Tuesday, May 28, 2013

क्रिकेट के सीने पर सवार इस दादागीरी को खत्म होना चाहिए

आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की खबरें आने के बाद यह माँग शुरू हुई कि इसके अध्यक्ष एन श्रीनिवासन को हटाया जाए। श्रीनिवासन पर आरोप केवल सट्टेबाज़ी को बढ़ावा देने का नहीं है। वे बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं और उनकी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स आईपीएल में शामिल है। 

इस बात को सब जानते हैं कि आईपीएल की व्यवस्था अलग है, पर वह बीसीसीआई के अधीन काम करती है। बीसीसीआई का भारतीय क्रिकेट पर ही नहीं अब दुनिया के क्रिकेट पर एकछत्र राज है। यह उसकी ताकत थी कि उसने क्रिकेट की विश्व संस्था आईसीसी के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया। 

भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने इसका कारोबार चलाने वालों को बेशुमार पैसा और ताकत दी है। और इस ताकत ने बीसीसीआई के एकाधिकार को कायम किया है। यह मामूली संस्था नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे ने हाल में बीबीसी हिन्दी वैबसाइट को बताया कि सत्ता के गलियारों में माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय से इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि वे बीसीसीआई पर फंदा कसने की कोशिश कर रहे थे।

Sunday, May 26, 2013

सूने शहर में शहनाई का शोर


यूपीए-2 की चौथी वर्षगाँठ की शाम भाजपा और कांग्रेस के बीच चले शब्दवाणों से राजनीतिक माहौल अचानक कड़वा हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाया, पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उपलब्धियों के साथ-साथ दो बातें और कहीं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनका पूरा समर्थन प्राप्त है और दूसरे इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि मुख्य विपक्षी पार्टी ने संवैधानिक भूमिका को नहीं निभाया, जिसकी वजह से कई अहम बिल पास नहीं हुए। इसके पहले भाजपा की नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सरकार पर जमकर तीर चलाए। दोनों ने अपने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि सरकार पूरी तरह फेल है। दोनों ओर से वाक्वाण देर रात तक चलते रहे।


पिछले नौ साल में यूपीए की गाड़ी झटके खाकर ही चली। न तो वह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ जैसी तुर्शी दिखा पाई और न उदारीकरण की गाड़ी को दौड़ा पाई। यूपीए के प्रारम्भिक वर्षों में अर्थव्यवस्था काफी तेजी से बढ़ी। इससे सरकार को कुछ लोकलुभावन कार्यक्रमों पर खर्च करने का मौका मिला। इसके कारण ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी। पर सरकार और पार्टी दो विपरीत दिशाओं में चलती रहीं। 

Wednesday, May 22, 2013

क्या यूपी में चल पाएगा मोदी का करिश्मा?


कर्नाटक चुनाव में धक्का खाने के बाद भाजपा तेजी से चुनाव के मोड में आ गई है. अगले महीने 8-9 जून को गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने जा रही है, जिसमें लगता है गिले-शिकवे होंगे और कुछ दृढ़ निश्चय.
मंगलवार को नरेन्द्र मोदी का संसदीय बोर्ड की बैठक में शामिल होना और उसके पहले लालकृष्ण आडवाणी के साथ मुलाकात करना काफी महत्वपूर्ण है. मोदी ने अपने ट्वीट में इस मुलाकात को ‘अद्भुत’ बताया है.

भारतीय जनता पार्टी किसी नेता को आगे करके चुनाव लड़ेगी भी या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं है. क्लिक करेंकर्नाटक के अनुभव ने इतना ज़रूर साफ किया है कि ऊपर के स्तर पर भ्रम की स्थिति पार्टी के लिए घातक होगी.
मोदी का संसदीय बोर्ड की बैठक में आना और खासतौर से अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया जाना इस बात की ओर इशारा कर ही रहा है कि मोदी का कद पार्टी के भीतर बढ़ा है.
बीबीसी हिन्दी में पढ़ें पूरा आलेख


