भारत-जोड़ो यात्रा से हासिल अनुभव और आत्मविश्वास राहुल गांधी के राजनीतिक कार्य-व्यवहार में नज़र आने लगा है। पिछले मंगलवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में उनका भाषण इस यात्रा को रेखांकित कर रहा था। उन्होंने कहा, हमने हजारों लोगों से बात की और जनता की आवाज़ हमें गहराई से सुनाई पड़ने लगी। यात्रा हमसे बात करने लगी। किसानों ने पीएम-बीमा योजना के तहत पैसा नहीं मिलने की बात कही। आदिवासियों से उनकी जमीन छीन ली गई। उन्होंने अडानी का मुद्दा भी उठाया।
राहुल गांधी की संवाद-शैली में नयापन था। वे
कहना चाह रहे थे कि देश ने जो मुझसे कहा, उन्हें मैं संसद में रख रहा हूँ। ये
बातें जनता ने उनसे कहीं या नहीं कहीं, यह अलग विषय है, पर एक कुशल राजनेता के रूप
में उन्होंने अपनी यात्रा का इस्तेमाल किया। उनके भाषण से वोटर कितना प्रभावित
हुआ, पता नहीं। इसका पता फौरन लगाया भी नहीं जा सकता। फौरी तौर पर कहा जा सकता है
कि यात्रा के कारण पार्टी की गतिविधियों में तेजी आई है, कार्यकर्ताओं और पार्टी
के स्वरों में उत्साह और आत्मविश्वास दिखाई पड़ने लगा है।
यात्रा का लाभ
राहुल गांधी ने ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ को राजनीतिक-यात्रा के रूप में परिभाषित नहीं किया था। यात्रा राष्ट्रीय-ध्वज
के पीछे चली, पार्टी के झंडे तले नहीं। देश में यह पहली राजनीतिक-यात्रा भी नहीं
थी। महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से लेकर आंध्र प्रदेश के एनटी रामाराव, राजशेखर
रेड्डी, चंद्रशेखर और सुनील दत्त, नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर
जोशी जैसे नेता तक अपने-अपने संदेशों के साथ अलग-अलग समय पर यात्राएं कर चुके हैं।
बेशक इनका असर होता है।
घोषित मंतव्य चाहे जो रहा है, अंततः यह राजनीतिक-यात्रा थी। सफल थी या नहीं, यह सवाल भी अब पीछे चला गया है। अब असल सवाल यह है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलेगा? मिलेगा तो कितना, कब और किस शक्ल में? सत्ता की राजनीति चुनावी सफलता के बगैर निरर्थक है। जब यात्रा शुरु हो रही थी तब ज्यादातर पर्यवेक्षकों का सवाल था कि इससे क्या कांग्रेस का पुनर्जन्म हो जाएगा? क्या पार्टी इस साल होने वाले विधानसभा के चुनावों में और 2024 के लोकसभा चुनाव में सफलता पाने में कामयाब होगी?