है और एटमी हथियारों के इस्तेमाल की बात को दोहराया है. बुधवार 21 सितंबर को उन्होंने  कहा कि पश्चिम रूस को ब्लैकमेल कर रहा है, लेकिन रूस के पास जवाब देने के लिए कई हथियार हैं. हम अपने नागरिकों की रक्षा के लिए हरेक हथियार का इस्तेमाल करेंगे. रूसी जनता के समर्थन में मुझे पूरा भरोसा है.

सिर्फ भभकी

दूसरी तरफ यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की का कहना है कि हमें नहीं लगता कि रूस परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा. ज़ेलेंस्की ने जर्मनी के बिल्ड न्यूज़पेपर के टीवी कहा,  मुझे नहीं लगता कि दुनिया उन्हें परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की इजाजत देगी.

पुतिन के इस बयान पर जहां दुनिया भर के नेताओं ने टिप्पणी की है वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा परिषद में कहा कि रूस यूक्रेन के एक देश के रूप में बने रहने के उसके अधिकारों को ख़त्म करने का लक्ष्य बना रहा है. रूसी हमले के विरोध में हम यूक्रेन के साथ खड़े हैं. बाइडन ने सुरक्षा परिषद में वीटो के इस्तेमाल पर रोक लगाने की बात भी कही और साथ ही कहा कि अमेरिका सुरक्षा परिषद में सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन करता है.

थक रहा है रूस

यह भी लगता है कि इस लड़ाई में रूस थक गया है, पर अपमान का घूँट पीने को भी वह तैयार नहीं है. दूसरी तरफ उसे मिल रहे चीनी-समर्थन में कमी आ गई है. इस साल जनवरी-फरवरी में रूस-चीन रिश्ते आसमान पर थे, तो वे अब ज़मीन पर आते दिखाई पड़ रहे हैं.

Sunday, September 25, 2022

भिंडी-बाजार क्यों बने टीवी स्टूडियो?


सुप्रीम कोर्ट ने इस हफ्ते एक ऐसे मसले को उठाया है, जिसपर बातें तो लगातार हो रही हैं, पर व्यवहार में कुछ हो नहीं रहा है। अदालत ने हेट-स्पीच से भरे टॉक शो और रिपोर्टों को लेकर टीवी चैनलों को फटकार लगाई है। गत 21 सितंबर को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस हृषीकेश रॉय की बेंच ने हेट-स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एंकर की जिम्मेदारी है कि वह किसी को नफरत भरी भाषा बोलने से रोके। बेंच ने पूछा कि इस मामले में सरकार मूक-दर्शक क्यों बनी हुई है, क्या यह एक मामूली बात है? यही प्रश्न दर्शक के रूप में हमें अपने आप से भी पूछना चाहिए। यदि यह महत्वपूर्ण मसला है, तो टीवी चैनल चल क्यों रहे हैं? हम क्यों उन्हें बर्दाश्त कर रहे हैं? मूक-दर्शकतो हम और आप हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि सामान्य नागरिकों के भीतर चेतना का वह स्तर नहीं है, जो विकसित लोकतंत्र में होना चाहिए।

मीडिया की आँधी

चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा सोशल मीडिया में पहले प्रवेश कर गई थी, अब मुख्यधारा के मीडिया में भी सुनाई पड़ रही है। मीडिया की आँधी ने सूचना-प्रसारण के दरवाजे भड़ाक से  खोल दिए हैं। बेशक इसके साथ ही तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके कारण बढ़ी है, पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामी हैं, पर नहीं जानते कि इससे जुड़ी मर्यादाएं भी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने के जोखिम भी हैं।

अभिव्यक्ति की आज़ादी

अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन टीवी पर अभद्र भाषा बोलने की आजादी नहीं दी जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 19(1) ए के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं है। उसपर विवेकशील पाबंदियाँ हैं। सिनेमाटोग्राफिक कानूनों के तहत सेंसरशिप की व्यवस्था भी है। पर समाचार मीडिया को लाइव प्रसारण की जो छूट मिली है, उसने अति कर दी है। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया बिना रेग्युलेशन के काम कर रहे हैं। उनका नियमन होना चाहिए। इन याचिकाओं पर अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी। कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया है कि वह स्पष्ट करे कि क्या वह हेट-स्पीच पर अंकुश लगाने के लिए विधि आयोग की सिफारिशों पर कार्रवाई करने का इरादा रखती है।

परिभाषा नहीं

देश में हेट-स्पीच से निपटने के लिए कई तरह के कानूनों का इस्तेमाल होता है, पर किसी में हेट-स्पीच को परिभाषित नहीं किया गया है। केंद्र सरकार अब पहले इसे परिभाषित करने जा रही है। विधि आयोग की सलाह है कि जरूरी नहीं कि सिर्फ हिंसा फैलाने वाली स्पीच को हेट-स्पीच माना जाए। इंटरनेट पर पहचान छिपाकर झूठ और आक्रामक विचार आसानी से फैलाए जा रहे हैं। ऐसे में भेदभाव बढ़ाने वाली भाषा को भी हेट-स्पीच के दायरे में रखा जाना चाहिए। सबसे ज्यादा भ्रामक जानकारियां फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप जैसे प्लेटफॉर्मों के जरिए फैलती हैं। इनके खिलाफ सख्त कानून बनने से कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुलेगा, पर फ्री-स्पीच के समर्थक मानते हैं कि एंटी-हेट-स्पीच कानून का इस्तेमाल विरोधियों की आवाज दबाने के लिए किया जा सकता है।

Sunday, September 18, 2022

लाइक करवा लो!