मीडिया को चाहिए हर रोज़ एक नया शिकार


विन्दु दारा सिंह की गिरफ्तारी की खबर ऐसी छाई कि मंगलवार को नरेन्द्र मोदी की दिल्ली यात्रा की खबर सामने आ ही नहीं पाई। कोलगेट, टूजी, सीबीआई वगैरह पीछे रह गए हैं।लद्दाख का मसला पिछले दिनों मीडिया पर छाया रहा, पर जब चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली आए तो उसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पाकिस्तान का चुनाव एक दिन का रोमांच पैदा कर पाए। मीडिया के मुँह में रोमांच का खून लग गया है। जंगल के शेर की तरह उसे हर रोज़ और हर समय रोमांच से भरा एक शिकार चाहिए। 

Tuesday, May 21, 2013

कुछ विचार, कुछ समाचार

ममता बनर्जी
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ममता बनर्जी का सियासी सफर


जनाधार
 वाली एक नेता या ग़रीबों की मसीहा. दयालु या तीखे तेवर वाली एक महिला. दबंग नेता या फिर तानाशाह. ईमानदार लेकिन भ्रष्टाचार की अनदेखी करने वाली एक शासक. क्लिक करेंममता की पहचान से जुड़े कई सवाल हैं
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कोलकाता के भद्रलोक का ममता से मोहभंग क्यों?

तीसरे मोर्चे की सम्भावना प्रताप भानु मेहता

हालांकि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही तीसरे मोर्चे की सम्भावना को खारिज करते हैं, पर देश की जनता विकल्प के बारे में सोचने लगी हैः-

 The idea of a third front may not be a coherent political project. But its shadowy presence is a reminder that there is an underlying yearning to break through the limited choices offered by national parties. The Congress has perfected the art of converting the "there is no alternative" argument to a form of hubris and blackmail. It has induced such a profound myopia and arrogance in the party that even Congress supporters chafe at the thought of having no options. It may not always be irrational to succumb to blackmail, but we will be diminished if we don't punish it for its follies. The BJP does not, at present, offer a reassuring alternative. The party has four structures pulling in different directions: an obdurate RSS that still cannot overcome its past, several competent chief ministers whose ability to work together is yet to be tested, a feckless central leadership that has no grassroots appeal or track record of statesmanship, and Narendra Modi, trying to create a presidential style of legitimacy in a federalised parliamentary system. It is in a race with the Congress over the same things: indecisiveness, corruption, decimation of institutions and a sense of entitlement. The competition in the democratic system is like so many things in India, both intense and illusory at the same time.
Read the full article at the Indian Express: The third way out


Now, NewsX says it is the ‘No.1 English channel’


by churumuri
If our TV stations cannot even put out numbers of their viewership which have a faint whiff of credibility, can they real put out news and views that news consumers can trust and believe?
NewsX, the news channel which has already seen three sets of owners since its launch, is running crawlers on its screens and advertisements on websites, claiming that it was the "most watched English channel" on May 8, when the Karnataka election results came out.
By splicing and dicing TAM data, NewsX manages to show that Times Now was the least watched of the five major English news channel.
On the other hand, Times Now too is running print advertisements of its viewership on results day. Not surprisingly, this shows that Times Now was the most watched, with NewsX not even in the frame.







Monday, May 20, 2013

पराजय-बोध से ग्रस्त भाजपा




कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है। 

वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की वापसी पार्टी में संभव नहीं है। पर क्या कोई वापसी चाहता है?

उससे बड़ा सवाल है कि भाजपा किस तरह से पार्टी विद अ डिफरेंस नज़र आना चाहती है। उसके पास नया क्या है, जिसके सहारे वोटर का मन जीतना चाहती है? और उसके पास कौन ऐसा नेता है जो उसे चुनाव जिता सकता है?

