उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शपथ-ग्रहण के दौरान एक ऐसा दृश्य पैदा हुआ, जैसा अतीत में कभी नहीं हुआ था। शपथ-ग्रहण के पहले भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश के हजारों मंदिरों में हवन-पूजन किया। काशी, मथुरा, अयोध्या और प्रयागराज स्थित मठों-अखाड़ों में रहने वाले साधु-संतों ने मंगलाचरण पाठ किया। चौक-चौराहों पर बैनर-होर्डिंग लगे थे। सवा चार बजे योगी आदित्यनाथ के माइक संभालते ही कई मंदिरों में आरती शुरू हुई, शंख-नाद हुआ, घंटे घड़ियाल बजाए गए। शहरों, कस्बों और गाँवों में भाजपा कार्यकर्ता जय श्रीराम के नारे लगाते हुए डीजे पर डांस कर रहे थे। उल्लास की इस अभिव्यक्ति का क्या अर्थ लगाया जाए? क्या यह हमारी प्राचीन संस्कृति का विजयोत्सव है, राजनीतिक हिन्दुत्व की अभिव्यक्ति है, सोशल इंजीनियरी की नई परिभाषा है या भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र है?
चुनाव-पूर्व मोर्चाबंदी
इन बातों पर टिप्पणी करने के पहले याद यह भी
रखना होगा कि उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में खुलकर कहा जा रहा था कि मुस्लिम वोटर
बीजेपी के खिलाफ ‘पूरी तरह एकताबद्ध’ है। वह टैक्टिकल वोटिंग करेगा वगैरह। देश-विदेश के ‘सेक्युलर-पर्यवेक्षक’ भी कह रहे थे। ऐसे निष्कर्षों की
प्रतिक्रिया या ‘बैकलैश’ को ध्यान में
रखे बगैर। प्रदेश के नए मंत्रिमंडल पर नजर डालें, जिसमें
विभिन्न जातियों को सावधानी से प्रतिनिधित्व दिया गया है। यह बीजेपी की
सामाजिक-इंजीनियरी है। किसी टिप्पणीकार ने माना कि बीजेपी ने ‘मंडल, कमंडल और भूमंडल’ का जो
सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक सूत्र तैयार किया है, उसकी काट आसान नहीं है। सवाल है
कि क्या इसे उन तमाम छोटे-छोटे पिछड़े
सामाजिक-वर्गों के उभार के रूप में देखें, जो राजनीतिक-हिन्दुत्व के ध्वज के नीचे
एक हो रहे हैं? ऐसे तमाम सवालों पर हमें ठंडे दिमाग से
विचार करना चाहिए।
विभाजन से पहले
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए हमें हजारों
साल पीछे जाना पड़ेगा, पर इस आलेख का दायरा उतना व्यापक नहीं है। स्वातंत्र्योत्तर
भारत की कुछ परिघटनाओं की छाया इन बातों पर जरूर है। सबसे बड़ा कारक है देश का विभाजन।
देश ने उदारवादी बहुल-संस्कृति समाज और सेक्युलरवाद को पूरे विश्वास के साथ
स्वीकार किया है। पर इस विचार के अंतर्विरोध बार-बार उभरे हैं। यह बात हमें
शाहबानो, राम मंदिर, ट्रिपल तलाक और हिजाब से लेकर ‘कश्मीर-फाइल्स’ तक बार-बार दिखाई पड़ी है। अयोध्या
में राम मंदिर का निर्माण शुरू होने के बाद तीन तरह की प्रतिक्रियाएं दिखाई और
सुनाई पड़ीं हैं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है
लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना, जिन्हें लगता है कि ‘हार्डकोर-हिन्दुत्व’ के पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया
है। इन दोनों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो खुद को कट्टरवाद का विरोधी मानता है, पर
राम मंदिर को कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता।
मुसलमानों की भूमिका
भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका को लेकर विमर्श की क्षीण-धारा भी है, पर उसे ठीक से सामने आने नहीं दिया गया। देश में सामासिक-संस्कृति की धारा भी बहती है। रसखान, रहीम, जायसी, नज़ीर अकबराबादी से लेकर बड़े गुलाम अली खां, नौशाद, राही मासूम रज़ा और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे मुसलमानों का हिन्दू समाज आदर करता है। योगी सरकार में केवल एक मुसलमान मंत्री है। ऐसा क्यों? चुनाव में बीजेपी मुसलमानों को तभी खड़ा करेगी, जब वे उसे वोट देंगे। उसने मान लिया है कि हमें मुसलमान वोट नहीं चाहिए। उसे मुसलमान-विरोधी साबित करने के पीछे भी राजनीति है। वोटरों के ध्रुवीकरण की शुरुआत कहाँ से हुई है, इसपर विचार करने की जरूरत है। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें हैं, पर विविधताओं को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। बीजेपी इस विशेषता को खत्म नहीं कर पाएगी।
एकता की जरूरत
हिन्दू हो या मुसलमान जिन्दगी की जद्दो-जहद में दोनों के सामने खड़े सवाल एक जैसे हैं। उन सवालों के हल हमारी एकता में निहित हैं, टकरावों में नहीं। राम मंदिर मामले में अदालत ने अपने निर्णय में एक जगह कहा है कि भारतीय संविधान धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करता। अब नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस बात को पुख्ता करें। मंदिर निर्माण भारत के राष्ट्र निर्माण का एक पड़ाव है। बड़ा सवाल है कि भारत की उदार और समन्वयवादी संस्कृति का क्या हुआ? कांग्रेसी नीतियों की आलोचना करते हुए राम मनोहर लोहिया ने लिखा है, ‘आजादी के इन वर्षों में मुसलमानों को हिन्दुओं के निकट लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया।’ अंततः राजनीति वही सफल मानी जाएगी, जो इन्हें तोड़े नहीं, जोड़े। वोट की राजनीति प्रकारांतर से समाज को तोड़ने का काम करती है। उसकी इस दुष्प्रवृत्ति पर विचार करने की जरूरत भी है।