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Sunday, May 29, 2022

अब कैसे रुकेगी यूक्रेन में लड़ाई?

यूक्रेन युद्ध के तीन महीने पूरे हो चुके हैं और नतीजा सिफर है। हमला उत्तर से हुआ, फिर दक्षिण में और अब पूर्व। रूसी रणनीति तेजी से सफलता हासिल करने की थी, पर अब वह सीमित सफलता से ही संतोष करना चाहता है। वह भी मिल नहीं रही। दोनों अपनी सफलताओं की घोषणा कर रहे हैं, पर ऐसी सफलता किसी को नहीं मिली, जिसके बाद लड़ाई खत्म हो। रूस ने कई इलाकों पर कब्जा किया है, पर उसे विजय नहीं माना जा सकता।

पिछले हफ्ते इकोनॉमिस्टने रूसी राजनीति-शास्त्री आन्द्रे कोर्तुनोव की राय को प्रकाशित किया। उन्होंने युद्ध रुकने की तीन परिस्थितियों की कल्पना की है। वे कहते हैं, यह जातीय युद्ध नहीं है। रूसी और यूक्रेनी मूल के लोग दोनों तरफ हैं। यूक्रेनी लोगों के मन में कोई उग्र राष्ट्रवादी विचार नहीं हैं। यह मज़हबी लड़ाई भी नहीं है। दोनों सेक्युलर देश हैं। धार्मिक-चेतना कहीं नज़र भी आ रही है, तो पनीली है। झगड़ा जमीन का भी नहीं है।

दो दृष्टिकोणों का टकराव

उनके अनुसार यह ऐसे दो देशों के सामाजिक-राजनीतिक तौर-तरीकों को लेकर झगड़ा है, जो कुछ समय पहले तक एक थे। दो मनोदशाओं का टकराव। अंतरराष्ट्रीय-व्यवस्था और विश्व-दृष्टि का झगड़ा। उन्होंने लिखा, यह नहीं मान लेना चाहिए कि यूक्रेन पूरी तरह पश्चिमी उदार-लोकतंत्र में रंग गया है, पर वह उस दिशा में बढ़ रहा है। रूस भी पारम्परिक एशियाई या यूरोपियन शैली का निरंकुश-राज्य नहीं है। अलबत्ता पिछले बीस वर्षों में वह उदार लोकतांत्रिक-व्यवस्था से दूर जाता नजर आ रहा है।

यूक्रेनी समाज नीचे से ऊपर की ओर संगठित हो रहा है, रूसी समाज ऊपर से नीचे की ओर। सन 1991 में स्वतंत्र होने के बाद से यूक्रेन ने छह राष्ट्रपतियों को चुना है। हरेक ने कड़े चुनाव के बाद और कई बार बेहद नाटकीय तरीके से जीत हासिल की। इस दौरान रूस ने केवल तीन शासनाध्यक्षों को देखा। हर नए शासनाध्यक्ष को उसके पूर्ववर्ती ने चुना।

सोवियत व्यवस्था से निकले दो देशों के इस फर्क को लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं। इतना स्पष्ट है कि रूस ताकतवर है, जबकि यूक्रेन को अंतरराष्ट्रीय हमदर्दी हासिल है। रूस आक्रामक है और यूक्रेन रक्षात्मक। रूसी विशेषज्ञ मानते हैं कि यूक्रेन की रक्षात्मक रणनीति के पीछे पश्चिमी देशों की सैन्य-सहायता का हाथ है, पर इस जिजीविषा के कारण भी कहीं हैं। याद रखें, अमेरिका की जबर्दस्त सैनिक-आर्थिक सहायता अफगानिस्तान में तालिबान को रोक नहीं पाई।  