भाजपा अभी तक कर्नाटक, यूपी और बिहार की मनोदशा से बाहर नहीं आ पाई है। उसके भीतर कहा जा रहा है कि सन 2008 में जब कर्नाटक में सरकार बन रही थी तब बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बंधुओं को शामिल कराने का दबाव तो केन्द्रीय नेताओं ने डाला। क्या वे उनकी पृष्ठभूमि नहीं जानते थे? आडवाणी जी कहते हैं कि हमने भ्रष्टाचार में मामले में समझौता नहीं किया, पर क्या उन्होंने रेड्डी बंधुओं के बारे में अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी?

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले साल जब मुम्बई में पार्टी कार्यकारिणी में पहली बार नरेन्द्र मोदी भाग लेने आए तो येद्दियुरप्पा भी आए थे। पार्टी की भीतरी कलह कुछ नहीं केवल राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का झगड़ा है। और इस वक्त यह झगड़ा नरेन्द्र मोदी बनाम आडवाणी की शक्ल ले चुका है। पिछले हफ्ते कर्नाटक के एमएलसी लहर सिंह सिरोया ने आडवाणी जी को चार पेज की करारी चिट्ठी लिखी है, जिसमें कुछ कड़वे सवाल हैं। सिरोया को पार्टी कोषाध्यक्ष पद से फौरन हटा दिया गया, पर क्या सवाल खत्म हो गए?

Sunday, May 19, 2013

खेलों का कचूमर निकालते उसके सौदागर



स्पॉट फिक्सिंग सिर्फ क्रिकेट का मामला नहीं है। अब यह हमारे खून में शामिल हो गई है। जबसे आईपीएल शुरू हुआ है यह बेशर्मी से चीयर गर्ल्स के साथ नाचने लगी है। पिछले साल इन्हीं दिनों आईपीएल से जुड़े कुछ खिलाड़ियों पर स्पॉट फिक्सिंग के आरोप लगे थे। 

एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद पुणे वारियर्स के मोहनीश मिश्रा, किंग्स इलेवन पंजाब के शलभ श्रीवास्तव, डेकन चार्जर्स के टी. पी. सुधींद्र, किंग्स इलेवन पंजाब के अमित यादव और दिल्ली के अभिनव बाली को सस्पेंड किया गया था। जाँच के बाद टीपी सुधीन्द्र को जीवन भर के लिए और शलभ श्रीवास्तव  को पाँच साल के लिए बैन कर दिया गया। 

बाकी तीन खिलाड़ियों को लूज़ टॉक के कारण एक-एक साल के लिए बैन किया गया। एक साल का यह बैन इसी बुधवार को खत्म हुआ था। यानी जिस दिन श्रीसंत एंड कम्पनी का मामला सामने आया। 

उसी दिन अंतरऱाष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ के साथ भारत की ओलिम्पिक खेलों में वापसी को लेकर सकारात्मक बात हुई थी। ओलिम्पिक खेलों का आईपीएल से कोई रिश्ता नहीं है, पर भारत में खेलों का जो कचूमर निकला है उसमें आईपीएल कल्चर का हाथ है। 

सन 2008 में जबसे आईपीएल शुरू हुआ है कोई साल ऐसा नहीं जाता जब कोई विवाद खड़ा नहीं होता हो। बीसीसीआई ने कभी इसे गम्भीरता से नहीं लिया। पिछले साल इस मामले में पुलिस जाँच की ज़रूरत नहीं समझी गई। उन दिनों अमित यादव ने मीडिया के सामने ऐसा इशारा किया था कि टीम फ्रैंचाइज़ी खुद ही फिक्स कर देते हैं। 

Monday, May 13, 2013

अब दलदल में हैं मनमोहन


कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पद से हटाने का फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संयुक्त निर्णय था केवल सोनिया गांधी का नहीं। इस स्पष्टीकरण की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि मीडिया में इस बात का चर्चा था कि सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से मंत्री हटे। आडवाणी जी ने अपने ब्लॉग में मनमोहन सिंह को उलाहना भी दिया कि अब पद पर बने रहने के क्या माने हैं? बहरहाल इतना ज़रूर स्पष्ट हो रहा है कि विपक्ष का निशाना अब सीधे मनमोहन सिंह बनेंगे।