फेसबुक, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया पर लाइक के बटन का मतलब है बात अच्छी लगी। फेसबुक लेखक अपनी पोस्ट पर विपरीत टिप्पणियाँ पसंद नहीं करते, लाइक पसंद करते हैं। इसकी वजह से अक्सर 'लाइक-बटोर लेखकों' के बीच प्रतियोगिता चलती रहती है।

'लाइक-सहयोग समझौतों' का चलन भी है। तू मेरी लाइक कर मैं तेरी करता हूँ। 'लाइक सहयोग परिषदें' और 'लाइक-मंडलियाँ' बन गईं हैं। अलाँ-फलाँ-लाइक संघ। अलाँ-फलाँ जैकारा समाज। अलाँ-फलाँ गरियाओ समाज भी है।

जब लाइक-प्रिय लेखक को पर्याप्त लाइक नहीं मिलते तो वह अपने भक्तों को ब्लॉक करने की धमकी देने लगता है। लाइक में गुण बहुत हैं। किसी को खुश करना है तो उसकी अल्लम-गल्लम को लाइक कर दीजिए। नाराज़ करना है तो उसकी 'महान-रचना' की अनदेखी कर दीजिए।

एक नया 'लाइक समुदाय' पैदा हो गया है। फेसबुक साहित्य की इस प्रवृत्ति को देखते हुए हिंदी विभागों को चाहिए कि लाइक की अधुनातन प्रवृत्तियों पर शोध कराएं। 'इक्कीसवीं सदी के दशोत्तरी पोस्ट लेखन में लाइक-प्रवणता: झुमरी तलैया के दस फेसबुक लेखकों का एक तुलनात्मक अध्ययन।'

कई साल पहले लिखी यह पोस्ट मामूली संशोधन के साथ फिर से लगा दी है, क्योंकि प्रासंगिक लग रही है। मैं इसमें दो बातें और जोड़ना चाहता हूँ। मैंने कई साल पहले जब यह पोस्ट लिखी थी, तब लाइक के साथ हँसने वाले इमोजी नहीं लगते थे। अब लगने लगे हैं।

इसे पढ़े-लिखों यानी अंग्रेजी के जानकारों की भाषा में lol कहते हैं। आँसू बहाने वाला भी है। यानी कि अब यह केवल इस बात की रसीद नहीं है कि पढ़ लिया या देख लिया। अब का मामला है कि मजा आ गया, परेशान हैं या दुखी हो गए।

फेसबुक और ट्विटर ने अभी तक ऐसा बटन नहीं बनाया है कि बहुत वाहियात बात लिख दी। सत्यानाश हो तेरा वगैरह। बनाया होता, तो न जाने क्या हो जाता। अलबत्ता आज के मार्केटिंग युग में ये लाइक टीआरपी की तरह आपकी बिक्री का पता भी देते हैं। कितना माल उठा?

शायद मंदी का पता भी इसी से लगता है। इस पोस्ट को फेसबुक पर लगाया, तो किसी ने अपनी प्रतिक्रिया में ऊपर वाला कार्टून (चप्पल मारूँ क्या?) लगा दिया। यानी इस विषय पर काफी लोग काम कर भी रहे हैं। चप्पल-जूते, थप्पड़ और लातों की जरूरत भी है। 

समरकंद में बढ़ा भारत का रसूख


वैश्विक राजनीति और भारतीय विदेश-नीति की दिशा को समझने के लिए समरकंद में हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के संवाद पर ध्यान देना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रूसी राष्ट्रपति पुतिन की आमने-सामने की बैठक ने दुनिया के मीडिया ने ध्यान खींचा है। मोदी ने प्रकारांतर से पुतिन से कह दिया कि आज लड़ाइयों का ज़माना नहीं है। यूक्रेन की लड़ाई बंद होनी चाहिए। पुतिन ने जवाब दिया कि मैं भारत की चिंता को समझता हूँ और लड़ाई जल्द से जल्द खत्म करने का प्रयास करूँगा। इन दो वाक्यों में छिपे महत्वपूर्ण संदेश को पढ़ें। भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति को रूस, चीन और अमेरिका की स्वीकृति और असाधारण सम्मान मिला है। इस साल फरवरी में रूस और यूक्रेन के बीच शुरू हुए संघर्ष के बाद दोनों नेताओं के बीच पहली मुलाकात थी। दोनों के बीच कई बार फ़ोन पर बातचीत हुई है।

समरकंद का संदेश

भारत ने यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस की आलोचना नहीं की है, पर यह संदेश महत्वपूर्ण है। युद्ध के मोर्चे पर रूस थक रहा है। चीन भी रूस से दूरी बना रहा है। मोदी-पुतिन वार्ता से पहले शी चिनफिंग ने भी पुतिन से कहा कि हम युद्ध को लेकर चिंतित हैं। इस साल जनवरी-फरवरी में रूस-चीन रिश्ते आसमान पर थे, तो वे अब ज़मीन पर आते दिखाई पड़ रहे हैं। अलबत्ता चीन का प्रभाव मध्य एशिया के देशों पर है। उसके वन बेल्ट, वन रोड कार्यक्रम का भारत को छोड़ सभी देश समर्थन करते हैं। संयुक्त घोषणापत्र में इसका उल्लेख है। भारत के साथ ये देश कारोबार चाहते हैं, पर पाकिस्तान जमीनी रास्ता देने को तैयार नहीं हैं। मोदी ने अपने वक्तव्य में पारगमन सुविधा का जिक्र किया है।  

भारत की भूमिका

इस संगठन में चीन और रूस के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है, जिसका कद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है। एससीओ भी धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन बनता जा रहा है। भारत की दिलचस्पी अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के अलावा आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में है। सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना चाहते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में इस साल 7.5 फीसदी की वृद्धि की उम्मीद है जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक होगी। उन्होंने मिलेट्स यानी बाजरे का भी ज़िक्र किया और कहा, दुनिया की खाद्य-समस्या का एक समाधान यह भी है। इसकी खेती में लागत कम होती है। इसे एससीओ देशों के अलावा दूसरे देशों में हज़ारों साल से उगाया जाता रहा है। एससीओ देशों के बीच आयुर्वेद और यूनानी जैसी पारंपरिक औषधियों का सहयोग बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए भारत पारंपरिक दवाओं पर एक नया एससीओ वर्किंग ग्रुप बनाने की पहल करेगा।

