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Friday, November 19, 2021

सिविल सोसायटी ‘दुश्मन’ नहीं , अलबत्ता उसकी आड़ में दुश्मनी संभव है


राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में इस शनिवार को प्रकाशित होने वाला एक आलेख जब मैंने लिखा था, उसके पहले 12 नवंबर को हैदराबाद में सरदार वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में भारतीय पुलिस सेवा के प्रोबेशनरी अधिकारियों' के दीक्षा समारोह में नागरिक समाज को युद्ध का नया मोर्चा' कहा था। अपने आलेख में मैंने उनके बयान का जिक्र नहीं किया, पर इस बात की ओर इशारा किया था कि आंतरिक-सुरक्षा की अनेक चुनौतियों में यह बात भी शामिल है कि बाहरी ताकतें हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था और उसमें उपलब्ध आजादी का फायदा उठा सकती हैं।

कौन है दुश्मन?

सिविल सोसायटी वस्तुतः देश का समझदार मध्यवर्ग है। उसके ऊपर देश की लोकतांत्रिक-व्यवस्था और जनता के हितों की रक्षा का भार भी है। राज्य के जन-विरोधी कार्यों का विरोध करना भी उसकी जिम्मेदारी है, पर मामला यहीं तक सीमित नहीं है। मैंने अजित डोभाल के बयान पर ध्यान भी नहीं दिया था, क्योंकि जो बात उन्होंने कही है, वह बात आज दुनिया के अनेक रक्षा-विशेषज्ञ कह रहे हैं। पर इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अरुणा रॉय के एक लेख ने मेरा ध्यान खींचा। इसमें उन्होंने लिखा है कि सिविल सोसायटी दुश्मन नहीं है।

उनके अलावा वायर के प्रमुख सिद्धार्थ वरदराजन ने अपनी वैबसाइट में लिखा है कि बीते सप्ताह नरेंद्र मोदी सरकार के दो ज़िम्मेदार अधिकारियों-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत-ने व्यापक राष्ट्रहित के नाम पर क़ानून के शासन के उल्लंघन को जायज़ ठहराने के लिए नए सिद्धांतों को गढ़ने की कोशिश की है। जनरल रावत ने 13 नवंबर को टाइम्स नाउ के समिट में कहा कि कश्मीर में जनता कह रही है कि हम आतंकवादियों को लिंच करेंगे। यह एक सकारात्मक संकेत है। 

संवैधानिकता

वरदराजन के अनुसार पुलिस पर जिन कानूनों को लागू करवाने का दायित्व है, उनमें से ज्यादातर औपनिवेशिक काल के हैं, जो किसी लोकतांत्रिक बहस की उपज नहीं थे। मिसाल के लिए, राजद्रोह के कानून को ही ले सकते हैं। दूसरी बात, कानून निर्माताओं द्वारा पारित कई कानून खराब तरीके से या अस्पष्ट तरीके से लिखे गए होते हैं और उन पर काफी अपर्याप्त बहस हुई होती है और उनके दुरुपयोग का दरवाजा खुला रहता है। तीसरी बात, सारे कानून और कार्यपालिका के सभी फैसले न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं। दूसरे शब्दों में, कानून का अच्छा होना उसकी संवैधानिकता पर निर्भर करता है और इसका फैसला कोर्ट करता है और न कि वे जो मतदान पेटियों के द्वारा निर्वाचित होते हैं।

पुलिस-स्टेट का चार्टर

सवाल है कि वरदराजन कानूनों की संवैधानिकता या उपयोगिता पर सवाल उठा रहे हैं या उन्हें बनाने वाली राजनीति पर। उनके अनुसार सिविल सोसाइटी के आलोचकों को परोक्ष चेतावनी के साथ-साथ डोभाल ने लोकतंत्र की जो परिभाषा दी है, वह एक पुलिस वाले द्वारा एक पुलिस राज्य के चार्टर के अलावा और कुछ नहीं है। इसके तहत चुने हुए प्रतिनिधियों-यानी सरकार-की इच्छा को चुनौती देने वालों को ‘युद्ध के चौथे मोर्चे’ पर आंतरिक शत्रु के तौर पर देखा जाना है। डोभाल और रावत, दोनों ने दरअसल सिर्फ पिछले महीने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रखे गए पक्ष को दोहराने का काम किया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘कुछ लोग कुछ घटनाओं में मानवाधिकार के उल्लंघन को देखते हैं, लेकिन कुछ में नहीं।