पवन बंसल और अश्विनी कुमार की छुट्टी के बाद भी यूपीए-2 का संकट खत्म नहीं होगा। मंत्रियों के इस्तीफों के पीछे सोनिया गांधी का हाथ होने की बात मीडिया में आने के कारण जहाँ पार्टी अध्यक्ष की स्थिति बेहतर हुई है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति बिगड़ी है। 

कोल ब्लॉक आबंटन तब हुआ जब कोयला मंत्रालय का प्रभार भी प्रधानमंत्री के पास था। इसलिए कोयले की कालिख अब सीधे प्रधानमंत्री पर लगेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई की जो स्टेटस रिपोर्ट पेश हुई है उसके अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक आबंटनों के सिलसिले में अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दायर की गई हैं।

कौन हैं वे अधिकारी? उनका नाम पता  लगाने के पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि उस वक्त कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।

Sunday, May 12, 2013

आडवाणी जी का टेलपीस


आज भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कर्नाटक में भाजपा की पराजय पर अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझे इस हार पर विस्मय नहीं हुआ, बल्कि भाजपा जीतती तो विस्मय होता। उनका कहना है कि भाजपा ने नैतिक दृष्टि से भ्रष्टाचार को स्वीकार नहीं किया इसलिए यह पराजय हुई।


उनके ब्लॉग का रोचक हिस्सा था उसका टेलपीस, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री को उलाहना दिया था कि अब मंत्रियों को हटाने का फैसला भी ऊपर से होता है। इतनी ही नहीं सोनिया गांधी अब मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में भी फैसले करेंगी। इस टेलपीस ने कांग्रेसी नेृतृत्व को व्यथित कर दिया है। पहले इस टेलपीस को पढ़ें :-

TAILPIECE

Today’s PIONEER carries on its front page a highlighted box item captioned : SNUB TO PM?  It goes on to say that Smt. Sonia Gandhi will be meeting senior party leaders soon to discuss the Cabinet reshuffle.

Has the Prime Minister abdicated his right even to decide about his own cabinet? Today’s news reports about the removal of two Union Ministers generally emphasise that it is Soniaji who has sacked ‘two PM’s men.’

Sheer self-respect demands that the PM calls it a day, and orders an early general election.

इस टेलपीस का असर था कि कांग्रेस को वक्तव्य जारी करके सफाई देनी पड़ी कि यह फैसला अकेले सोनिया गांधी का नहीं था, संयुक्त फैसला था। हिन्दू की वैबसाइट में इस खबर को इस तरह दिया गया:-

Dropping of P.K. Bansal and Ashwani Kumar from the Union Cabinet was the “joint decision” of Prime Minister Manmohan Singh and Sonia Gandhi, the Congress said on Sunday dismissing reports that the action was at the insistence of the party president.
“It has appeared in a section of the media that it was at the insistence of Congress president Sonia Gandhi that the two Ministers were dropped. This perception is not correct.
“The correct position is that it was the joint decision of the Congress president and Prime Minister Manmohan Singh,” party general secretary Janardan Dwivedi said in New Delhi.
The statement of Mr. Dwivedi, the AICC Media Department chief, is significant as reports had suggested that Mr. Bansal and Mr. Kumar, seen to be close to the Prime Minister, were made to resign by him late on Friday after the Congress president expressed her displeasure over their continuance in office.


आज़ादी चाहता है ‘पिंजरे में कैद तोता’


सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार के पिंजड़े में कैद तोता ही नहीं बताया, उसकी आज़ादी का रास्ता भी साफ कर दिया है। रेलमंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार को हटा दिया गया है। 

मंत्रियों का रहना या हटना मूल समस्या नहीं है। समस्या का लक्षण है। इन दोनों मंत्रियों के साथ दो अलग-अलग किस्म के मामले जुड़े हैं। पर एक साम्य है। वह है सीबीआई की भूमिका।