अगला अध्यक्ष

भारत को एससीओ के अगले अध्यक्ष के रूप में मनोनीत किया गया है। अगला शिखर सम्मेलन अब 2023 में भारत में होगा। एससीओ में नौ देश पूर्ण सदस्य हैं-भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान, क़ज़ाक़िस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ईरान। ईरान की सदस्यता अगले साल अप्रेल से मानी जाएगी। तीन देश पर्यवेक्षक हैं-अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस और मंगोलिया। छह डायलॉग पार्टनर हैं-अजरबैजान, आर्मीनिया, कंबोडिया, नेपाल, तुर्की, श्रीलंका। नए डायलॉग पार्टनर हैं-सऊदी अरब, मिस्र, क़तर, बहरीन, मालदीव, यूएई, म्यांमार। शिखर सम्मेलन में इनके अलावा आसियान, संयुक्त राष्ट्र और सीआईएस के प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है। मूलतः यह राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग का संगठन है, जिसकी शुरुआत चीन और रूस के नेतृत्व में यूरेशियाई देशों ने की थी। अप्रैल 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान जातीय और धार्मिक तनावों को दूर करने के इरादे से आपसी सहयोग पर राज़ी हुए थे। इसे शंघाई फाइव कहा गया था। इसमें उज्बेकिस्तान के शामिल हो जाने के बाद जून 2001 में शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना हुई। पश्चिमी मीडिया मानता है कि एससीओ का मुख्य उद्देश्य नेटो के बराबर खड़े होना है। भारत इसमें सबसे बड़ी संतुलनकारी शक्ति के रूप में उभर कर आ रहा है।

चीनी तेवर ढीले

चीन के तेवर ढीले पड़े हैं। एससीओ का प्रवर्तन चीन ने किया है। वह अपने राजनयिक-प्रभाव का विस्तार करने के लिए इस संगठन का इस्तेमाल करना चाहता है। साथ ही यह भी लगता है कि पश्चिमी देशों का दबाव उसपर बहुत ज्यादा है। उसकी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ रही है। समरकंद में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ भी मौजूद थे, लेकिन सम्मेलन में औपचारिक भेंट के अलावा इन दोनों से पीएम मोदी की अलग से मुलाक़ात नहीं हुई। ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से मुलाकात जरूर हुई। पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि पूर्वी लद्दाख के कुछ इलाकों में हाल में हुई सेनाओं की वापसी के बाद शायद शी चिनफिंग और शहबाज़ शरीफ से उनकी सीधी बात हो। चीन और पाकिस्तान के प्रति अपने रुख को नरम करने के लिए भारत तैयार नहीं है। भारत-चीन सीमा पर तनाव कम करने के लिए दोनों पक्षों में कोर कमांडर स्तर पर बातचीत के 16 दौर हो चुके हैं, लेकिन तनाव पूरी तरह कम नहीं हो सका है।

पाकिस्तान से रिश्ते

पाकिस्तान के साथ भी भारत के रिश्ते बीते कई साल से बिगड़ते गए हैं। 2019 में पुलवामा-बालाकोट हमलों और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद दोनों देशों के राजनयिकों को वापस बुला लिया गया और सभी व्यापार संबंधों को रद्द कर दिया गया। करतारपुर कॉरिडोर के ज़रिए संबंधों को पटरी पर लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी बंद करने का समझौता हुआ था, जिसके बाद उम्मीदें बढ़ी थीं कि दोनों के कारोबारी रिश्ते फिर से शुरू होंगे, पर पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति के कारण वह भी संभव नहीं हुआ। इमरान ख़ान के बाद शहबाज़ शरीफ़ जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भारत के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के संकेत दिए थे। वे समरकंद में मौजूद थे, पर वहाँ से किसी नई पहल की खबर नहीं मिली है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

इस दौरान भारतीय विदेश-नीति की दृढ़ता और स्वतंत्र-राह स्थापित हो रही है। हाल में चीनी मीडिया के हवाले से खबर थी कि चीनी जनता मानती है कि भारत अमेरिका की पिट्ठू नहीं है, जैसाकि वहाँ की सरकार दावा करती है। पिछले दो-तीन वर्षों में भारत ने रूस के सामने भी इस बात को दृढ़ता से रखा है कि हमारी दिलचस्पी राष्ट्रीय-हितों में है। हम किसी के पिछलग्गू नहीं हैं और दब्बू भी नहीं हैं। अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने रूसी एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम को अपने यहाँ स्थापित कर लिया है। दूसरी तरफ अमेरिका को भी आश्वस्त किया है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों से आबद्ध हैं और चीनी आक्रामकता से दबने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका ने हाल में पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के कल-पुर्जे सप्लाई करने का फैसला किया है, जिसका भारत ने पुरज़ोर विरोध किया है।  

राष्ट्रहित सर्वोपरि

अपनी रक्षा-व्यवस्था को लेकर हम किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगे। हिंद प्रशांत क्षेत्र में हम क्वॉड में शामिल हैं। सुदूर पूर्व में जापान के साथ हमारी दोस्ती भी बहुत मजबूत है। समरकंद सम्मेलन के एक हफ्ते पहले भारत और जापान के बीच टू प्लस टू वार्ता हुई है, जिसमें कारोबारी रिश्तों के साथ-साथ सहयोग पर भी विचार किया गया। बंगाल की खाड़ी में 11 सितंबर से शुरू हुआ जिमेक्स (जापान-इंडिया मैरीटाइम एक्सरसाइज़) नौसैनिक युद्धाभ्यास चल रहा है, जो 22 सितंबर तक चलेगा। हर साल होने वाले मालाबार-युद्धाभ्यास में अब भारत और अमेरिका के अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं। दूसरी तरफ भारत ने रूसी युद्धाभ्यास वोस्तोक-2022 में भी भाग लिया, जो 30 अगस्त से 5 सितंबर तक चला। इसमें चीन भी शामिल था। इस अभ्यास में तीनों तरह के बलों का इस्तेमाल करते हुए उसे आतंकवाद-विरोधी अभ्यास बताया गया। यह अभ्यास रूस के सुदूर पूर्व और जापान सागर में दक्षिणी कुरील द्वीप समूह (जिस पर जापान और रूस दोनों अपना दावा करते हैं) के निकटवर्ती क्षेत्र में हुआ था। भारत ने इस युद्धाभ्यास में गोरखा रेजिमेंट की थलसेना की एक टुकड़ी को भेजा, पर जापान की संवेदनशीलता को देखते हुए नौसैनिक अभ्यास से खुद को अलग रखा और अपने पोत नहीं भेजे। यह बात राजनयिक सूझ-बूझ और स्वतंत्र विदेश-नीति को रेखांकित करती है। रूसी-चीनी गरमाहट के बावजूद हमने रूस से किनाराकशी नहीं की।