Thursday, March 17, 2022

लड़ाई लम्बी चली तो चक्रव्यूह में फँस जाएगा रूस

यूक्रेन की लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं, वैश्विक-राजनीति के अनसुलझे प्रश्न भी हैं। संयुक्त राष्ट्र क्या उपयोगी संस्था रह गई है? वैश्वीकरण का क्या होगा, जो नब्बे के दशक में धूमधाम से शुरू हुआ था? रूस चाहता क्या है? किस शर्त पर यह लड़ाई खत्म होगी? रूस और पश्चिमी देशों से ज्यादा महत्वपूर्ण है यूक्रेन की जनता। व्लादिमीर पुतिन ने कई बार कहा है कि यूक्रेन हमारा है, पर यह गलतफहमी है। नागरिकों का एक वर्ग रूस के साथ है, पर ज्यादा बड़ा तबका स्वतंत्र यूक्रेनी राष्ट्रवाद का समर्थक है।

लड़ाई खत्म कैसे हो?

रूस को लड़ाई खत्म करने के लिए बहाने की जरूरत है। अमेरिका और नेटो क्या यूक्रेन को तटस्थ बनाने पर राजी हो जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं? पुतिन के मन को पढ़ना आसान नहीं, पर उनके गणित को पढ़ा जा सकता है। उन्हें लगता है कि अमेरिका ढलान पर है। नए राष्ट्रपति के चुनौतियाँ हैं। आंतरिक राजनीति-विभाजित है। अपनी कमजोरियों की वजह से वह अफगानिस्तान से भागा। सीरिया से सेना हटाई। नेटो भी विभाजित है। जर्मनी ने नाभिकीय ऊर्जा का परित्याग करके खुद को रूसी गैस पर निर्भर कर लिया है। फ्रांस अपने राष्ट्रपति के चुनाव में फँसा है और यूके कोविड-19, ब्रेक्जिट और बोरिस जॉनसन के अजब-गजब तौर-तरीकों का शिकार है।

रूस आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिएगा कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू हो गया है। पर लड़ाई जारी रखना रूस के लिए नुकसानदेह है। वह चक्रव्यूह में फँसता जाएगा। अमेरिका ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का इंतजाम किया है। ठेके पर सैनिक मुहैया करने वाली ब्लैकवॉटर जैसी संस्थाओं ने यूक्रेन में मोर्चे संभाल लिए हैं। रूस के वैग्नर ग्रुप के भाड़े के सैनिक भी यूक्रेन में सक्रिय हैं। संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों का दबाव है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। खबरें हैं कि पश्चिमी देश रूसी तेल की खरीद पर रोक लगाने जा रहे हैं। इन बातों से निपटना आसान नहीं है।

चीन का सहारा

रूस ने इस लड़ाई के पहले अपने आप को आर्थिक-प्रतिबंधों के लिए भी तैयार कर लिया था। पिछले दिसंबर में उसका विदेशी मुद्राकोष 630 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर था। उसे विश्वास है कि चीन का राजनयिक-समर्थन उसके साथ है और जरूरत पड़ी, तो आर्थिक सहायता भी वहाँ से मिलेगी। पिछली 4 फरवरी को बीजिंग में शी चिनफिंग के साथ पुतिन की शिखर-वार्ता से यह भरोसा बढ़ा है। पर चीन किस हद तक रूस का सहायक होगा?  रूस से दोस्ती बढ़ाने का मतलब अमेरिका से रिश्तों को और ज्यादा बिगाड़ना है, जो पहले से ही बिगड़े हुए हैं।

Wednesday, February 9, 2022

नए शीत-युद्ध का प्रस्थान बिंदु है शी-पुतिन वार्ता

यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिमी देशों की तनातनी के बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चीन गए, जहाँ उनकी औपचारिक मुलाकात चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ हुई। वे विंटर ओलिम्पिक के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए गए थे, जिसका डिप्लोमैटिक महत्व नहीं है, पर दो बातों से यह यात्रा महत्वपूर्ण है। एक तो पश्चिमी देशों ने इस ओलिम्पिक का राजनयिक बहिष्कार किया है, दूसरे महामारी के कारण देश से बाहर नहीं निकले शी चिनफिंग की किसी राष्ट्राध्यक्ष से यह पहली रूबरू वार्ता थी।

क्या युद्ध होगा?