 पिछले हफ्ते सीबीआई को लेकर एक महत्वपूर्ण पहल सुप्रीम कोर्ट ने की है। उसने सरकार को प्रकारांतर से निर्देश दिया कि जाँच एजेंसी को बाहरी हस्तक्षेप से बचाने के लिए कानून बनाया जाए। 

यह काम इस मामले पर अगली सुनवाई यानी 10 जुलाई के पहले-पहले कर लिया जाना चाहिए और इसके लिए संसद की स्वीकृति का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यानी अध्यादेश जारी करके यह काम किया जा सकता है।

दिल्ली के येदियुरप्पा न बन जाएं मनमोहन


कर्नाटक ने कांग्रेस की मुश्किल घड़ी में बड़ी मदद की है। उसके डूबते जहाज को सहारा दिया है, बल्कि गहरी मूर्च्छा में पड़ी पार्टी को संजीवनी दी है। पर यह सब इतना ही है, इससे आगे नहीं। कांग्रेस कह रही है कि अब तो ट्रेंड सेट हो गया है, जो 2014 के चुनाव तक चलेगा। यह भी कहा जा रहा है कि यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है। 

मनमोहन सिंह ने यह जीत राहुल गांधी को समर्पित की है और दिग्विजय सिंह ने हार का ठीकरा नरेन्द्र मोदी के सिर पर फोड़ा है। कांग्रेस नेता नारायणसामी के अनुसार नरेन्द्र मोदी डूब गए। क्या कर्नाटक के मतदाता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट दिया है? बेशक उसने भाजपा के खिलाफ वोट दिया है, पर यह भाजपा के भ्रष्टाचार के खिलाफ है या प्रदेश के विफल प्रशासन के खिलाफ? या भाजपा के वोटों के बँटवारे के कारण? 

सम्भव है सारे कारणों का कुछ न कुछ योगदान हो, पर यह वोट काग्रेस के पक्ष में सकारात्मक न होकर भाजपा के खिलाफ नकारात्मक वोट है। कांग्रेस ने इसका ज्यादा फायदा उठाया, क्योंकि उसने खुद को विकल्प के रूप में पेश किया। जेडीएस को उसने विकल्प नहीं बनाया, क्योंकि जेडीएस का जनाधार छोटा है और 2008 के चुनाव में वोटर ने जेडीएस की धोखाधड़ी के खिलाफ ही भीजेपी को जिताया था।

Saturday, May 11, 2013

अगला कौन?

हिन्दू में केशव का कार्टून

15 नवम्बर 2010 ए राजा, टूजी

7 जुलाई 2011 दयानिधि मारन, एयरसेल-मैक्सिस डील

26 जून 2012 वीरभद्र सिंह, कारोबारी सौदों में घूसखोरी

10 मई 2013 पवन कुमार बंसल और अश्विनी कुमार, रेलगेट और कोलगेट


अगला कौन?

सतीश आचार्य का कार्टून

Friday, May 10, 2013

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के कुछ ‘गैर-कांग्रेसी’ कारण


Photo: Shikari Rahul!
(Fake Encounter in Karnataka)

ऊपर सतीश आचार्य का कार्टून नीचे हिन्दू में केशव का कार्टून
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.

कांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.

कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.

पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.

राज्यपाल की भूमिका
सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.

दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.

30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को हंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से इन योग्यताओं से लैस थे.

विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.

वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.