रूस-चीन ठंडापन

दूसरी तरफ रूस और चीन के रिश्ते कुछ महीने पहले जितने सरगर्म लग रहे थे, उतने इस समय नज़र नहीं आ रहे हैं। इस साल क शुरु में रूस और चीन के नेताओं ने कहा था कि हमारी दोस्ती की कोई सीमा नहीं है, पर समरकंद में रिश्ते ठंडे पड़ते दिखाई पड़े। इस सम्मेलन में शी जिनपिंग ने यूक्रेन युद्ध का ज़िक्र भी नहीं किया। पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहे रूस की चीन ने किसी किस्म की आर्थिक सहायता नहीं की। उसने रूस की सीधे तौर पर मदद करने से खुद को रोका, ताकि अपनी अर्थव्यवस्था को पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के असर से बचा सके। पश्चिमी देशों के साथ चीन अपने रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहता, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था पश्चिम से जुड़ी है।

हरिभूमि में प्रकाशित

Thursday, September 15, 2022

असली-नकली लोकतंत्र की बहस में भारत


इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हम इस बात पर बहस कर रहे हैं कि लोकतंत्र क्या है. दिसंबर, 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘डेमोक्रेसी समिट’ का आयोजन किया था, जिसके जवाब में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा कि असली और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चीन में है.

हम मानते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है, पर इकोनॉमिस्ट के डेमोक्रेसी इंडेक्स में भारत को उतना अच्छा स्थान नहीं दिया जाता, जितना हम चाहते हैं. पश्चिम में हमारी आलोचना हो रही है. वैसे ही जैसे 1975-77 की इमर्जेंसी के दौर में हुई थी.

सूप बोले तो बोले…

कुछ साल पहले, जब हम भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर बहस कर रहे थे एक अख़बार में खबर छपी कि चीन के लोग मानते हैं कि भारत के विकास के सामने सबसे बड़ा अड़ंगा है लोकतंत्र. कई चीनी अख़बारों ने इस आशय की टिप्पणियाँ कीं कि भारत का छुट्टा लोकतंत्र उसके पिछड़ेपन का बड़ा कारण है.

कुछ साल पहले नीति आयोग के तत्कालीन सीईओ अमिताभ कांत ने कहा, 'हमारे देश में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है.' 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था कि अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता.

चीनी आर्थिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण वहाँ की निरंकुश राजनीतिक व्यवस्था है. क्या हमें भी वैसी व्यवस्था चाहिए? सिंगापुर की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ की राजनीतिक संस्कृति है. वहाँ छोटे-छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगाए जाते हैं.

जागरूक लोकतंत्र

सिस्टम के अलावा लोकतंत्र की इकाई के रूप में नागरिकों की गुणवत्ता भी उसकी सेहत तय करती है. लोकतंत्र की वैश्विक पहल 1988 में फिलिपीन्स के राष्ट्रपति एक्विनो ने शुरू की थी. उनके देश में फर्दिनांद मार्कोस के नेतृत्व में 20 साल से चली आ रही तानाशाही का अंत हुआ था, जिसका उत्सव मनाने के लिए एक्विनो ने जनशक्ति क्रांति या पीपुल पावर रिवॉल्यूशन नाम से यह पहल शुरू की थी.

16 सितंबर 1997 को इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) ने लोकतंत्र का सार्वभौमिक घोषणापत्र जारी किया, जिसका फैसला उसके एक दिन पहले काहिरा सम्मेलन में किया गया था. दस साल बाद 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल 15 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक दिवस मनाने का फैसला किया. इसका उद्देश्य है कि दुनिया में जागरूकता फैलाना.

हमारी सफलता

हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है. इस सफलता के बावजूद हमारे लोकतंत्र को लेकर कुछ सवाल हैं.

Tuesday, September 13, 2022

महंगाई बढ़ने से चिंता


सोमवार को जारी किए गए डेटा के अनुसार अगस्त के महीने में भारत की खुदरा मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 7 फीसदी हो गई है, जो जुलाई में 6.71 प्रतिशत और पिछले साल अगस्त में 5.3 प्रतिशत थी। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने हाल में उम्मीद जाहिर की थी, यह दर गिरकर 6 फीसदी से नीची हो जाएगी, पर उनका अनुमान गलत साबित हुआ है। जुलाई के महीने में देश का खुदरा मूल्य सूचकांक (सीपीआई-सी) 6.71 हो गया था, जो पिछले पाँच महीनों में सबसे कम था।

अच्छी संवृद्धि और मुद्रास्फीति में क्रमशः आती गिरावट से उम्मीदें बढ़ी थीं, पर लगता है कि रिजर्व बैंक को पहले महंगाई से लड़ना होगा। मुद्रास्फीति में तेजी से केंद्रीय बैंक पर इस महीने के आखिर में नीतिगत दरों में बढ़ोतरी करने का दबाव बढ़ सकता है भले ही जुलाई में औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट क्यों न दिखी हो।

खाद्य-वस्तुओं में तेजी

इस साल अप्रैल में यह 7.79 प्रतिशत हो गई थी, जो पिछले आठ साल का उच्चतम स्तर था। उसके बाद से इसमें गिरावट देखने को मिली है, पर अगस्त में आई तेजी चिंताजनक है। महंगाई बढ़ने का प्रमुख कारण बारिश सामान्य नहीं होने से अनाज और सब्जियों के दाम में तेजी है। अचानक गर्मी बढ़ने से उत्पादन प्रभावित होने के कारण गेहूं की मुद्रास्फीति पहले से दहाई अंक में है। वहीं कम मॉनसूनी बारिश के कारण धान की बुवाई का रकबा कम होने से उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका है। इन दोनों कारणों से अनाज की महंगाई दर ऊंची बनी रहने की आशंका है।