अमेरिका और यूरोप साबित करना चाहते हैं कि हम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत हैं। दूसरी तरफ रूस-चीन खुलकर साथ-साथ हैं। युद्ध कोई नहीं चाहता, पर युद्ध के हालात चाहते हैं। आर्थिक पाबंदियाँ, साइबर अटैक, छद्म युद्ध, हाइब्रिड वॉर वगैरह-वगैरह चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब रूस के साथ चीन है। ताइवान और हांगकांग के मसले भी इससे जुड़ गए हैं। ताइवान को अमेरिका की रक्षा-गारंटी है, यूक्रेन के साथ ऐसा नहीं है। फिर भी अमेरिका ने कुमुक भेजी है। 

कल्पना करें कि लड़ाई हुई और रूस पर अमेरिकी पाबंदियाँ लगीं, और बदले में पश्चिमी यूरोप को गैस-सप्लाई रूस रोक दे, तब क्या होगायूरोप में गैस का एक तिहाई हिस्सा रूस से आता है। शीतयुद्ध के दौरान भी सोवियत संघ ने गैस की सप्लाई बंद नहीं की थी। सोवियत संघ के पास विदेशी मुद्रा नहीं थी। पर आज रूस की अर्थव्यवस्था इसे सहन कर सकती है। अनुमान है कि रूस तीन महीने तक गैस-सप्लाई बंद रखे, तो उसे करीब 20 अरब डॉलर का नुकसान होगा। उसके पास 600 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। इतना ही नहीं, उसे चीन का सहारा भी है, जो उसके पेट्रोलियम और गैस का खरीदार है।

रूस-चीन बहनापा

क्या यह नया शीतयुद्ध है? शीतयुद्ध और आज की परिस्थितियों में गुणात्मक बदलाव है। उस वक्त सोवियत संघ और पश्चिम के बीच आयरन कर्टेन था, आज दुनिया काफी हद तक कारोबारी रिश्तों में बँधी हुई है। दो ब्लॉक बनाना आसान नहीं है, फिर भी वे बन रहे हैं। ईयू और अमेरिका करीब आए हैं, वहीं रूस और चीन का बहनापा बढ़ा है। पश्चिम में इस रूस-चीन गठजोड़ को ‘ड्रैगनबेयर’ नाम दिया गया है।

Monday, July 6, 2020

भारत क्या नए शीतयुद्ध का केंद्र बनेगा?


लद्दाख की गलवान घाटी में 15 जून की रात हुए हिंसक संघर्ष के बाद दुबारा कोई बड़ी घटना नहीं हुई है, पर समाधान के लक्षण भी नजर नहीं आ रहे हैं। सन 1962 के बाद पहली बार लग रहा है कि टकराव रोकने का कोई रास्ता नहीं निकला, तो वह बड़ी लड़ाई में तब्दील हो सकता है। दोनों पक्ष मान रहे हैं कि सेनाओं को एक-दूसरे से दूर जाना चाहिए, पर कैसे? अब जो खबरें मिली हैं, उनके अनुसार टकराव की शुरूआत पिछले साल सितंबर में ही हो गई थी, जब पैंगांग झील के पास दोनों देशों के सैनिकों की भिड़ंत हुई थी, जिसमें भारत के दस सैनिक घायल हुए थे।

शुरूआती चुप्पी के बाद भारत सरकार ने औपचारिक रूप से 25 जून को स्वीकार किया कि मई के महीने से चीनी सेना ने घुसपैठ बढ़ाई है। गलवान घाटी में पेट्रोलिंग पॉइंट-14 (पीपी-14) के पास हुई झड़प के बाद यह टकराव शुरू हुआ है। लगभग उसी समय पैंगांग झील के पास भी टकराव हुआ। दोनों घटनाएं 5-6 मई की हैं। उसी दौरान हॉट स्प्रिंग क्षेत्र से भी घुसपैठ की खबरें आईं। देपसांग इलाके में भी चीनी सैनिक जमावड़ा है।