बीबीसी हिंदी डॉटकॉम में पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें

एक माँ का अचानक खो जाना


प्रमोद जोशी
 साहित्य, संगीत, चित्रकला और रंगमंच पर माँ विषय सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला विषय है। निराशा में आशा जगाती, निस्वार्थ प्रेम की सबसे बड़ी प्रतीक है माँ। जितना वह हमें जानती है हम उसे नहीं जानते। दक्षिण कोरिया की लेखिका क्युंग-सुक शिन ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय बेस्ट सेलर प्लीज लुक आफ्टर मॉममें यही बताने की कोशिश की है कि जब माँ हमारे बीच नहीं होती है तब पता लगता है कि हम उसे कितना कम जानते थे। सन 2011 के मैन एशियन पुरस्कार से अलंकृत इस उपन्यास का 19 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। और अब यह हिन्दी में माँ का ध्यान रखना नाम से उपलब्ध है।
इसकी कहानी 69 साल की महिला पार्क सो-न्यो के बारे में है, जो दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल के मेट्रो स्टेशन पर भीड़ के बीच उसका हाथ पति के हाथ से छूटा और वह बिछुड़ गई। उसका झोला भी उसके पति के पास रह गया। वह खाली हाथ थी। वे दोनों अपने बड़े बेटे ह्योंग चोल के पास आ रहे थे। पूरे उपन्यास में माँ की गुजरे वक्त की कहानी है। पाँच बच्चों की माँ। इनमें तीसरे नम्बर की बेटी लेखिका है। वह ह्योंग चोल को वकील बनाना चाहती थी, पर वह कारोबारी बना। माँ के बिछुड़ जाने पर ह्योंग चोल को अफसोस है। माँ की कहानी त्याग की कहानी है। उसने अपना जन्मदिन भी पिता के जन्मदिन के साथ मनाना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे खामोशी से माँ का असली जन्मदिन नज़रन्दाज कर दिया गया। जब वह खो गई तो इश्तहार देने के लिए किसी के पास उसकी फोटो नहीं थे। फोटो खिंचाते वक्त वह गायब हो जाती थी। बड़े बेटे को जब शहर में हाईस्कूल के सर्टिफिकेट की ज़रूरत हुई तो उसने पिता को फोन किया कि किसी के हाथ बस से भेज दो, मैं ले लूँगा। उस ठंडी रात में माँ वह कागज लेकर खुद शहर जा पहुँची।

Monday, May 6, 2013

इस स्टूडियो-उन्माद को भी बन्द कीजिए


अच्द्दा हुआ कि लद्दाख में चीनी फौजों की वापसी के बाद तनाव का एक दौर खत्म हुआ, पर यह स्थायी समाधान नहीं है। भारत-चीन सीमा उतनी अच्छी तरह परिभाषित नहीं है, जितना हम मान लेते हैं। दूसरे हम पूछ सकते हैं कि हमारी सेना अपनी ही सीमा के अंदर पीछे क्यों हटी? इस सवाल का जवाब बेहतर हो कि राजनयिक स्तर पर हासिल किया जाए। पिछले हफ्ते कई जगह कहा जा रहा था कि भारत सॉफ्ट स्टेट है। सरकार ने शर्मनाक चुप्पी साधी है। बुज़दिल, कायर, दब्बू, नपुंसक। खत्म करो पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बन्ध। तोड़ लो चीन से रिश्ते। मिट्टी में मिला दी हमारी इज़्ज़त। इस साल जनवरी में जब दो भारतीय सैनिकों की जम्मू-कश्मीर सीमा पर गर्दन काटे जाने की खबरें आईं तब लगभग ऐसी प्रतिक्रियाएं थीं। और फिर जब लद्दाख में चीनी घुसपैठ और सरबजीत सिंह की हत्या की खबरें मिलीं तो इन प्रतिक्रयाओं की तल्खी और बढ़ गई। टीवी चैनलों के शो में बैठे विशेषज्ञों की सलाह मानें तो हमें युद्ध के नगाड़े बजा देने चाहिए। सरबजीत का मामला परेशान करने वाला है, पर मीडिया ने उसे जिस किस्म का विस्तार दिया वह अवास्तविक है। हम भावनाओं में बह गए। सच यह है कि जब सुरक्षा और विदेश नीति पर बात होती है तो हम उसमें शामिल नहीं होते। उसे बोझिल और उबाऊ मानते हैं। और जब कुछ हो जाता है तो बचकाने तरीके से बरताव करने लगते हैं। हमने 1965, 1971 और 1999 की लड़ाइयों में पाकिस्तान के साथ राजनयिक रिश्ते नहीं तोड़े तो आज तोड़ने वाली बात क्या हो गईहम बात-बात पर इस्रायली और अमेरिकी कार्रवाइयों का जिक्र करते हैं। क्या हमारे पास वह ताकत है? और हो भी तो क्या फौरन हमले शुरू कर दें? किस पर हमले चाहते हैं आप?  बेशक हम राष्ट्र हितों की बलि चढ़ते नहीं देख सकते, पर हमें तथ्यों की छान-बीन करने और बात को सही परिप्रेक्ष्य में समझना भी चाहिए। 