स्थिर कीमत पर आधारित सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) चालू वित्त वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में 12.7 फीसदी बढ़ा, जबकि नॉमिनल जीडीपी में 26.7 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, जो अर्थव्यवस्था में ऊँची मुद्रास्फीति के असर को दर्शाता है। इसका मतलब है कि खुदरा महंगाई भले ही क़ाबू में दिख रही हो, असली महंगाई सुरसा की तरह मुंह खोले खड़ी है। रिजर्व बैंक को इस समस्या के समाधान पर विचार करना होगा।

ब्याज दरों पर असर

इस महीने 30 सितंबर को रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की बैठक होने वाली है। अनुमान है कि बैंकों की ब्याज दरों में 25 से 35 आधार अंकों (बीपीएस) की बढ़ोतरी हो सकती है। पर अगस्त महीने के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को देखते हुए लगता है कि ब्याज दरें बढ़ेंगी। इससे सिस्टम में तरलता कम होगी और औद्योगिक उत्पादन प्रभावित होगा।

अभी 21 सितंबर को अमेरिकी फेडरल बैंक की ब्याज दरों की घोषणा होगी। रिजर्व बैंक को इस घोषणा का भी इंतजार है। उसका असर भारत में विदेशी पूँजी-निवेश पर पड़ेगा। रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को 2-6 प्रतिशत के बीच रखना चाहता है। फिलहाल ऐसा होता नजर आ नहीं रहा है।

रिज़र्व बैंक जब से महंगाई को कम करने की कोशिश कर रहा है, तब से यह दूसरी बार है जब खुदरा मुद्रास्फीति आरबीआई के छह प्रतिशत की ऊपरी सीमा से लगातार आठवें महीने ऊपर बनी हुई है। इससे पहले अप्रैल, 2020 से नवंबर, 2020 के दौरान यह स्थिति देखने को मिली थी। विनिर्माण, बिजली और खनन जैसे क्षेत्रों में खराब प्रदर्शन के कारण देश में औद्योगिक उत्पादन (आईआईपी) की वृद्धि दर जुलाई में सुस्त पड़कर चार महीने के निचले स्तर 2.4 प्रतिशत पर आ गई। पिछले महीने जून में यह 12.7 प्रतिशत थी।

सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, विनिर्माण क्षेत्र में इस साल जुलाई में 3.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो चार महीने का निचला स्तर है। बिजली क्षेत्र में 2.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो छह महीने का निचला स्तर है। खनन क्षेत्र में कोयला उत्पादन बढ़ने के बावजूद 16 महीने के अंतराल के बाद जुलाई में 3.3 प्रतिशत की गिरावट आई।

ग्रामीण महंगाई

अगस्त में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के कारण ईंधन महंगाई दर घटकर 10.78 फीसदी रह गई लेकिन अनाज, फल एवं सब्जियां और मसाले में तेजी दर्ज की गई। महीने के दौरान अजान की कीमतों में 9.6 फीसदी, फल की कीमतों में 7.4 फीसदी, सब्जियों की कीमतों में 7.4 फीसदी और मसालों की कीमतों में 14.9 फीसदी की वृद्धि हुई है। जहां तक सेवाओं का सवाल है तो शिक्षा और घरेलू वस्तुएं एवं सेवाएं अगस्त में कहीं महंगी हो गईं।

 

अगस्त में ग्रामीण महंगाई दर शहरी मुद्रास्फीति के मुकाबले अधिक रही। महीने के दौरान ग्रामीण महंगाई दर 7.15 फीसदी रही जबकि शहरी महंगाई दर 6.7 फीसदी दर्ज की गई। राज्यों के बीच पश्चिम बंगाल में 8.9 फीसदी, गुजरात में 8.2 फीसदी, तेलंगाना में 8.1 फीसदी और महाराष्ट्र में 7.99 फीसदी मुद्रास्फीति दर्ज की गई। इन राज्यों में मुद्रास्फीति राष्ट्रीय औसत से ऊपर रहीं। जबकि दिल्ली (4.2 फीसदी), हिमाचल प्रदेश (4.9 फीसदी) और कनार्टक (4.98 फीसदी) में महंगाई दर देश की औसत मुद्रास्फीति से कम रही।

औद्योगिक उत्पादन सुस्त

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि जुलाई में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) में वृद्धि की रफ्तार सुस्त पड़ गई। महीने के दौरान औद्योगिक उत्पादन सूचकांक घटकर महज 2.4 फीसदी रह गया जो एक महीना पहले 12.7 फीसदी रहा था। मॉनसूनी बारिश के कारण खनन गतिविधियां थमने से खनन उत्पादन में 3.3 फीसदी का संकुचन देखा गया। जबकि विनिर्माण उत्पादन में 3.2 फीसदी की वृद्धि हुई और बिजली उत्पादन में 2.3 फीसदी का इजाफा हुआ।

जहां तक उपयोग आधारित उद्योगों का सवाल है तो अर्थव्यवस्था में निवेश मांग का प्रतिनिधित्व करने वाले पूंजीगत वस्तु उद्योग में 5.8 फीसदी की वृद्धि हुई जबकि कंज्यूमर नॉन-ड्यूरेबल्स में 2 फीसदी का संकुचन दिखा जो ग्रामीण भारत में कमजोर मांग का संकेत देता है।

 

Sunday, September 11, 2022

‘मिशन 24’ की राजनीतिक यात्राएं


राष्ट्रीय-राजनीति का चुनाव-विमर्श अचानक तेज हो गया है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जिस दिन शुरू हो रही थी, उसके एक दिन पहले नीतीश कुमार दिल्ली में 2024 के चुनाव की संभावनाओं को लेकर मुलाकातें कर रहे थे। उन्होंने राहुल गांधी और राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा शरद पवार, एचडी कुमारस्वामी, ओम प्रकाश चौटाला, सीताराम येचुरी और दूसरे कुछ नेताओं से भी मुलाकात की। पार्टी उन्हें पीएम-उम्मीदवार के तौर पर पेश कर रही है, वहीं नीतीश कुमार ने दिल्ली में कहा कि मैं दावेदार नहीं बनना चाहता। सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास कर रहा हूँ। 4 सितंबर को रामलीला मैदान में हुई रैली में राहुल गांधी ने कहा कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है। यानी कि बीजेपी को हराना है तो उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व में ही आना होगा। पर विरोधी-खिचड़ियाँ अलग-अलग बर्तनों में पक रही हैं। विपक्ष बिखरा हुआ है, लेकिन एकजुटता की कोशिशें जारी है। इस एकता का एक प्रदर्शन 25 सितंबर को हरियाणा में हिसार के नजदीक विपक्ष की रैली में देखने को मिलेगा।

एकता के प्रयास

विरोधी राजनीति के नजरिए से बिहार में हुए राजनीतिक बदलाव के बाद संभावनाएं बेहतर हुई हैं। इसका संकेत ममता बनर्जी के ताजा बयान से मिलता है। उन्होंने कहा, नीतीश जी, अखिलेश, हेमंत और मेरा वादा है कि ये चार मिलकर बीजेपी को 2024 लोकसभा चुनाव में 100 सीटों पर रोक देंगे। इनमें से पश्चिम बंगाल में 42, बिहार में 40, उत्तर प्रदेश में 80 और झारखंड में 14 लोकसभा सीटे हैं। भाजपा कहती है कि उनके पास 300 सीटें हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी के पास 400 सीटें थीं लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस हार गई। बीजेपी भी हारेगी। इन राज्यों में उसे 100 सीटों का नुकसान होगा। देश के अन्य हिस्सों की पार्टियां भी जल्द ही हमारे साथ आएंगी। क्या बीजेपी को 100 सीटों पर रोका जा सकता है?

कांग्रेस से परहेज

ध्यान देने वाली बात है कि ममता बनर्जी ने राहुल गांधी, केजरीवाल, शरद पवार और चंद्रशेखर राव के नामों का उल्लेख नहीं किया है। क्या इस बयान को भविष्य के राजनीतिक गठजोड़ का संकेत मानें? या सिर्फ बयान मानें, जो माहौल बनाने के लिए है? सवाल तीन हैं। नंबर एक, क्या राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी एकता है? दो, क्या इस एकता में कांग्रेस भी शामिल है? और तीन, बीजेपी के पास इसकी काट की रणनीति क्या है? इन सवालों के आगे-पीछे अनेक किंतु-परंतु हैं। इंडियन नेशनल लोकदल अपने संस्थापक देवीलाल की जयंती पर 25 सितंबर को रैली का आयोजन कर रहा है। इसमें कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के कई नेताओं को निमंत्रण भेजा गया है। दूसरी तरफ हालांकि ममता बनर्जी विरोधी-एकता की समर्थक हैं, पर उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार माना है। कोलकाता में आयोजित पार्टी की बैठक के दौरान उन्होंने जिन दलों के नाम लिए उनमें कांग्रेस का नाम गायब था। यह भी साफ है कि बीजेपी को हराने के लिए लेफ्ट के साथ भी उनका गठबंधन नहीं होने वाला है।

भारत जोड़ो यात्रा

राहुल गांधी की यात्रा का उद्देश्य क्या है? कन्याकुमारी से यात्रा शुरू करते हुए राहुल गांधी ने दो तरह की बातें कहीं, यह मार्च राष्ट्रीय ध्वज के मूल्यों के तले सभी भारतीयों को एकजुट करने की कोशिश है, जिसका मूल सिद्धांत विविधता है। साथ ही यह भी कहा कि हिंदुत्व की विचारधारा के साए में ये मूल्य अब खतरे में हैं। ज़ाहिर है कि यह कांग्रेस को बचाने की कोशिश है और 2024 के चुनाव के पहले की राजनीतिक गतिविधि। यह यात्रा पार्टी के झंडे के पीछे नहीं चल रही है, बल्कि तिरंगे के पीछे है, पर संदेश राजनीतिक है और कांग्रेस के नेतृत्व में बनी योजना भी राजनीतिक है। अब इसे विरोधी एकता के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ जोड़कर देखें।

धुरी या परिधि?

विरोधी दलों की एकता में कांग्रेस कहाँ है? धुरी में या परिधि में? कांग्रेस साबित करना चाहती है कि यह एकता उसके नेतृत्व में ही संभव है, जबकि क्षेत्रीय स्तर पर दूसरे नेताओं को लगता है कि कांग्रेस अब नेतृत्व के लायक नहीं रही। डीएमके, राकांपा और शिवसेना जैसे दल कहते रहे हैं कि कांग्रेस के बिना विरोधी एकता संभव नहीं है, पर जल्द ही होने वाले बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में राकांपा और शिवसेना मिलकर लड़ेंगे। कांग्रेस उसमें शामिल नहीं होगी। महाराष्ट्र में सरकार गिरने के बाद महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की पहली बैठक में तीनों सहयोगी पार्टियों ने फैसला किया कि शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ेंगी, जबकि स्थानीय निकाय चुनावों को साथ लड़ने पर कोई सहमति नहीं बनी।

यात्रा की राजनीति

राहुल गांधी खुद को हिंदुत्व का सबसे मुखर आलोचक, संघवाद और उदारवाद का प्रवर्तक मानते हैं। पर चुनाव परिणामों को देखें, तो लगता है कि वे पर्याप्त जन समर्थन जुटाने की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस ने हिंदू-जनाधार को खो दिया है, जबकि बीजेपी ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। राहुल गांधी अब यात्रा के फॉर्मूले का इस्तेमाल करना चाहते हैं। अतीत में महात्मा गांधी, चंद्रशेखर, मुरली मनोहर जोशी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने इसका लाभ लिया है। क्या राहुल गांधी को इसका लाभ मिलेगा? आंशिक-परिणाम सामने आने में कुछ महीने लगेंगे और अंतिम-परिणाम 2024 के चुनाव के बाद आएंगे।  

Thursday, September 8, 2022

शेख हसीना की राजनीतिक सफलता पर निर्भर हैं भारत-बांग्लादेश रिश्ते


शेख हसीना और नरेंद्र मोदी की मुलाकात और दोनों देशों के बीच हुए सात समझौतों से ज्यादा चार दिन की इस यात्रा का राजनीतिक लिहाज से महत्व है. दोनों की कोशिश है कि विवाद के मसलों को हल करते हुए सहयोग के ऐसे समझौते हों, जिनसे आर्थिक-विकास के रास्ते खुलें.