Sunday, May 5, 2013

राष्ट्रगान के रिकॉर्ड बनाने से ज्यादा मिलकर काम करें

राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड बनाने से काम चलता हो तो भारत को सिर्फ चीन ही पछाड़ पाएगा, पर हमारी प्रतियोगिता पाकिस्तान से चल रही है। 6 मई को हमारे यहाँ नया विश्व रिकॉर्ड बनने जा रहा है। पर क्या इस विश्व रिकॉर्ड के बाद हमारा समाज ज्यादा समझदार, विवेकशील और कल्याणकारी हो जाएगा। हमें सबके लिए अच्छी शिक्षा, सबके लिए अच्छा स्वास्थ्य और सुशासन चाहिए। पर हमारे यहाँ एक के बाद एक खुलते घोटाले कुछ और कहानी कहते हैं। ठीक है राष्ट्रगीत गाइए, पर गीतों की भावना को जीवन में भी उतारिए। वर्ना यह सब पाखंड भर साबित होगा। इस विषय में मैने इसके पहले एक पोस्ट लिखी थी, उसे नीचे पढ़ें


25 जनवरी 2012 औरंगाबाद

20 अक्टूबर 2012 लाहौर

केवल राष्ट्र्गान गाने से काम चलता हो तो पाकिस्तान ने गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स के अंतर्गत विश्व रिकॉर्ड कायम कर लिया है। शनिवार 20 अक्टूबर को लाहौर के नेशनल हॉकी स्टेडियम में 44,200 लोगों ने एक साथ खड़े होकर देश का राष्ट्रगान गाया। पाकिस्तान के लिए एक उपलब्धि यह भी थी कि उसने इस मामले में भारत का रिकॉर्ड तोड़ा था। 25 जनवरी 2012 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के डिवीज़नल स्पोर्ट्स ग्राउंड में 15,243 लोगों ने एक साथ खड़े होकर वंदे मातरम गाया था। वह कार्यक्रम लोकमत मीडिया कम्पनी ने आयोजित किया था। उसके पहले 14 अगस्त 2011 को पाकिस्तान के कराची शहर में 5,857 लोगों ने एक साथ अपना राष्ट्रगान गाया था। इस रिकॉर्ड को कायम करने के लिए फेसबुक और ट्विटर की मदद ली गई थी।

शनिवार को लाहौर में कायम किए गए विश्व रिकॉर्ड में पाकिस्तान के पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ भी शामिल थे। राष्ट्रगान और समूहगान हमें एक जुट होने की प्रेरणा देते हैं। हाल में मलाला युसुफज़ई प्रकरण में पाकिस्तान की सिविल सोसायटी ने एकता का परिचय दिया था। इस एकता की दिशा बदहाली और बुराइयों से लड़ने की होनी चाहिए। हम होंगे कामयाब जैसे समूहगान चमत्कारी हो सकते हैं बशर्ते हमारी सामूहिक पहलकदमी में दम हो। सम्भव है कल भारत में कोई इससे भी बड़ी भीड़ से राष्ट्रगान गवाने में कामयाब हो जाए, पर असल बात भावना की है।
राष्ट्रगान के विश्व रिकॉर्ड