 

बांग्लादेश में अगले साल के अंत में आम चुनाव हैं और उसके तीन-चार महीने बाद भारत में. दोनों चुनावों को ये रिश्ते भी प्रभावित करेंगे. दोनों सरकारें अपनी वापसी के लिए एक-दूसरे की सहायता करना चाहेंगी.  

 

पिछले महीने बांग्लादेश के विदेशमंत्री अब्दुल मोमिन ने एक रैली में कहा था कि भारत को कोशिश करनी चाहिए कि शेख हसीना फिर से जीतकर आएं, ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता कायम रहे. दो राय नहीं कि शेख हसीना के कारण दोनों देशों के रिश्ते सुधरे हैं और आज दक्षिण एशिया में भारत का सबसे करीबी देश बांग्लादेश है.

 

विवादों का निपटारा

असम के एनआरसी और हाल में रोहिंग्या शरणार्थियों से जुड़े विवादों और बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के भारत-विरोधी आंदोलनों के बावजूद दोनों देशों ने धैर्य के साथ मामले को थामा है.

 

दोनों देशों ने सीमा से जुड़े तकरीबन सभी मामलों को सुलझा लिया है. अलबत्ता तीस्ता जैसे विवादों को सुलझाने की अभी जरूरत है. इन रिश्तों में चीन की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर बांग्ला सरकार ने बड़ी सफाई से संतुलन बनाया है.

 

बेहतर कनेक्टिविटी

पाकिस्तान के साथ बिगड़े रिश्तों के कारण पश्चिम में भारत की कनेक्टिविटी लगभग शून्य है, जबकि पूर्व में काफी अच्छी है. बांग्लादेश के साथ भारत रेल, सड़क और जलमार्ग से जुड़ा है. चटगाँव बंदरगाह के मार्फत भारत अपने पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिण पूर्व के देशों से कारोबार कर सकता है.

 

इसी तरह बांग्लादेश का नेपाल और भूटान के साथ कारोबार भारत के माध्यम से हो रहा है. बांग्लादेश की इच्छा भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा भी है.

 

शेख हसीना सरकार को आर्थिक मोर्चे पर जो सफलता मिली है, वह उसका सबसे बड़ा राजनीतिक-संबल है. भारत के साथ विवादों के निपटारे ने इसमें मदद की है. इन रिश्तों में विलक्षणता है.

 

सांस्कृतिक समानता

दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं. 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस था, और आज भी दोनों के अंतर्विरोधी रिश्ते हैं. पर ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं.

 

बेशक वहाँ भी भारत-विरोध है, पर सरकार के नियंत्रण में है. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि पिछले एक दशक में शेख हसीना के कारण भारत का बांग्लादेश पर प्रभाव बहुत बढ़ा है. क्या यह मैत्री केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो कभी नेतृत्व बदला तो क्या होगा?

 

यह केवल हसीना शेख तक सीमित मसला नहीं है. अवामी लीग केवल एक नेता की पार्टी नहीं है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और.

 

आर्थिक सफलता

केवल साजिशों की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था.

मंटो का लेख ‘हिंदी और उर्दू’


आज़ादी के फौरन बाद के वर्षों की बात है। साहित्यकार सआदत हसन मंटो ने एक छोटी सी कथा लिखी, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम के शुरूआती दिनों से ही खड़े हो गए भाषा-विवाद पर टिप्पणी थी। हिंदी बनाम उर्दू बहस मंटो को अजीब लगी। उन्होंने इस बहस को लेमन-सोडा और लेमन-वॉटर की तुलना से समझाया।

हिंदी और उर्दूशीर्षक इस लेख में हिंदू-मुस्लिम अलगाव के बेतुके तर्कों पर रोशनी पड़ती है। गंगा-जमुनी संस्कृति पर इसे व्यंग्य के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। मंटो ने लिखा, मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इस का मतलब मेरे ज़ेहन में नहीं आया। हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं...? ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इनसानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं। भारत के जीवन, समाज और राजनीति में पैदा हुए विभाजन पर मैं एक किताब लिखना चाहता हूँ। विभाजन जिसने भाषा की शक्ल में जन्म लिया। उसी सिलसिले में इस लेख को रेख्ता से लिया है। आप इसे पढ़ें और अपने निष्कर्ष निकालें।

हिंदी और उर्दू

सआदत हसन मंटो

हिंदी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है। मौलवी अब्दुल-हक़ साहब, डाक्टर तारा चंद जी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इस का मतलब मेरे ज़ेहन में नहीं आया। हिंदी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं...? ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इनसानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं। मैंने इस ताज़ा और गर्मा-गर्म मौज़ू पर कुछ लिखना चाहा तो ज़ैल का मुकालमा तैयार हो गया।''

मुंशी निरावन प्रसाद-इक़बाल साहब ये सोडा आप पिएँगे?

मिर्ज़ा मुहम्मद इक़बाल जी। हाँ मैं पियूँगा।

मुंशी-आप लेमन क्यों नहीं पीते?

इक़बाल-यूं ही, मुझे सोडा अच्छा मालूम होता है। हमारे घर में सब सोडा ही पीते हैं।

मुंशी-तो गोया आपको लेमन से नफ़रत है।

इक़बाल-नहीं तो... नफ़रत क्यों होने लगी मुंशी निरावन प्रसाद... घर में चूँकि सब यही पीते हैं। इसलिए आदत सी पड़ गई है। कोई ख़ास बात नहीं बल्कि मैं तो समझता हूँ कि लेमन सोडे के मुक़ाबले में ज़्यादा मज़ेदार होता है।

मुंशी-इसीलिए तो मुझे हैरत होती है कि मीठी चीज़ छोड़कर आप खारी चीज़ क्यों पसंद करते हैं। लेमन में ना सिर्फ ये कि मिठास घुली होती है बल्कि ख़ुशबू भी होती है। आपका क्या ख़्याल है।

इक़बाल-आप बिलकुल बजा फ़रमाते हैं... पर।

Sunday, September 4, 2022

अर्थव्यवस्था का मंथर-प्रवाह


भारत की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 13.5 फीसदी बढ़ी है। सामान्य-दृष्टि से इस संख्या को बहुत उत्साहवर्धक माना जाएगा, पर वस्तुतः यह उम्मीद से कम है। विशेषज्ञों का  पूर्वानुमान 15 से 16 प्रतिशत का था, जबकि रिज़र्व बैंक को 16.7 प्रतिशत की उम्मीद थी।  अब इस वित्त वर्ष के लिए ग्रोथ के अनुमान को विशेषज्ञ 7.2 और 7.5 प्रतिशत से घटाकर 6.8 से 7.00 प्रतिशत मानकर चल रहे हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ओर से 31 अगस्त को जारी आँकड़ों के अनुसार जीडीपी की इस वृद्ध में सेवा गतिविधियों में सुधार की भूमिका है, बावजूद इसके व्यापार, होटल और परिवहन क्षेत्र की वृद्धि दर अब भी महामारी के पूर्व स्तर (वित्त वर्ष 2020 की जून तिमाही) से कम है। हालांकि हॉस्पिटैलिटी से जुड़ी गतिविधियों में तेजी आई है। जीडीपी में करीब 60 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले, उपभोग ने जून की तिमाही में 29 फीसदी की मजबूत वृद्धि दर्ज की।

नागरिक का भरोसा

उपभोक्ताओं ने पिछले कुछ समय में जिस जरूरत को टाला था, उसकी वापसी से निजी व्यय में इजाफा हुआ है। इससे इशारा मिलता है कि खर्च को लेकर उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ा है। ‘पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स’ (पीएमआई), क्षमता का उपयोग, टैक्स उगाही, वाहनों की बिक्री के आँकड़े जैसे सूचकांक बताते हैं कि इस वित्त वर्ष के पहले कुछ महीनों में वृद्धि की गति तेज रही। अगस्त में मैन्युफैक्चरिंग की पीएमआई 56.2 थी, जो जुलाई में 56.4 थी। यह मामूली वृद्धि है, पर मांग में तेजी और महंगाई की चिंता घटने के कारण वृद्धि को मजबूती मिली है। खाद्य सामग्री से इतर चीजों के लिए बैंक क्रेडिट में मजबूत वृद्धि भी मांग में सुधार का संकेत देती है। दूसरी तरफ सरकारी खर्च महज 1.3 फीसदी बढ़ा है। सरकार राजकोषीय घाटे को काबू करने पर ध्यान दे रही है।

बेहतरी की ओर

जीडीपी के ये आँकड़े अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर को पेश नहीं करते हैं, पर इनके सहारे काफी बातें स्पष्ट हो रही हैं। पहला निष्कर्ष है कि कोविड और उसके पहले से चली आ रही मंदी की प्रवृत्ति को हमारी अर्थव्यवस्था पीछे छोड़कर बेहतरी की ओर बढ़ रही है। पर उसकी गति उतनी तेज नहीं है, जितना रिजर्व बैंक जैसी संस्थाओं को उम्मीद थी। इसकी वजह वैश्विक-गतिविधियाँ भी हैं। घरेलू आर्थिक गतिविधियों में व्यापक सुधार अभी नहीं आया है। आने वाले समय में ऊँची महंगाई, कॉरपोरेट लाभ में कमी, मांग को घटाने वाली मौद्रिक नीतियों और वैश्विक वृद्धि की मंद पड़ती संभावनाओं के रूप में वैश्विक चुनौतियों का अंदेशा बना हुआ है। मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरें बढ़ने से अर्थव्यवस्था में तरलता की कमी आई है, जिससे पूँजी निवेश कम हुआ है। नए उद्योगों और कारोबारों के शुरू नहीं होने से रोजगार-सृजन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। इससे उपभोक्ता सामग्री की माँग कम होगी। सरकारी खर्च बढ़ने से इस कमी को कुछ देर के लिए ठीक किया जा सकता है, पर सरकार पर कर्ज बढ़ेगा, जिसका ब्याज चुकाने की वजह से भविष्य के सरकारी खर्चों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और विकास-योजनाएं ठप पड़ेंगी। इस वात्याचक्र को समझने और उसे दुरुस्त करने की एक व्यवस्था है। भारत सही रास्ते पर है, पर वैश्विक-परिस्थितियाँ आड़े आ रही हैं। अच्छी खबर यह है कि पेट्रोलियम की कीमतें गिरने लगी हैं।

Saturday, September 3, 2022

कांग्रेस की ‘सफाई’ या ‘सफाए’ की घड़ी

गुलाम नबी आज़ाद ने इस्तीफा ऐसे मौके पर दिया है, जब कांग्रेस पार्टी बड़े जनांदोलन की तैयारी कर रही है। 4 सितंबर को दिल्ली में महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ रैली है। 7 सितंबर से राहुल गांधी भारत-जोड़ो यात्रा पर निकलने वाले हैं। यह यात्रा महात्मा गांधी की यात्राओं की याद दिला रही हैं। क्या गांधी की तरह राहुल भी इस देश का मन जीतने में समर्थ होंगे?  

इस दौरान पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा, जिसका कार्यक्रम घोषित कर दिया गया है। यह तय है कि नया अध्यक्ष गैर-गांधी होगा, पर एकछत्र नेता राहुल गांधी ही होंगे। नया अध्यक्ष चरण-पादुका धरे भरत की भूमिका में होगा। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की परीक्षा गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में होगी।

पार्टी के तीन मसले हैं। नेतृत्व, संगठन और विचारधारा या नैरेटिव। तीनों का अब एक स्रोत होगा, सर्वोच्च नेता। 1969 के बाद पार्टी का यह एक और रूपांतरण है। वह कैसा होगा, इसका अभी केवल अनुमान लगाया जा सकता है। मई 2014 में चुनाव हारने के बाद कार्यसमिति की बैठक में बाउंसबैक की उम्मीद जाहिर की गई थी। उस बात को आठ साल से ज्यादा समय हो चुका है और पार्टी लड़खड़ा रही है।

इस साल फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ते हुए कहा था कि जल्द ही दूसरे कई नेता कांग्रेस छोड़ेंगे और सोनिया गांधी जानती हैं कि क्यों छोड़ेंगे। पलायन का यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से चल रहा है, पर किसी ने अपनी बात को ऐसी कड़वाहट के साथ नहीं कहा, जैसा गुलाम नबी आजाद ने कहा है। जयराम रमेश ने उन्हें मोदी-फाइड बताया है।