छाती पीटने से नहीं होगी राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा


सरबजीत के मामले में भारत सरकार, मीडिया और जनता के जबर्दस्त अंतर्विरोध देखने को मिले हैं। सरबजीत अगस्त 1990 में गिरफ्तार हुआ था और अक्टूबर 1991 में उसे मौत की सजा दी गई थी। इसके बाद यह मामला अदालती प्रक्रियाओं में उलझा रहा और 2006 में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी सजा को बहाल रखा। इस दौरान भारतीय मीडिया ने उसकी सुध नहीं ली। सरबजीत की बहन और गाँव वालों की पहल पर कुछ स्थानीय अखबारों में उसकी खबरें छपती थीं। इसी पहल के सहारे भारतीय संसद में यह मामला पहुँचा और सितम्बर 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सालाना सम्मेलन के मौके पर पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्ऱफ के सामने इस मसले को रखा।

Friday, May 3, 2013

कांग्रेस की राह के 11 रोड़े


प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

मई 2009 में जब यूपीए-2 की सरकार आई तब लगा था कि देश में स्थिरता का एक दौर आने वाला है.

सरकार के पास सुरक्षित बहुमत है. सहयोगी दल अपेक्षाकृत सौम्य हैं.

इस घटना के कुछ महीने पहले ही मंदी का पहला दौर शुरू हुआ था. हमारी आर्थिक विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 6 प्रतिशत के करीब आ गई थी. पर उस संकट से हम पार हो गए. अन्न के वैश्विक संकट का प्रभाव हमारे देश पर नहीं पड़ा.

नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा. इस खरीद का यों तो कोई खास अर्थ नहीं. पर प्रतीक रूप में महत्व है. इस घटना के 18 साल पहले 1991 में जब हमारा विदेशी मुद्रा रिजर्व घटकर दो अरब डॉलर से भी कम हो गया था, हमें अपने पास रखे रिजर्व सोने में से 67 टन सोना बेचना पड़ा था.

इसके अगले साल यानी 2010 तक देश के उत्साह में कमी नहीं थी. एक अप्रैल 2010 को हमने हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार दिया. आर्थिक इंडिकेटर्स भी ठीक थे. पर जून आते-आते हालात बदल गए. और तब से पिछले तीन साल में कांग्रेस की कहानी में बुनियादी पेच पैदा हुए हैं. स्क्रिप्ट भटक गई है.

सबसे बड़ी बात यह कि लालकृष्ण आडवाणी के पराभव के बाद रसातल की ओर जा रही भारतीय जनता पार्टी को नकारात्मक प्रचार का फ़ायदा मिला और कांग्रेस को नुकसान.

इस दौरान कांग्रेस को केवल एक बड़ी राजनीतिक सफलता मिली है. वह है राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर उसके प्रत्याशियों की जीत. इस बात को जानने की कोशिश करें कि वे कौन से बिन्दु हैं जो कांग्रेस को परेशान करते हैं.
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अमेरिका जाने का शौक है तो उसे झेलना भी सीखिए


अमेरिका के हवाई अड्डों से अक्सर भारतीय नेताओं या विशिष्ट व्यक्तियों के अपमान की खबरें आती हैं। अपमान से यहाँ आशय उस सामान्य सुरक्षा जाँच और पूछताछ से है जो 9/11 के बाद से शुरू हुई है। आमतौर पर यह शिकायत विशिष्ट व्यक्तियों या वीआईपी की ओर से आती है। सामान्य व्यक्ति एक तो इसके लिए तैयार रहते हैं, दूसरे उन्हें उस प्रकार का अनुभव नहीं होता जिसका अंदेशा होता है। मसलन एक पाकिस्तानी नागरिक ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि मुझसे तकरीबन 45 मिनट तक पूछताछ की गई, पर किसी वक्त अभद्र शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ। मेरी पत्नी को मैम और मुझे सर या मिस्टर सिद्दीकी कहकर ही सम्बोधित किया गया। उन्होंने सवाल भी मामूली पूछे, जिनमें मेरा कार्यक्रम क्या है, मैं करता क्या हूँ, अमेरिका क्यों आया हूँ वगैरह थे। दरअसल हमारे देश के नागरिक अपने देश की सुरक्षा एजेंसियों के व्यवहार से इतने घबराए होते हैं कि उन्हें अमेरिकी एजेंसियों के बर्ताव को लेकर अंदेशा बना रहता है।